कुछ लालची नेताओं का भ्रष्टाचार, चालाक कंपनियों की मौका परस्ती और गठबंधन के सामने बेबस सरकार की निष्क्रियता!!! क्या इतने से हो गया विशाल 2जी घोटाला??? शायद नहीं। इस घोटाले का स्पेक्ट्रम (दायरा) इस कदर छोटा नहीं है। यह घोटाला एक ऐसे घाटे से उपजा है जो किसी भी देश को व्यवस्था से अराजकता में पहुंचा देता है। आधुनिक कानूनों की अनुपस्थिति (लेजिस्लेटिव डेफशिट) ने देश की अनमोल साख को मुसीबत में फंसा दिया है। आकाश (स्पेक्ट्रम) और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों सहित कई क्षेत्रों में उचित कानूनों के शून्य के कारण घोटालेबाजों को लूट के मौके भरपूर मौके मिल रहे हैं। जिसके नतीजे उपभोक्ता, रोजगार व निवेशक चुकाते हैं। इसलिए अब सवाल घोटाले के दोषियों या बदहवास सरकार से नहीं बल्कि लोकतंत्र की सर्वशक्तिमान संसद से पूछा जाना चाहिए कि वह कानून बनाने या बदलने का असली काम आखिर कब शुरु करेगी, जिसके लिए वह बनी है। यकीनन 2जी लाइसेंस रद होने से पारदर्शिता और इंसाफ भारी जीत हुई है मगर व्यवस्था की साख हार गई है।
साख का स्पेक्ट्रम
निवेशकों की बेचैनी (122 दूरसंचार लाइसेंस रद होने पर) बेजोड़ है। उनके लिए तय करना मुश्किल है कि वह भारत के लोकतंत्र की जय बोलें और कानून के राज को सराहे या फिर सरकार को सरापें जिसकी दागी नीतियों के कारण उनकी दुर्दशा होने वाली है। अदालत से सरकारों को हिदायत, सुझाव, झिड़की और निर्देश मिलना नया नहीं है मगर इस अदालती इंकार ने लोकतंत्र की सर्वोच्च विधायिका और ताकतवर का कार्यपालिका की साख को विसंगतियों से भर दिया है। देश ने अपने इतिहास में पहली बार आर्थिक क्षेत्र में किसी बड़ी नीति की इतनी बडी, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। कारोबार की दुनिया में किसी सरकार से मिला लाइसेंस एक संप्रभु सरकार की गारंटी है जिसके आधार पर निवेशक जोखिम उठाते हैं निवेश करते हैं। कारोबार शुरु होने के तीन साल बाद कारोबार का आधार में ही भ्रष्टाचार साबित हो और पूरी नीति ही अदालत में खारिज हो जाए तो किसका भरोसा जमेगा। 2जी का पाप दूरसंचार को ही पूरी सरकारी नीति प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है। अब सरकार के किसी फैसले पर भरोसा करने से पहले निवेशक सौ बार सोचेंगे कि क्यों कि पता नहीं कब कहां वह नीति दागी साबित हो और निवेशकों को अपना सामान समेटना पड़े। मगर इसके लिए अदालत फैसले को क्या बिसूरना, उसने तो कानूनों का गड्ढा दिखा दिया है।