यह हरगिज जरुरी नहीं है कि समझदारी के सारे झरने
सरकार और सियासत में ही फूटते हों। भारत में राजनीति और जनता के रिश्तों का रसायन
अद्भुत ढंग से बदल गया है। भारत का समाज गवर्नेंस की उलझनों के प्रति व्यावहारिक
व जागरुक हो कर उभरा है जबकि इसके विपरीत सरकारें पहले से कहीं जयादा मौकापरस्त,
जिद्दी व जल्दबाज हो गईं हैं। रेलवे का किराया बढ़ाने और रसोई गैस के
सिलेंडर घटाने के निर्णय, जनता और सरकार की परस्पर
संवेदनशीलता का नया शास्त्र सामने लाए हैं। दोनों ही फैसले सेवाओं को महंगा करने
से जुड़े हैं मगर जो लोग एलपीजी सब्सिडी घटाने की बेतुकी नीति पर भड़के हैं वही
लोग महंगी रेल यात्रा को उचित मान रहे हैं। लोग रेलवे की आर्थिक हकीकत के प्रति
संवेदनशील हैं मगर सरकार लोगों की दैनिक जिंदगी
प्रति निर्मम हो जाती है। सियासत की उंगलियों के नीचे जनता की नब्ज तो है ही नहीं,
सरकारें अपने क्रियान्वयन तंत्र से भी कट
गई हैं। इसलिए उसका सिस्टम ही एलपीजी सब्सिडी और कैश ट्रांसफर जैसी महत्वाकांक्षी
स्कीमों को औंधे मुंह गिरा देता है।
रेल के किराये में यह दस साल की पहली एक तरफा
और सबसे बड़ी बढ़ोत्तरी थी। महंगाई के बावजूद आम लोग इसके समर्थन में अर्थशास्त्री
की तरह बोले। लोग तो पिछले साल मार्च में भी सरकार के साथ थे जब दिनेश त्रिवेदी देश
के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन को उबारने की कोशिश कर रहे थे और ममता बनर्जी इस
आर्थिक बुनियादी ढांचे का दम घोंट रही थीं। आम जनता कई महीनों से यह हकीकत समझ रही
है कि भारतीय रेल दुनिया की सबसे दुर्दशाग्रस्त