रेल बजट का आम बजट में विलय दरअसल भारतीय रेल के पुनर्गठन का आखिरी मौका है
राजधानी दिल्ली में रेल भवन के गलियारे रहस्यमय हो चले हैं. असमंजस तो रेल भवन से महज आधा किलोमीटर दूर रायसीना हिल्स की उत्तरी इमारत में भी कम नहीं है जो वित्त मंत्रालय के नाम से जानी जाती है. 93 साल पुराना रेल बजट, 2017 से वित्त मंत्री अरुण जेटली का सिरदर्द हो जाएगा. रेल मंत्री सुरेश प्रभु बेचैन हैं, वे रेल बजट के आम बजट में विलय के सवालों पर खीझ उठते हैं. अलबत्ता उनके स्टाफ से लेकर सुदूर इलाकों तक फैले रेल नेटवर्क का हर छोटा-बड़ा कारिंदा दो बजटों के मिलन की हर आहट पर कान लगाए है, क्योंकि रेल बजट का आम बजट में विलय आजादी के बाद रेलवे के सबसे बड़े पुनर्गठन का रास्ता खोल सकता है.
सुरेश प्रभु की बेचैनी लाजिमी है. तमाम कोशिशों के बावजूद वे रेलवे की माली हालत सुधार नहीं पाए हैं. बीते एक माह में उन्होंने रेलवे की दो सबसे फायदेमंद सेवाओं को निचोड़ लिया. पहले कोयले पर माल भाड़ा बढ़ा. रेलवे का लगभग 50 फीसदी ढुलाई राजस्व कोयले से आता है. फिर प्रीमियम ट्रेनों में सर्ज प्राइसिंग यानी मांग के हिसाब से महंगे किराये बढ़ाने की नीति लागू हो गई. गहरे वित्तीय संकट में फंसी रेलवे अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता खत्म करने पर मजबूर है. रेलवे अपना माल और यात्री कारोबार अन्य क्षेत्रों को सौंपना चाहती है ताकि घाटा कम किया जा सके. रेल मंत्री ने भाड़ा और किराये बढ़ाकर, वित्त मंत्री की तकलीफें कम करने की कोशिश की है, जो रेलवे का बोझ अपनी पीठ पर उठाएंगे.
रेलवे और वित्त मंत्रालय के रिश्ते पेचीदा हैं. रेलवे कोई कंपनी नहीं है, फिर भी सरकार को लाभांश देती है. रेलवे घाटे में है, इसलिए यह लाभांश नहीं बल्कि बजट से मिलने वाले कर्ज पर ब्याज है. एक हाथ से रेलवे सरकार को ''लाभांश" देती है तो दूसरे हाथ से आम बजट से मदद लेती है. यह मदद रेलवे नेटवर्क के विस्तार और आधुनिकीकरण के लिए है, क्योंकि दैनिक खर्चों, वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने के बाद रेलवे के पास नेटवर्क विस्तार के लिए संसाधन नहीं बचते. रेलवे के तहत कई कंपनियां हैं, जिन्हें अलग से केंद्रीय खजाने से वित्तीय मदद मिलती है.
बजट से मदद के अलावा रेलवे को भारी कर्ज लेना पड़ता है, जिसके लिए इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉर्पोरेशन है. भारत में रेलवे अकेला सरकारी विभाग है जिसके पास कर्ज उगाहने वाली कंपनी है, जो रेलवे को वैगन-डिब्बा आदि के लिए कर्ज संसाधन देती है. प्रभु के नेतृत्व में रेलवे ने जीवन बीमा निगम से भी कर्ज लिया है, जो खासा महंगा है.
रेलवे सिर्फ परियोजनाओं के लिए ही आम बजट की मोहताज नहीं है, बल्कि उसके मौजूदा संचालन भी भारी घाटे वाले हैं. यह घाटा सस्ते यात्री किराये (34,000 करोड़ रु.) और उन परियोजनाओं का नतीजा है जो रणनीतिक या सामाजिक जरूरतों से जुड़ी हैं. इसके अलावा रेलवे को लंबित परियोजनाओं के लिए 4.83 लाख करोड़ रु. और वेतन आयोग के लिए 30,000 करोड़ रु. चाहिए.
रेल बजट के आम बजट में विलय के साथ यह सारा घाटा, देनदारी, कर्ज आदि आदर्श तौर पर अरुण जेटली की जिम्मेदारी बन जाएगा. रेल मंत्री रेलवे के राजनैतिक दबावों और लाभांश चुकाने की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे और रेल मंत्रालय दरअसल डाक विभाग जैसा हो जाएगा, जिसका घाटा और खर्चे केंद्रीय बजट का हिस्सा हैं. अलबत्ता रेलवे डाक विभाग नहीं है. भारत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर की जिम्मेदारियां, देनदारियां और वित्तीय मुसीबतें भीमकाय हैं. उसका घाटा, देनदारियां, पेंशन, वेतन खर्चे अपनाने के बाद बजट का कचूमर निकल जाएगा, राजकोषीय घाटे को पंख लग जाएंगे. सो बजटों के विलय के बाद रेलवे का पुनर्गठन अपरिहार्य है. यह बात अलग है कि सरकार इस अनिवार्यता को स्वीकारने से डर रही है.
बजट-विलय के बाद रेलवे के पुनर्गठन के चार आयाम होने चाहिएः
पहलाः अकाउंटिंग सुधारों के जरिए रेलवे की सामाजिक जिम्मेदारियों और वाणिज्यिक कारोबार को अलग-अलग करना होगा और चुनिंदा सामाजिक सेवाओं और प्रोजेक्ट के लिए बजट से सब्सिडी निर्धारित करनी होगी. शेष रेलवे को माल भाड़ा और किराया बढ़ाकर वाणिज्यिक तौर पर मुनाफे में लाना होगा. किराये तय करने के लिए स्वतंत्र नियामक का गठन इस सुधार का हिस्सा होगा.
दूसराः रेलवे के अस्पताल और स्कूल जैसे कामों को बंद किया जाए या बेच दिया जाए ताकि खर्च बच सकें.
तीसराः देबरॉय समिति की सिफारिशों के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोर्ट संचालन और बुनियादी ढांचे को अलग कंपनियों में बदला जाए और रेलवे के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए एक होल्डिंग कंपनी बनाई जाए.
चौथाः रेलवे की नई कंपनियों में निजी निवेश आमंत्रित किया जाए या उन्हें विनिवेश के जरिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए जैसा कि दूरसंचार सेवा विभाग को बीएसएनएल में बदल कर किया गया था.
बजटों के विलय के साथ रेलवे अपने सौ साल पुराने इतिहास की तरफ लौटती दिख रही है. 1880 से पहले लगभग आधा दर्जन निजी कंपनियां रेल सेवा चलाती थीं. ब्रिटिश सरकार ने अगले 40 साल तक इनका अधिग्रहण किया और रेलवे को विशाल सरकारी ट्रांसपोर्टर में बदल दिया. इस पुनर्गठन के बाद 1921 में एकवर्थ समिति की सिफारिश के आधार पर स्वतंत्र रेलवे बजट की परंपरा प्रारंभ हुई, जिसमें रेलवे का वाणिज्यिक स्वरूप बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से ''रेलवे की लाभांश व्यवस्था" तय की गई थी. अब बजट मिलन के बाद रेलवे को समग्र कंपनीकरण की तरफ लौटना होगा ताकि इसे वाणिज्यिक और सामाजिक रूप से लाभप्रद और सक्षम बनाया जा सके. डिब्बा पहिया, इंजन, कैटरिंग, रिजर्वेशन के लिए अलग-अलग कंपनियां पहले से हैं, सबसे बड़े संचालनों यानी परिवहन और बुनियादी ढांचे के लिए कंपनियों का गठन अगला कदम होना चाहिए.
पर अंदेशा है कि राजनैतिक चुनौतियों के डर से सरकार रेल बजट की परंपरा बंद करने तक सीमित न रह जाए. रेल बजट का आम बजट में विलय भारतीय रेल को बदलने का आखिरी मौका है. अब सियासी नेतृत्व को रेलवे के पुनर्गठन की कड़वी गोली चबानी ही पड़ेगी वरना रेलवे का बोझ जेटली की वित्तीय सफलताओं को ध्वस्त कर देगा.