नहीं चाहिए खर्च में कंजूसी ! घाटे में कमी! निवेश करो !आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी। .. ग्लोबल नेतृत्व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है जो बीते सप्ताह कैम्प डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में निकोलस सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्व आर्थिक संकट को से निबटने के पूरे समीकरण ही बदल दिये हैं। सरकारों का ग्लोबल संहार शुरु हो गया है क्यों कि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्तीय कंजूसी की एंग्लो सैक्सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत भारी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप अब वापस ग्रोथ की सोन चिडिया को तलाशने निकल रहे हैं। चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरु कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मु्र्गी ( ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया।...
देर आयद
अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ से खिसकी तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाई कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरु हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे क्यों कि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख को बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्साई ओर उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुकिश्लों का खाता आर्थिक सुस्ती