2022 की गर्मियों में भारत में क्या हो रहा है
वही जो 2021 में 2011, 2014, 2018 में हुआ था 
यानी कोयले की किल्लत, बिजली कटौती और केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आरोपों का लेन देन 
इस बार नया क्या है?
कोयले की कमी का ताजा संस्करण भारत की ऊर्जा की
सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है. आयातित कच्चे तेल के बाद भारत इंपोर्टेड कोयले का
मोहताज होने वाला है. 
एसी क्या मजबूरी है 
इस पहले कि इस संकट को कोई रुस यूक्रेन युद्ध से
जोड़ दे हमें कुछ जरुरी तथ्य देखकर चश्मे साफ कर लेने चाहिए 
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भारत में
दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा कोयला भंडार है और दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है.  
-        भारत दुनिया में बिजली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. बिजली की उत्पादन क्षमता बढ़ने की दर 8.9 फीसद है जो 
जीडीपी और बिजली की औसत सालाना मांग  (पीक डिमांड) बढ़ने से  ज्यादा तेज है. 
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2012 के बाद से पारेषण (ट्रांसमिशन) क्षमता 7% की दर से बढ़ी है 
फिर भी बीते
दस साल में हर दूसरे वर्ष हम बिजली को तरसते हैं 
वही पुरानी कहानी 
अक्टूबर 2021 में 
बिजली घरों के पास दो तीन दिन (24 दिन का स्टॉक जरुरी)  का कोयला बचा था. कोल इंडिया से उत्पादन और
आपूर्ति बढ़ाने को कहा गया. अक्टूबर के अंत में दावा किया गया बिजली घरों के पास
कोयला पहुंचा दिया गया है यानी सब ठीक है 
ठीक कुछ भी नहीं था. दो महीने बाद जनवरी से मार्च के
दौरान बिजली की पीक डिमांड मांग औसत 187 गीगावाट पर पहुंच गई.  गर्मी शुरु होते ही अप्रैल के पहले पखवाड़े में
मांग ने 197 गीगावाट की मंजिल छू ली. कोयला आपूर्ति की कमर टूट गई. बिजली उत्पादन
यानी प्लांट लोड फैक्टर में एक फीसदी की बढत पर कोयले की मांग करीब 10 मिलियन
टन बढ़ जाती है. बिजली की मांग दस फीसदी से ज्यादा बढ चुकी है. महाकाय कोल इंडिया
के पास  100 मिलियन टन की आपूर्ति तुरंत
बढ़ाने की क्षमता नहीं  
आयातित कोयले की कीमत 280-300 डॉलर
प्रति टन की ऊंचाई पर है. बिजली कंपनियां अगर इसे खरींदें तो तत्काल बिजली महंगी
करनी होगी जो संभव नहीं है. 
अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक बिजली घरों
के पास कोयला स्टॉक   सात साल के सबसे
निचले स्तर पर आ गया. बिजली एक्सचेंज कीमतें 
राज्य सरकारों की क्षमता के बाहर हो गईं.  
ऊर्जा क्रांति
बैठ गई. 
भारत की करीब 60 फीसदी बिजली कोयले से आती है. करीब 100 बिजली घर कोयले पर आधारित हैं, 79 घरेलू कोयले पर और 11 आयातित कोयले से चलते हैं.
भारत में कुल सालाना खपत का 111 गुना ज्यादा कोयला
भंडार है. कोल इंडिया 7.7 करोड़ टन का उत्पादन (2021-22)
करती है. जो  8.5 फीसदी की सालाना गति से
बढ़ रहा है. दो करोड टन कोयले का सालाना आयात होता है. 
फिर संकट क्यों ? 
यह न कहियेगा कि सरकार को  बिजली की मांग बढ़ने, कोयले की आपूर्ति कम पड़ने और रिकार्ड गर्मी का अंदाज नहीं था. कोयले और
बिजली की कमी प्राकृतिक नहीं है. यह संकट ऊर्जा सुधारों की सालाना पुण्य तिथि
जैसा बन गया है. इसे समझने में लिए तीन सवालों से मुठभेड़ जरुरी है 
पहला – बिजली घरों के पास कोयले के पर्याप्त  भंडार क्यों नहीं बन पाते 
जवाब – बिजली वितरण कंपनियां बिजली उत्पादकों को वक्त
पर बिजली का पैसा नहीं चुकाती हैं. बिजली
दरें सरकारें तय करती हैं. सब्सिडी का पैसा कंपनियों को मिलता नहीं. यहां तक
सरकारें अपनी खपत की बिजली का पैसा भी नहीं चुकातीं. पूरा कारोबार उधार का है. बिजली
दरें न बढ़ने के कारण बिजली कंपनियां करीब 5.2 लाख करोड़ के नुकसान में हैं.  राज्यों पर 1.1 लाख करोड़ रुपये सब्सिडी और
मुफ्त बिजली के मद में बकाया हैं. 
2001 के बाद  के बीच बिजली बोर्ड या वितरण कंपनियों  को बकाए और     कर्ज से उबरने के लिए चार बार कर्ज पैकेज दिये गए लेकिन बिजली वितरण कंपनियों पर इस समय बिजली उत्पादन कंपनियों
का का करीब 1.25 लाख करोड़ बकाया है. 
दूसरा सवाल – कोल इंडिया  वक्त पर आपूर्ति क्येां नहीं बढ़ा पाती? 
जवाब - कोयले की कुल मांग का 83 फीसदी हिस्सा कोल
इंडिया से आता है. उत्पादन में बढ़त नई खदानों पर निर्भर है जो नौकरशाही और
पर्यावरण की मंजूरी के कारण अटकी हैं. कोल इंडिया के पास 35000 करोड़ का सरप्लस व
रिजर्व लेकिन सरकार उससे लाभांश निचोड़ती है. नई खदानों में निवेश वरीयता पर नहीं
है 
बीते साल अक्टूबर में निजी बिजली उत्पादकों ने
आपूर्ति में कमी को लेकर कोल इंडिया पर जुर्माना लगाने की मांग की थी
तीसरा सवाल - 
निजी खदानों का क्या हुआ?  
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कोयला ब्लॉक
आवंटन घोटाले के बाद 2014 में सब ठीक होने का दावा किया गया लेकिन 2018 में कोयला संकट
फिर लौट आया. 
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2020 में
 निजी क्षेत्र को कोयला खदानें देने का फैसला
हुआ. 70 फीसदी खदानों के लिए बोलियां ही नहीं आईं. जब कोल इंडिया की खदानों की
मंजूरी वक्त पर नहीं होती तो निजी निवेशकों की कौन सुन रहा.  
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इंटरनेशनल
इनर्जी फाइनेंस एंड इकोनॉमिक एनालिसिस का  अध्ययन बताता है कि भारत के कोयले की गुणवत्ता
अच्छी नहीं है इसलिए निर्यात की संभावना सीमित है.  दुनिया के बैंकर क्लाइमेट चेंज की शर्तों के
कारण कोयला परियोजनाओं में निवेश कम कर रहे हैं. इसलिए भारत में विदेशी निवेशक
नहीं आ रहा . मेगा ग्लोबल कंपनी रिओ टिंटो भी 2018 में अपनी आखिरी खदान बेचकर
भारत से रुखसत हो गई.  
सबसे बड़ी हार 
फरवरी 2020 में गुजरात के केवड़िया में के चिंतन शिविर
में  केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने घोषणा की
थी कि 2023-24 के वित्त वर्ष से भारत बिजली के लिए कोयले (नॉन कोकिंग कोल) का
आयात बंद कर देगा लेकिन अब हाल यह है कि राज्यों और निजी बिजली घरों को अगस्त तक
19 मिलियन टन कोयेल का आयात करने का लक्ष्य दे दिया गया है. रुस यूक्रेन युद्ध
के बाद विश्व बाजार में कोयले की कीमत 45 फीसदी तक बढ़ चुकी है. इस बीच दुनिया की
दूसरा सबसे कोयला आयातक मुल्क, पांच माह में इतना कोयला
इंपोर्ट करने वाला है जितना पूरे साल में होता है. 
सनद अभी तक हम केवल कच्चे तेल के लिए आयात पर
निर्भरता को बिसूरते थे लेकिन अब दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा कोयला भंडार रखने
वाले भारत के सरकारी बिजली घर भी इंपोर्टेड कोयले पर चलेंगे. 
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के
लिए पर्याप्त है उसके लिए यह बुरी खबर है. क्यों कि तेल और कोयला दोनों ही
ईंधनों की कीमतों में लगी आग लंबी चलेगी 
