पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थी? अथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके?
गनीमत है कि भारत में आम
लोग आंकड़ों को नहीं समझते. राजनीति में कुछ भी कह कर बच निकलना संभव है और झूठ व
सच को आंकड़ों में कसना टीवी बहसों का हिस्सा नहीं बना है वरना, आर्थिक विकास दर (जीडीपी) की गणना के नए फॉर्मूले और उससे निकले
आंकड़ों के बाद देश का राजनैतिक विमर्श ही बदल गया होता. प्रधानमंत्री अपनी
रैलियों में यूपीए के दस साल को कोसते नहीं दिखते. सरकार, यह कहते ही सवालों में घिर जाती कि पंद्रह साल में कुछ नहीं बदला है.
सरकार ने जीडीपी गणना के नए पैमाने से देश की इकोनॉमी का ताजा अतीत ही बदल दिया
है. इन आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पिछले दो साल मंदी व बेकारी के नहीं
बल्कि शानदार ग्रोथ के थे. पिछले साल की विकास दर पांच फीसद से कम नहीं बल्कि सात
फीसद के करीब थी. यानी कि मंदी और बेकारी के जिस माहौल ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी
की अभूतपूर्व जीत में केंद्रीय भूमिका निभाई थी वह, इन आंकड़ों के मुताबिक
मौजूद ही नहीं था.
पिछले
दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी
पैमाइश ही गलत थी? अथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का
तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके? दोनों ही सवाल दूरगामी हैं
और आर्थिक व राजनैतिक रूप से दोहरे नुक्सान-फायदों से लैस हैं. आर्थिक हलकों में
इन पर बहस शुरू हो चुकी है, जो दिल्ली चुनाव के बाद सियासत तक पहुंच जाएगी.
जीडीपी की ग्रोथ किसी देश की तरक्की का बुनियादी पैमाना है जो निवेश के फैसले और
सरकार की नीतियों की दिशा तय करता है. अगर जीडीपी के नए आकंड़े स्वीकृत होते हैं
तो आने वाले बजट का परिप्रेक्ष्य ही बदल जाएगा.
भारत में सकल घरेलू उत्पादन
(खेती, उद्योग, सेवा) की गणना फिलहाल
बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती है यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को
मिलती है. नए फॉर्मूले में उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ
अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा. सरकार ने यह आंकड़ा लागू करने के लिए 2011-12 की कीमतों को आधार बनाया और पांच लाख कंपनियों (पहले सिर्फ 2,500 कंपनियों का सैम्पल) से आंकड़े जुटाए, जिनके बाद 2013-14 में देश की इकोनॉमी 6.9 फीसदी की ऊंचाई पर चढ़ गई, जो पिछले आंकड़ों में 4.7 फीसद थी. वित्तीय वर्ष के
बीचोबीच इस तरह के परिवर्तन ने गहरे राजनैतिक व आर्थिक असमंजस पैदा कर दिए हैं.
भारत में पिछले तीन साल
महंगाई, मंदी, बेकारी, ऊंची ब्याज दर,
घटते उत्पादन और कंपनियों
के खराब प्रदर्शन के थे. इन हालात में तेज ग्रोथ का कोई ताजा उदाहरण दुनिया में
नहीं मिलता. नई सरकार का पहला पूर्ण बजट मंदी से जंग पर केंद्रित होने वाला था
ताकि रोजगार बढ़ सकें. ब्याज दर घटाने की उम्मीदें भी इसी आकलन पर आधारित थीं.
अलबत्ता जीडीपी के नए आंकड़ों के मुताबिक, ग्रोथ, रोजगार और कमाई पहले से बढ़ रही है इसलिए मोदी सरकार का पहला पूर्ण
बजट सख्त वित्तीय अनुशासन और दस फीसदी ग्रोथ की तैयारी पर आधारित होना चाहिए न कि
मंदी से उबरने के लिए उद्योगों को प्रोत्साहन और कमाई में कमी से परेशान आम लोगों
को कर राहत देने पर. ऊहापोह इस कदर है कि रिजर्व बैंक ने इस नए पैमाने को ताजा
मौद्रिक समीक्षा में शामिल नहीं किया. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार अरविंद
सुब्रह्मण्यम भी अचरज में हैं.
बीजेपी की लोकसभा विजय में
कांग्रेसी राज की मंदी और बेकारी से उपजी निराशा की अहम भूमिका थी. बीजेपी को यह
बात अच्छी तरह से मालूम है कि इन आंकड़ों से यूपीए के दौर में आर्थिक प्रबंधन की
बेहतर तस्वीर ही सामने नहीं आती है बल्कि यूपीए के पूरे शासनकाल में आर्थिक ग्रोथ
का चेहरा खासा चमकदार हो जाता है,
जिसे लेकर कांग्रेस खुद
बेहद शर्मिंदा रही थी. इसके बावजूद पैमाने में बदलाव इसलिए स्वीकार किया गया है क्योंकि ताजा आंकड़ों में मोदी
सरकार के नौ महीने भी शामिल हो जाते हैं, जिनमें चमकती ग्रोथ दिखाई
जा सकती है.
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.