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Monday, February 20, 2017

बड़ी मछलियां

क्या नोटबंदी का मकसद राजस्‍व लाना था या फिर इससे हमें 
चीन जैसे नतीजों की उम्‍मीद करनी चाहिए थी 

चीन का सौवां भ्रष्टाचारी ''टाइगर" मंगोलिया की सीमा पर स्थित चीफेंग सिटी से मार्च 2015 में पकड़ा गया था. कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ने बाकायदा इसका ऐलान भी किया. चीन मेंराष्ट्रपति शी जिनपिंग की दुर्दांत ऐंटी करप्शन एजेंसी सीसीडीआइ (सेंट्रल कमिशन फॉर डिस्पिलिन ऐक्शन) का निशाना बन रहे वीआइपी लोगों को टाइगर ऐंड क्रलाइज (शेर और मक्खी) वर्गों में बांटा जाता है. टाइगर का मतलब है कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े राजनेता व वरिष्ठ सरकारी अफसर (भारत में मुख्यमंत्रीमंत्रियोंराजनैतिक दलों के प्रदेश अध्यक्षोंसरकारी सचिवों समकक्ष) और मक्खियां हैं छोटे सियासी कार्यकर्ता या अफसरान. सीसीडीआइ पिछले करीब छह साल में 1,800 बड़े निशाने लगा चुका है जिनमें 180 राजनैतिक और 139 प्रशासनिक ''टाइगर" पकड़े गए हैं.

नोटबंदी से हमें भी चीन जैसे नतीजों की उम्मीद करनी चाहिए थी. जाहिर है कि काले धन के खिलाफ अभियानों की सफलता इस बात से तय होती है कि कितनी बड़ी मछलियां सजा के जाल में फंसाई गईं.

कालिख सफाई के अभियान राजस्व बढ़ाने के लिए नहीं होते क्योंकि कमाई के लिए सरकार के पास विकल्पों का कोई कमी नहीं है.

नोटबंदी के जाल का मकसद सरकार के लिए राजस्व लाना नहीं बल्कि उन बड़ी राजनैतिकप्रशासनिक व कारोबारी मछलियों को पकडऩा था जिनके सामने कानूनी जाल छोटे पड़ जाते हैं.

इस मामले में नोटबंदी से बड़ी उम्मीदें जायज हैं कि क्योंकिः

भारत में काले धन को लेकर कोई बड़ा और संगठित अभियान पहली बार चलाया गया.
काले धन और भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में हसन अली से लेकर रामलिंग राजू तक जांच एजेंसियों के पास नाकामियों का ढेर लगा है.

अलबत्ताहाइ प्रोफाइल मामलों में नोटबंदी का अब तक का नतीजा इस प्रकार हैः

  •         बड़े भ्रष्टाचारियों को तकलीफ के दावों के विपरीत नोटबंदी के तहत न तो बहुत बड़े पैमाने पर कार्रवाई हुई और न ही बड़ी धर-पकड़. चीन में ''शेर व मक्खी" मिलाकर तीन लाख से ज्यादा लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो चुकी है. मलेशिया में भी बीते बरस सरकारी अधिकारियों के बड़े घोटाले मिले व भारी नकदी की बरामदगी हुई.
  •      नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा के जरिए आयकर विभाग को जानकारियां जरूर मिली हैं लेकिन काले धन को लेकर इस तरह के सूत्र जांच एजेंसियों को पहले भी मिलते रहे हैंमुश्किल उन्हें अदालत में साबित करने की है. इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड पिछली किसी दूसरी सरकार जैसा ही है. सभी बड़े घोटालों में आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं. 
  •      नोटबंदी,  भ्रष्टाचारियों और काले धन वालों में वह चीन या मलेशिया जैसा खौफ पैदा क्यों नहीं कर सकी?

बड़ी मछलियां अब तक जाल से बाहर क्यों हैं?

नोटबंदी को अन्य देशों के ऐसी ही अभियानों की रोशनी में देखने पर इस असमंजस का मर्म हाथ लग सकता हैः
  •      भारत के समकक्ष अन्य देशों में भ्रष्टाचार निरोधक अभियान मौसमी नहीं थे. वे सधेनपे-तुले और लक्षित थे जो लगातार चल रहे हैं और नतीजे दे रहे हैं.

  •        दुनिया के किसी भी देश ने भ्रष्टाचारियों को पकडऩे से पहले उन्हें माफी देने से शुरुआत हरगिज नहीं की. भारत नोटबंदी से पहले और इसके दौरान काले धन रखने वालों को दो मौके दिए गए. 
  •     चीनमलेशिया और दक्षिण अफ्रीका की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों ने सीधे बड़े भ्रष्टाचारियों पर हाथ डाला. आम लोगों को कतार में नहीं लगा दिया गया.
  •       भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करने में सफल देशों में इन अभियानों का नेतृत्व एक बेहद ताकतवर एजेंसी ने कियाजिसे स्पष्ट कानूनी अधिकार मिले थे जैसे कि दक्षिण अफ्रीका की ऐंटी करप्शन एजेंसी तो राष्ट्रपति जैकब जुमा को ही घेर रही है. भारत में लोकपाल कहां बैठता हैकभी पता चले तो बताइएगा
  •   भ्रष्टाचार निरोधक अभियानों के साथ जरूरी कानूनों और जांच एजेंसियों में पारदर्शिता का पूरा ढांचा तैयार किया गया. मसलनचीन का सीसीडीआइ भ्रष्टाचार में लिप्त अपने अधिकारियों को भी पकड़ रहा है. मलेशिया की ऐंटी करप्शन एजेंसी अफसरों की आय घोषणाओं को खंगाल कर यह जानने की कोशिश कर रही है कि इनकी शानो-शौकत भरी जिंदगी का राज क्या है.

पता नहीं भारत में बड़ी मछलियां जाल में कब फंसेंगी?

काले धन के खिलाफ आम लोगों के त्याग-बलिदान से गढ़ा गया भारत का सबसे बड़ा अभियान इतिहास में यूं ही गुम तो नहीं हो जाएगा?



क्या देश याद रख पाएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के बाद 8 फरवरी, 2017 को राज्यसभा में कहा था''बेईमानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई से ईमानदारों को ताकत मिलेगी"

Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.