ग्लोबल ट्रेड की मुख्यधारा से भारत का बाहर रहना, मोदी के आक्रामक कूटनीतिक अभियानों की सफलता को संदिग्ध बनाता है.
भारत में
नई सरकार बनने के बाद, कूटनीति
के पर्यवेक्षक इस बात को लेकर हमेशा से असमंजस में रहे हैं कि प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक मुहिम में ग्लोबल ट्रेड की चर्चाएं क्यों नदारद हैं. यह
मौन इसलिए चौंकाता था क्योंकि दिल्ली में नई सरकार आने तक ग्लोबल व्यापार कूटनीति
में बड़े बदलावों की जमीन तैयार हो चुकी थी, जिसमें भारत को अपनी जगह बनानी थी.
मोदी सरकार की चुप्पी, यदि
रणनीतिक थी तो अब तक इसके नतीजे आ जाने चाहिए थे लेकिन अगर यह चूक थी तो यकीन
मानिए, बड़ी चूक रही है. इस महीने की शुरुआत
में प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के 12
देशों ने अमेरिका की अगुआई में ट्रांस पैसिफिक पाटर्नरशिप (टीपीपी) पर दस्तखत कर
दिए जो न केवल सबसे आधुनिक व विशाल व्यापार गुट है बल्कि इसके साथ ही ग्लोबल ट्रेड
गवर्नेंस के नए दौर की शुरुआत हो रही है. भारत का टीपीपी का हिस्सा बनना तो दूर, यह इसकी परिधि पर हो रही चर्चाओं में
भी नहीं है, जबकि भारत को ग्लोबल ट्रेड में नए
बदलावों का अगुआ होना चाहिए था.
अफ्रीकी देशों की ताजा जुटान में डब्ल्यूटीओ
को लेकर भारत की सक्रियता अचरज में डाल रही थी. अंतरराष्ट्रीय व्यापार ढांचा बनाने
में डब्ल्यूटीओ की सीमित सफलता के बाद टीपीपी और आसियान, भारत व चीन की भागीदारी वाली रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव
इकोनॉमिक पाटर्नरशिप (आरसीईपी) पर चर्चा शुरू हुई है. भारत के कई अफ्रीकी मेहमान
भी डब्ल्यूटीओ को पीछे छोड़कर, इन
संधियों में अपनी जगह तलाश रहे हैं. आरसीईपी पर वार्ताएं जारी हैं जबकि टीपीपी
पहली सहमति बन चुकी है. इस संधि को लेकर पांच साल की कवायद को ताजा इतिहास की सबसे
गहन व्यापार वार्ता माना गया है. हालांकि टीपीपी को अमेरिकी कांग्रेस व सदस्य
देशों की संसदों की मंजूरी अभी मिलनी है, फिर भी अपने वर्तमान स्वरूप में ही यह संधि खासी व्यापक है. टीपीपी
में शामिल बारह देशों (ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, चिली, कनाडा, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, मेक्सिको, न्यूजीलैंड, पेरु, अमेरिका, वियतनाम) के दायरे में दुनिया का 40 फीसदी जीडीपी और 26 फीसदी व्यापार आता है. चीन भी जल्द ही
इसका हिस्सा बनेगा. दूसरी तरफ भारत जिस आरसीईपी में शामिल है, वह भी टीपीपी से प्रभावित होगी क्योंकि
आरसीईपी के कई सदस्य टीपीपी का हिस्सा हैं.
टीपीपी से भारत की शुरुआती दूरी तकनीकी
थी. इसकी सदस्यता के लिए एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) का सदस्य होना जरूरी
है. 1998 से 2009 के बीच एपेक में नए सदस्यों को शामिल
करने पर पाबंदी थी. इसलिए टीपीपी का दरवाजा नहीं खुला लेकिन 2009 के बाद से भारत को सक्रिय होकर इस
संधि का हिस्सा बनने की शुरुआत करनी चाहिए थी. खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के ग्लोबल मिशन में एपेक व टीपीपी में प्रवेश सबसे ऊपर होना चाहिए था.
टीपीपी को विशेषज्ञ गोल्ड स्टैंडर्ड
ट्रेड पैक्ट कह रहे हैं जो मुक्त व्यापार को डब्ल्यूटीओ व एफटीए की पुरानी
व्यवस्थाओं से आगे ले जाता है. टीपीपी के तहत सदस्य देशों में 98 फीसदी सीमा शुल्क दरें यानी करीब 18,000 टैरिफ लाइन्स खत्म हो जाएंगी. सिर्फ सीमा
शुल्क ही नहीं,
टीपीपी सेवाओं के निर्यात, कृषि, बौद्धिक संपदा, विदेशी निवेश, पर्यावरण, श्रम, ई कॉमर्स, प्रतिस्पर्धा, फार्मा सहित तमाम उन पक्षों पर सहमति
बना रही है, जहां डब्ल्यूटीओ अफसल हो गया था.
टीपीपी से भारत की दूरी के मद्देनजर
अर्थव्यवस्था,
व्यापार और ग्लोबल कूटनीति में उसके
रसूख पर असर के आकलन शुरू हो गए हैं. इसके तहत बनने वाला मुक्त बाजार, ग्लोबल ट्रेड का संतुलन बदल देगा, क्योंकि इस संधि में चीन के संभावित
प्रवेश के बाद विश्व व्यापार का बड़ा हिस्सा टीपीपी के नियंत्रण में होगा. पीटर्सन
इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल इकोनॉमी के ताजे अध्ययन के मुताबिक, यदि भारत इससे बाहर रहा तो देश को करीब
50 अरब डॉलर के निर्यात का सालाना नुक्सान
होगा. यह संधि सरकारों के बीच होने वाले कारोबार और विदेशी निवेश का रुख भी तय
करेगी.
भारत के लिए टीपीपी का दूसरा असर और भी
गंभीर है. गैट (डब्ल्यूटीओ का पूर्वज) के बाद टीपीपी पहली संधि है जिसे लेकर
सरकारों व निजी क्षेत्र में इतनी अधिक उत्सुकता है. टीपीपी ने अभी आधा रास्ता ही
तय किया है फिर भी इसकी वार्ताओं का ढांचा ग्लोबल व्यापार प्रशासन के नए पैमाने तय
कर रहा है. इसमें शामिल देश नई तरह से अपनी व्यापार व सीमा शुल्क नीतियां बदलेंगे
जिनमें भारत की मौजूदगी वाली आरसीईपी भी शामिल है. टीपीपी, बहुराष्ट्रीय व्यापार की नई ग्लोबल गवर्नेंस
का आधार होगी और क्षेत्रीय मुक्त व्यापार संधियों के लिए मानक बन जाएगी.
टीपीपी को लेकर कूटनीतिक, औद्योगिक और राजनयिक हलकों में
उत्सुकता है जबकि भारत में बेचैनी बढ़ती दिख रही है. यूरोपीय समुदाय के साथ मुक्त
व्यापार संधि पर बातचीत रुकने और आसियान, भारत व चीन की आरसीईपी पर वार्ताओं के गति न पकडऩे के बीच अमेरिका
की अगुआई में टीपीपी पर निर्णायक सहमति ने भारत को व्यापार कूटनीति में हाशिए पर
खड़ा कर दिया है.
ग्लोबल ट्रेड की मुख्यधारा से भारत का
बाहर रहना, मोदी के आक्रामक कूटनीतिक अभियानों की
सफलता को संदिग्ध बनाता है. खास तौर पर तब जबकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार से गुजरात
के पुरातन संबंधों के कारण, मोदी
के नेतृत्व में भारत की विश्व व्यापार रणनीतियों और मुक्त बाजार में नए प्रयोगों
की उम्मीद थी. मोदी अपने कूटनीतिक अभियानों का नया चरण शुरू कर रहे हैं और दूसरी
तरफ नवंबर में मनीला में एपेक के आर्थिक
नेताओं की जुटान की तैयारी हो रही है. मोदी को अब व्यापार कूटनीति को अपने ग्लोबल
अभियानों का आधार बनाना होगा, और
एपेक के जरिए टीपीपी में भारत का प्रवेश सुनिश्चित करना होगा, क्योंकि भारत की कूटनीतिक सफलता मोदी
की विदेशी रैलियों से नहीं बल्कि ग्लोबल व्यापार कूटनीति की मुख्यधारा में भारत की
वापसी से मापी जाएगी. इस वापसी के बिना भारत में विदेशी निवेश की वापसी नहीं होगी.