यदि आप से पूछा जाए कि आग की खोज और पहिये यानी व्हील के आविष्कार के बाद दुनिया की सबसे क्रांतिकारी घटना कौन सी थी
आसानी से जवाब नहीं मिलेगा आपको
क्यों कि गुफाओं से निकले मानव के करीब बारह हजार साल के इतिहास में
क्या कुछ नहीं घटा है
अबलत्ता अगर किसी आर्थिक इतिहासकार से पूछें तो वह कहेगा कि आग की
खोज और पहिये आविष्कार के बाद ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दुनिया की सबसे बड़ी
क्रांति थी
इससे पहले तक दुनिया की आबादी कृषि पर निर्भर थी, आबादी बढ़ती थी तो खाना कम फिर आबादी कम होती थी और फिर अनाज उत्पादन
के साथ बढ़ती थी. इस चक्कर को माल्थेसियन ट्रैप कहगा गया जिसे पहले पहले जनसंख्याविद और अर्थशास्त्री थॉमस
माल्थस ने समझाया था.
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के बाद 1760 से खेती से लोग बाहर निकले, प्रति व्यक्ति आय बढ़ी,जीवन स्तर बेहतर
हुआ और आबादी संतुलित हुई. यहीं से राजनीतिक संस्थायें बनना शुरु होती हैं.
आप कहेंगे कि इस यह सब याद दिलाने का मकसद क्या है
मकसद है जनाब क्यों कि इसके बाद औद्योगिक तरक्की के लिहाज से दुनिया
की से चमत्कारिक क्रांति कौन सी थी?
चीन का चमत्कार
यह था चीन का औद्योगीकरण जो ब्रिटेन में मशीनों की खटर पटर शुरु होने
के करीब 250 साल बाद आया.
2017 में विकास दर में पहली गिरावट और कोविड के साथ दूसरी बडी गिरावट
तक 35 साल में चीन ने दुनिया की करीब 20 फीसदी आबादी को औद्योगीकरण के दायरे में
पहुंचा दिया. यह करिश्मा पहली बार हुआ.
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को दोहराने की कोशिशें
उत्तरी यूरोप से लेकर अमेरिका और पूर्वी एशिया कोरिया व ताइवान तक हुईं.
कुछ जगह कामयाबी मिली कुछ जगह नहीं. प्रति व्यक्ति आय बढ़ोत्तरी उतनी नहीं दिखी जितनी कि अमेरिका
में थी, ठीक इसी तरह चीन की क्रांति से सीखने की कोशिश कई
जगह चल रही है.
चीन का मॉडल
भारत ने इसी क्रांति से सबक मैन्युफैक्चरिंग में निवेश बढ़ाने की
मुहिम शुरु की. क्यों कि फैक्ट्रियां लगेंगी तो उत्पादन और रोजगार बढेगा.
निर्यात बढेगे और मिलेगा तेज आर्थिक विकास. बात शुरु हुई थी विदेशी निवेश खोलने
से, फिर दी गई तमाम उद्योग को रियायतें मगर बात बनी
नहीं.
विकास होना था मैन्युफैक्चरिंग था जिससे रोजगार आने थे लेकिन सेवा
क्षेत्र में ज्यादा तेज बढ़त हुई. चीन की तर्ज पर उद्योगों केा बुलाने और
निर्यातोन्मुख उत्पादन करने की मुहिक मेक इन इंडिया से होते हुए अब उस नई स्कीम
पर आ टिकी जिसे पीएलआई या प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव कहते हैं.
यह भारत के इतिहास सबसे बड़ी एक मुश्त औद्योगिग प्रोत्साहन योजना
है, जिसमें 15 अलग अलग उद्योगों में कंपनियों को उत्पादन के लिए सरकार के बजट से अगले
पांच साल में करीब 1.93 लाख करोड़ की सीधी नकद मदद दी जाएगी है. यह प्रोत्साहन
अलग अलग उद्योगों के लिए उत्पादन और निर्यात की शर्तों को पूरा करने के बदले
मिलेगा. सनद रहे कि यह रियायतें अन्य टैक्स, निवेश आदि की रियायतों के अलावा है जो सभी उद्येागों
को मिलते हैं.
इन रियायतों की पहली किश्त के तहत करीब 400 करोड़ रुपये ताइवान की
कंपनी फॉक्सकॉन और भारत की कंपनी डिक्सन टेक्नोलॉजीज को दिये गए हैं. फॉक्सकॉन भारत में एप्पल फोन
बनाती है. इस कंपनी ने
एक अगस्त 2021 से 31 मार्च 2022 के बीच 15000 करोड़ का उत्पादन
किया. डिक्सन समूह की कंपनी करीब 58
करोड़ का प्रोत्साहन भुगतान हुआ है. यह कंपनी भी इलेक्ट्रानिक्स उत्पाद बनाती
है.
पंद्रह अलग अलग उद्योगों में उत्पादन के लिए सीधी नकद मदद देनी वाली
इस स्कीम को अब 32 महीने पूरे हो रहे हैं.
बजट से पहले देखना चाहिए कि कहां तक पहुंची चीन के मॉडल को
आजमाने की यह मुहिम
प्रोत्साहनों सबसे बडा मेला
उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारत की सबसे बड़ी प्रत्यक्ष निवेश और
निर्यात प्रोत्साहन स्कीम यानी पीएलाआई का आविष्कार बडे अजीबोगरीब ढंग से
हुआ.
बात नवंबर 2019 की है. जब भारत डब्लूटीओ की अदालत में एक बड़ी लड़ाई
हार गया. अचरज होगा कि इस वक्त भारत और अमेरिका यानी मोदी और ट्रंप के रिश्तों
की बड़ी गूंज थी लेकिन अमेरिका ने भारत को डब्लूटीओ में धर रगड़ा और मोदी सरकार भारत
की सभी निर्यात प्रोत्साहन स्कीमें चार माह के भीतर बंद करनी पड़ीं.
उस वक्त तक मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट्स ऑफ इंडिया (एमईआईएस) भारत की
सबसे बड़ी निर्यात प्रोत्साहन स्कीम थी जिसमें निर्यात योग्य उत्पादन पर लगने
वाले कच्चे माल और सेवाओं पर टैक्स की वापसी की जाती थी. इस स्कीम के तहत
2019-20 में बजट करीब 40000 करोड़ रुपये
टैक्स के वापसी की गई.
मोदी सरकार ने 2015 में पांच निर्यात प्रोत्साहन स्कीमें मिलाकर इसे
बनाया था. अगले दो साल में निर्यात को इससे कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ. 2019 में एक
और स्कीम लाई गई जिसका नाम भी रेमिशन ऑफ ड्यूटीज एंड टैक्सेस ऑन एक्सपोर्ट
प्रोडक्टर (आरओडीटीपी). इसके बाद भी निर्यात नहीं बढ़े. निर्यात में जो बढ़त दिखी
वह कोविड के दौरान ही थी.
इस बीच 2019 में निर्यात प्रोत्साहन बंद करने पड़े. जिसके बाद सरकार
ने एमईआएस की जगह यह स्कीम शुरु की. जिसमें उत्पादन और निर्यात की शर्तों पर
चुनिंदा उद्योगों को बजट से सीधा प्रोत्साहन मिलेगा. इसमें करीब 15 उद्योगों
शामिल किया गया.
लेन देन का हिसाब किताब
अब तक पंद्रह उद्योगों के लिए उपलब्ध इस स्कीम से 2027 तक करीब 2.5 से 3 लाख करोड़
का पूंजी निवेश लाने का लक्ष्य रखा गया है. स्कीम के नियामक मानते हैं कि प्रमुख
उद्योगों का करीब 13 से 15 फीसदी निवेश इस स्कीम के जरिये आएगा और पांच साल में
करीब 37-38 लाख करोड़ का अतिरिक्त उत्पादन होगा. सरकार मान रही है कि पीएलआई
भारत के नॉमिनल जीडीपी में हर साल करीब 1.1 फीसदी की बढोत्तरी करेगी.
लक्ष्यों का क्या है, सुहाने ही होते हैं
पीएलआई स्कीम में लगभग 11 उद्योगों में 60 फीसदी पूंजी निवेश के प्रस्ताव
भी मंजूर हो चुके हैं मगर नतीजों को लेकर तस्वीर साफ नहीं हैं. पूरे परिदृश्य को
आंकड़ों को मदद से धुंध रहित करना होगा. क्रेडिट सुइसी, क्रिसिल और केयर रेटिंग्स ने हाल में पीएलआई स्कीम पर कुछ कीमती
विश्लेषण पेश किये हैं जो मैन्युफैक्चरिंग को लेकर भारत के इस सबसे बडे और
महंगे दांव की चुनौतियों सफलताओं को समझने में हमारी मदद करते हैं क्यों अंतत:
सफलता इस बात से तय होगी कि कितना निवेश हुआ और आए कितने रोजगार?
पीएलआई स्कीम में आए प्रस्ताव तीन वर्गों में है.
पहला हिस्सा असेम्बलिंग में निवेश का है. यानी पुर्जे आयात कर उन्हें
जोड़ने की फैक्ट्रियां. मोबाइल, कंप्यूटर और
टेलीकॉम हार्डवेयर में आया और संभावित निवेश इसी वर्ग का है. इस वर्ग के तहत 2027
तक करीब 2108 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश पर सरकार सरकार करीब 8000 मिलियन डॉलर
के प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव किया है. इस वर्ग के उत्पादन से सालाना कुल 38000 मिलियन डॉलर के बिक्री (निर्यात और
घरेलू बाजार में बिक्री) टर्नओवर की उम्मीद है.
दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसमें नई मैन्युफैक्चरिंग
शुरु की जानी है. सोलर, बैटरी, बल्क ड्रग, चिकित्सा उत्पाद इस वर्ग में
आते हैं. इस निवेश से नई तकनीक आने का उम्मीद लगाई गई है. इन्हीं के जरिये आयात
पर निर्भरता भी कम होगी.
तीसरा और सबसे बडा हिस्सा कंपनियों के नियमित पूंजी निवेश का है. जिसमें
आटोमोबाइल, फूड, कपड़ा, फार्मा, उपभोक्ता
इलेक्ट्रानिक्स जैसे टीवी फ्रिज और स्टील
आदि शामिल हैं. इनमें कुछ कंपनियों ने स्कीम की शर्तों को स्वीकारते हुए निवेश
का प्रस्ताव मंजूर कराया है.
पीएलआई का रिपोर्ट कार्ड
इस स्कीम की अब तक की कामयाबी का पहला पैमाना पूंजी निवेश है, जिस पर सारा दारोमदार है. बीते दो बरस में अधिकांश पूंजी उन उद्योगों
में आई है जहां कंपनियां पहले परियोजनायें चला रही हैं जैसे कि आटोमोबाइल और स्टील.
नए उत्पादन में पीवी माड्यूल और बैटरी
प्रमुख है जहां ज्यादा संभावनायें बनती दिख रही हैं. यहां रिलायंस, एलंडटी और ओला जैसी बड़ी कंपनियों ने भी प्रस्ताव मंजूर कराये हैं.
अगर यहां निवेश के नतीजे आए तो भारत में बैटरी की बडी क्षमतायें बन सकती हैं. अब
तक मंजूर हुए कुल निवेश प्रस्तावों का 48 फीसदी हिस्सा जो क्रियान्वयन में है
वह स्टील आटो, बैटरी और सोलर मॉड्यूल में केंद्रित है
अब दूसरा पैमाना जहां नतीजे मिले जुले है. नई इकाइयों को लेकर दुनिया की बडी तकनीकी कंपनियों में निवेश में
रुचि नहीं ली है. बैटरी और सोलर पैनल में कोई बडी ग्लोबल कंपनी अब तक नहीं आई है
इसलिए तकनीकी हस्तांतरण में पीएलआई का फायदा मिलता नहीं दिख रहा. अलबत्ता मोबाइल
असेम्बली, कंप्यूटर हार्डवेयर और
उपभोक्ता इलेक्ट्रानिक्स में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने निवेश में रुचि
ली है. इनमें से कई कंपनियां पहले से भारत में हैं.
अब तीसरा पैमाना है उत्पादन में वैल्यू एडीशन का यानी मौजूदा उत्पादन
को बेहतर करना. बैटरी स्टील फार्मा आदि क्षेत्रों में उत्पादों में वैल्यू
एडीशन की गुंजाइश है मगर क्रेडिट सुइसी का मानना है कि इसके लिए स्कीम में और
जयादा प्रोत्साहन और स्पष्टता जरुरी है.
यदि एसा होता है तो 2027 तक करीब 18 अरब डॉलर का वैल्यू एडीशन मिल सकता
है. of GDP.
क्रेडिट सुइसी का मानना है कि मौजूदा हालात में यह स्कीम 2025 तक 70
अरब डॉलर के कुल कारोबार के साथ जीडीपी में करीब 0.7 फीसदी का अतिरिक्त योगदान कर
सकती है. जबकि क्रिसिल का आकलन है कि 2025 तक देश के प्रमुख उद्योगों में 13 से
15 फीसदी पूंजी निवेश इस स्कीम के जरिये आ सकता है.
भारत के लिए यह स्कीम बड़ा और शायद आखिरी मौका है. दुनिया में घटती
विकास दर और लंबी चलने वाली महंगाई की रोशनी में उत्पादन का ढांचा बदल रहा है. कई
देश अपने यहां जरुरी सामानों की उत्पादन क्षमतायें तैयार कर रहे हैं जिनके लिए वह
आयात पर निर्भर थे. भारत में इस स्कीम
की सफलता के लिए केवल दो वर्ष हैं और यह इस बात से तय होगा कि चीन की तुलना में
कितने बडे ब्रांड और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत आते हैं. क्यों कि उनके जरिये ही भारत ग्लोबल सप्लाई चेन का हिस्सा बन सकता
है.
सबसे कठिन पहेली
हम वापस ब्रिटेन और चीन की औद्योगिक क्रांति की तरफ लौटते हैं. क्यों
इनकी रोशनी में यह समझना आसान है कि औद्योगिक क्रांतियां इतनी कठिन क्यों होती
हैं और क्यों हर देश में ब्रिटेन या चीन दोहराया नहीं जा पाता. औद्योगिक निवेश को
लेकर बीते कुछ वर्षों में नए संदर्भों में अध्ययन हुए हैं. जिनसे पता चला है कि ब्रिटेन, अमेरिका, जापान और चीन में औद्योगिक विकास का मॉडल लगभग एक जैसा था. इस चारों
ही अर्थव्यवस्थाओं में प्रोटो इंडस्ट्रियलाइजेशन का अतीत था यानी व्यापक
शुरुआती ग्रामीण और कुटीर उद्योग. ब्रिटेन में 1600 से 1760 के बीच अमीर व्यापारियों
ने छोटे उद्योग में निवेश किया था. इसने औदयोगिक क्रांति
को आधार दिया. यही समय था जब जापान में इडो और प्रारंभिक मेइजी युग (1600 से 1800)
में ग्रामीण उद्योग फल फूल रहे थे. अमेरिका में 1820 में प्रोटो इंडस्ट्रियलाइजेशन गांवों कस्बों में
उभर आया था जो 19 वीं सदी के अंत में रेल रोड के विकास से औद्योगिक क्रांति का
हिससा बन गया. और अंत में चीन जहां 1978 से 1988 के बीच गांवों में लाखो छोटे
उद्योग थे जो देंग श्याओ पेंग की औद्योगिक क्रांति का आधार बने
दुनिया के अन्य देश जहां मैन्युफैक्चरिंग क्रांति की कोशिश परवान
नहीं चढ़ी वहां शायद ब्रिटेन अमेरिका जापान या चीन जैसा ग्रामीण कुटीर उद्योग अतीत
नहीं था. मगर भारत के पास व्यापार का पुराना अतीत रहा है और
आजादी के बाद बढती खपत के साथ भारत में छोटे उद्योग बड़े पैमाने पर
उभरे थे. अबलत्ता औद्योगीकरण की ताजा कोशिशों में इनकी कोई भूमिका नहीं दिखती. यह पूरी क्रांति
कहीं पीछे छूट गई.
पीएलआई यानी अब तक की सबसे
बड़ी निवेश प्रोत्साहन योजना अगर भारत के औद्योगिक परिदृश्य में नए छोटे
निर्माता, सप्लायर और सेवा प्रदाता जोड़ सकी तो क्रांति हो
पाएगी नहीं तो सरकारी मदद के सहोर चुनिंदा कंपनियों के एकाधिकार और बढ़ते जाने का
खतरा ज्यादा बड़ा है