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Monday, March 5, 2018

अंधेरे में मत रहिए

आपका बैंक क्या आपको यह बताता है कि उसने आपकी बचत या जमा किस उठाईगीर कारोबारी को भेंट कर दी?

लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता हैस्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?

भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?

कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कईफर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?

इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर हैक्यों?

आइएदो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.

देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला

बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरेकोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.

फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया. 

अब दूसरा घोटाला देखिए.

रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में. 

हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.  

पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती. 

लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.

भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलतावह क्या और कैसे कर रही है?

बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.

इलाज क्या है

- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है
75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.


बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बादसेबी ने जनता से पूंजी जुटानेबेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.

Sunday, December 17, 2017

ताकि बना रहे भरोसा


डर में जीने का शौक न हो तो सरकार की इस बात पर भरोसा करने में कोई हर्ज नहीं है कि बैंकों में जमाकर्ताओं का पैसा नहीं डूबेगा. लोगों को बैंकों की जितनी जरूरत है सरकार को भी लोगों की बचत की उतनी ही जरूरत है. यह बचत ही बैंकों के जरिए सरकार को कर्ज के तौर पर मिलती हैजिससे उसका खर्च चलता है.

भारत में बैंक बीमार हुए हैं लेकिन डूबे कभी नहीं. कोई सरकार बैंकों के डूबने का जोखिम नहीं ले सकती लेकिन (एफआरडीआइ—फाइनेंशियल रिजोल्यूशन ऐंड डिपॉजिट इंश्योरेंस) बिल 2017 का प्रावधान 52 का खौफ तारी हैजो कहता है कि बैंक या वित्तीय कंपनियां अगर संकट में हो तो वह अपनी देनदारियों यानी लायबेलिटी का इस्तेमाल (बेल इन) कर सकती हैं. जमाकर्ताओं (डिपॉजिटर्स) का पैसा इसमें शामिल है हालांकि जिसे डिपॉजिट को इंश्योरेंस के तहत रखा गया है वह इस प्रक्रिया से बाहर रहेगा. मौजूदा नियमों के तहत बैंक डिपॉजिट चाहे जितना भी हो उस पर अधिकतम बीमा एक लाख रुपए ही है.

इस प्रावधान की भाषा खराब हैसंदर्भ भी उलझे हैंइसके लागू होने की कोई संभावना नहीं है. सरकार सफाई दे रही है लेकिन डर है तो है.

खौफ की बुनियादी वजह यह है कि चुनिंदा लोगों की आर्थिक अनियमितताओं के लिए सामूहिक दंड देने के प्रयोग कुछ ज्यादा ही होने लगे हैं. पिछले साल नोटबंदी में कुछ लोगों के काले धन के कारण पूरे देश को सजा दे दी गई. बड़े कर्जदारों पर बकाया बैंकों की समस्या है लेकिन समाधान की कोशिशें आम लोगों को डरा रहीं हैं.

भारतीय बैंकिंग की मुसीबत अनोखी है. 

- चुनिंदा बड़े कर्जदार इसका संकट हैं. कुछ कारोबारी गलतियों के मारे हैंकुछ ने जान-बूझकर बैंकों को चूना लगाया है और कुछ को मंदी ले डूबी है. बैंकों के 86 फीसदी फंसे हुए कर्ज (जीएनपीए-8.29 लाख करोड़ रु.) बड़े कर्जदारों के नाम हैं.

- लेकिन खौफ में जमाकर्ता हैं जो छोटी बचतों (150 लाख करोड़ रु.) से देश की वित्तीय रीढ़ बनाते हैं.

- बैंकों को उबारने के लिए दो ही विकल्प हैं: एक या तो करदाताओं का पैसा लगाकर बैंकों को उबारा (बजट से बैंकों को पूंजी देना यानी बेल आउट) जाए या जमाकर्ताओं वालों की बचत से नुक्सान भरा जाए. 'बेल-इन' प्रावधान सुझाता है कि बैंकों को बजट यानी टैक्स के पैसे से उबारना गलत है. बैंकों से कारोबार (निवेश या जमा) करने वालों को यह बोझ उठाना चाहिए यानी कि छुरी किसी तरह से गिरे कटेंगे आम लोग ही.

बैंकिंग की दुविधा का इलाज 'बेल इन''बेल आउट' या 'हेयर कट' (बैंकों के पूंजी व मुनाफे में कमी) नहीं है. फिलहाल बैंकिंग परिदृश्य को तीन बड़े ढांचागत सुधार चाहिए.

- उदारीकरण को 25 साल बीत चुके हैं. परियेाजनाओं के वित्त पोषण का ढांचा बदलना चाहिए. बड़ी परियोजनाओं के लिए बैंक कर्जों पर निर्भरता कम करना जरूरी है. कंपनियों को अपनी साख पर बाजार पूंजी व कर्ज उठाना चाहिए. बैंकों के लिए छोटे उपभोक्ता कर्ज बेहतर हैंजिनकी वसूली को लेकर समस्या नहीं है. इक्विटी संस्कृति कंपनियों को पारदर्शी बनाएगी. आम लोगों को बचत व निवेश के नए मौके हासिल होंगे और जोखिम भरे बैंक कर्ज कम होंगे.

- बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगे. पिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थे. क्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और पूंजी व बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ाना प्रारंभ किया. अब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैं. इससे बैंक संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैं.
जमाकर्ताओं को बेहतर बीमा सुरक्षा मिलनी चाहिए जिसकी लागत उनसे ली जा सकती है.

- बैंकों पर सरकार के नजरिए में अंतरविरोध लोगों को डरा रहा है. पहले बैंक में सोना रखकर (गोल्ड मॉनेटाइजेशन) नकद लेने के लिए कहा गयाफिर नोटबंदी हो गई. गरीबों को बैंक से जोड़ने की कोशिशें (जन धन) इसका सबसे बड़ा शिकार हुई हैं. 

- बैंक का एक अर्थ विश्वास भी होता है जो यूं ही नहीं है. किसी अर्थव्यवस्था में बैंक लोगों के भरोसे का पहला व आखिरी आधार हैं. हर देश की बैंकिंग का मिजाज अलग है. भारत में बैंकों पर पहला हक करोड़ों जमाकर्ताओं का हैजिनमें अधिकांश कभी कर्ज नहीं लेते. कर्ज लेने वाले बैंकिंग का जरूरी हिस्सा हैं लेकिन छोटा-सा हैं.




अगर सरकार चाहती है कि अधिक से अधिक लोग बैंकों से जुड़ें या जुड़े रहें तो उसे ऐसा कुछ नहीं करना होगा जो भारत में बैंकों की बुनियाद यानी जमाकर्ताओं को आशंकित करता हो. बैंकिंग के साथ एक सीमा से ज्यादा जोखिम विस्फोटक हो सकता है.