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Monday, June 11, 2012

ये ग्रोथ किसने मारी !

हली तिमाही 8 फीसद, दूसरी तिमाही 6.3, तीसरी तिमाही 6.1 और चौथी तिमाही 5.3 !!! इसे आर्थिक ग्रोथ का गिरना नहीं बल्कि ढहना कहते हैं। सिर्फ एक साल (2011-12) में इतनी तेज गिरावट यकीनन अनदेखी है। ऐसे तो ग्रीस भी नहीं ढहा, जिसकी त्रासदी को सरकार अपनी आर्थिक कुप्रबंध कॉमेडी का हिससा बना रही है। औद्योगिक उत्पादन की बढ़ोत्तरी पंद्रह साल में दूसरी बार शून्य से नीचे ! 41 साल में पहली बार खनन क्षेत्र में उत्पापदन वृद्धि शून्य्!  छह साल बाद बैंक जमा दर में पहली गिरावट! यह सब अभूतपूर्व कारनामे हैं जो भला ग्रीस या स्पेन की देन कैसे हुए? देशी नीतिगत गलतियों के ठीकरे के लिए जब सरकार जब ग्लोबल सरों की तलाश करती है तब यह शक करने का हक बनता है कि क्या टीम मनमोहन हकीकत में देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए बेचैन है। बेचैनी अगर सच है तो सरकार को वापसी के वह सूत्र क्यों नहीं दिखते जो उन्ही फाइलों के नीचे चमक रहें है जिन पर बैठकर प्रधानमंत्री मीटिंग मीटिंग खेल रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्‍था की ताजा मुसीबतें जिन दरवाजों से आई हैं बचने के रास्ते भी वहीं से खुलते हैं। इन रास्तों को गठबंधन का कोई घटक नहीं रोक रहा है। अर्थव्यवस्था की चिंचियाती मशीन में थोड़ा तेल पानी डालने के लिए सुधारों कोई बडे तीर नहीं मारने हैं।
वापसी के रास्ते
नजारे बड़े चौंकाने वाले हैं। देश की कंपनियां नकदी के पहाड़ पर बैठी हैं और निवेश बंद है। बीते साल की आखिरी तिमाही में प्रमुख कंपनियों (निजी व सरकारी) के पास 456,700 करोड़ रुपये की नकदी थी जो इससे पिछले साल के मुकाबले 21 फीसदी ज्या दा थी। अगर निवेश स्कीमों (‍लिक्विड फंड) में कंपनियों के निवेश को जोड़ लिया जाए तो नकदी के पर्वत की ऊंचाई 570,700 करोड़ रुपये हो जाती है। इनमें भी जब दस शीर्ष सरकारी कंपनियां 137,576 करोड़ रुपये की नकदी लिये सो रही हों तो सरकार के काम करने के तरीके पर खीझ आना लाजिमी है। इस जनवरी में प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी ने सार्वजनिक उपक्रमों की बैठक बुलाकर उन्हें नकदी के निवेश के लिए कहा था मगर पत्ता तक नहीं