कोरोना के कहर से निजात कब मिलेगी? इसे न तो डोनाल्ड ट्रंप या शी जिनपिंग तय कर सकते हैं और न नरेंद्र मोदी. हमारी जिंदगी कब सहज और स्वतंत्र हो सकेगी, यह तय करने वाले तो कोई दूसरे ही हैं जो कैमरे की चमक और खबरों की उठापटक से दूर ऐसे अनोखे मिशन पर लगे हैं जो दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा.
कोरोना से हमारी लड़ाई में जीत का दारोमदार टीवी पर धमक पड़ने वाले नेताओं पर नहीं बल्कि दुनिया के दवा उद्योग पर है जो यकीनन ज्ञान और क्षमताओं के शिखर पर बैठा है. लेकिन इस समय जो काम इसे मिला है उसमें अगर सफलता मिली तो बीमारियों से हमारी जंग का तरीका बदल जाएगा.
11 जनवरी नॉवेल (नए) कोरोना वायरस का जेनेटिक (अनुवांशिक) क्रम जारी (चीन से) होने के बाद, विश्व की दवा कंपनियां मिशन इम्पॉसिबिल पर लग गई हैं.
उनके दो लक्ष्य हैं
• एक, कम से कम समय में कोरोना की दवा विकसित करना ताकि पीडि़तों का इलाज हो सके.
• और दूसरा, कोरोना की वैक्सीन तैयार करना.
दवाएं और वैक्सीन बनाना चुनावी नारे उछालने जैसा नहीं है इसलिए कोरोना से ताल ठोंकता फार्मास्यूटिकल उद्योग किसी फंतासी फिल्म में बदल गया है. वह समय के विरुद्ध भागते हुए दुनिया को प्रलय से बचाने की जुगत में लगा है.
दवाएं तैयार करने की होड़ पेचीदा और दिलचस्प है. वायरल बीमारी का इलाज आसान नहीं है. वायरस (विषाणु) मानव कोशिका का इस्तेमाल कर अपनी संख्या बढ़ाते हैं. वायरस से प्रभावित कोशिकाओं को बचाते हुए दवा बनाना टेढ़ी खीर है. कुछ वायरल रोगों (एचआइवी, हरपीज, हेपेटाइटिस बी, इन्फ्लुएंजा, हेपेटाइटिस-सी) की दवाएं उपलब्ध हैं. लेकिन वायरस अपने जेनेटिक स्वरूप को जल्द ही बदल लेते हैं इसलिए दवाओं के असर जल्द ही खत्म हो जाते हैं.
आमतौर पर दवाएं विकसित करने में कई वर्ष लगते हैं लेकिन केवल दो माह के भीतर दुनिया भर में कोविड-19 की करीब 55 दवाएं विकास और परीक्षण के अलग-अलग चरणों में पहुंच गईं है. यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 20 मार्च को भारत समेत 15 देशों में दवाओं के परीक्षण की इजाजत दे दी. 28 मार्च को नॉर्वे और स्पेन में मरीजों को परीक्षण के लिए चुन भी लिया गया.
कोविड के मुकाबले में दवा उद्योग ने नई दवाओं पर वक्त लगाने की बजाए मौजूदा दवाओं की ‘रिपरपजिंग’ (पुरानी दवा का नया प्रयोग) को चुना. अब ऐंटीवायरल, प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी और ऐंटीबॉडी उपचार, इन तीन वर्गों में दवाएं बन रही हैं. निवेश बैंक स्पार्क कैपिटल की एक रिसर्च बताती है कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो सितंबर तक पहली खेप बाजार में आ जाएगी.
दवाओं के विकास में तेजी के बावजूद अंतिम इलाज तो वैक्सीन यानी टीका ही है, हालांकि वैक्सीन की सफलताओं का पिछला रिकॉर्ड कुछ असंतुलित है. करीब पंद्रह बीमारियों की वैक्सीन उपलब्ध हैं, जिनमें छोटी चेचक और पोलियो पर जीत वैक्सीन से ही मिली है. लेकिन एचआइवी, निपाह, हरपीज, सार्स, जीका जैसी बीमारियों पर वैक्सीन ने बहुत असर नहीं किया. वायरस जल्द ही अपनी चरित्र बदल (म्यूटेट) लेते हैं इसलिए वैक्सीन निष्प्रभावी हो जाती है.
अलबत्ता दवा उद्योग अभूतपूर्व ढंग से कोविड की वैक्सीन बनाने में जुटा है. डब्ल्यूएचओ की सूची के अनुसार दुनिया में 44 वैक्सीन एक साथ बन रही हैं. ब्लूमबर्ग के मुताबिक, अमेरिका की एक कंपनी ने तो जनवरी में कोरोना का जेनेटिक कोड मिलने के बाद मार्च में एक मरीज पर पहला परीक्षण भी कर लिया.
तेज विकास के लिए मॉडर्न और फाइजर सहित कई कंपनियां आरएनए तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं. यह तकनीक जोखिम भरी है. बीमारी बढ़ा भी सकती है. दूसरे, वैक्सीन सफल ही हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है लेकिन दवा कंपनियां जीत के प्रति आश्वस्त हैं. कोविड की वैक्सीन बनने में कम से कम डेढ़ साल का वक्त लगेगा.
मुश्किल दवा या वैक्सीन बनाने तक सीमित नहीं है. बहुत बड़े पैमाने पर बहुत तेज उत्पादन भी चाहिए. पहली खुराकें डॉक्टरों, नर्सों को, दूसरी बच्चों व महिलाओं को, फिर ज्यादा जोखिम वाले लोगों को और सबको मिलेंगी. पूरी दुनिया को करोड़ों खुराकें चाहिए.
कोविड-19 अपने पूर्वजों (सार्स, एमईआरएस) की तुलना में कहीं ज्यादा संक्रामक है इसलिए वैक्सीन के अलावा विकल्प भी नहीं है. हर्ड इम्यूनाइजेशन यानी अधिकांश लोगों को वैक्सीन लगाकर ही इसे रोका जा सकता है. तीन महीने की तबाही के बाद यह तय हो चुका है जब तक वैक्सीन नहीं आएगी दुनिया की आवाजाही सामान्य नहीं होगी और न ही विश्व को कोरोना मुक्त घोषित किया जा सकेगा.
इसलिए दवा बनने तक बच कर रहिए और दम साध कर कोविड से फार्मास्यूटिकल उद्योग का यह रोमांचक मुकाबला देखिए. जीत के अलावा हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है.