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Sunday, June 5, 2022

जाने कहां गए वो दिन ?


राजामणि‍ टैक्‍सी खरीदना चाहते हैं. उनको याद है कि उनके दोस्‍त महेशबाबू ने चार साल पहले  टैक्‍सी ली थी. महेशबाबू को बैंक कर्ज नहीं दे रहे थे.  कर्ज महंगा तो मिला लेक‍िन फाइनेंस कंपनी से कर्ज की मदद मिल गई . टैक्‍सी चलने लगी. लॉकडाउन में नुकसान हुआ लेक‍िन महेश बाबू खींचतान कर बुरा वक्‍त काट ले गए

राजामण‍ि को भी बैंक कर्ज नहीं दे रहा. उनके पास कमाई का कोई ठोस जरिया नहीं है. और अब वह कंपनी बंद हो गई है जिससे महेशबाबू को कर्ज मिला था. निजी महाजनों से कर्ज लेने का मतलब है सूदखोरी की चपेट में आना.

राजामण‍ि जैसों के लिए बड़ा कठिन वक्‍त शुरु हुआ है. इस फेहर‍िस्‍त में छोटे उद्योग, गांवों ट्रैक्‍टर खरीदने वाले, व्‍यापारी आदि भी शामिल हैं जिनके लिए कर्ज की ख‍िड़की सरकारी या निजी बैंकों में नहीं बल्‍क‍ि  शैडो बैंकों में खुलती थी. वक्‍त ने कुछ एसा पलटा खाया कि भारत की शैडो बैंकिंग का युग खत्‍म हो रहा है. बदलते कानून, नई तकनीकें और महंगा होता कर्ज भारत की विवादि‍त और क्रांतिकारी शैडो बैंकिंग को इति‍हास में दफ्न करने जा रहे हैं 

शैडो बैंकिंग से हमारा मतलब एनबीएफसी से है यानी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी से. यानी वे बैंक जैसी कंपन‍ियां जो कर्ज तो दे सकती थीं लेक‍िन बैंकों की तरह डिपॉजिट नहीं ले सकती थीं. यह कर्ज के लिए धन कहां से लातीं थी इसकी कहानी जरा लंबी और पेचीदा है क्‍यों कि इस कहानी में इनके ध्‍वस्‍त होने का इतिहास छिपा है.

पहले यह समझना ठीक रहेगा कि किस तरह शैडो बैंकिंग यानी एनबीएफसी  ने कोविड से पहले तक भारत बाजार कर्ज की पूरी तस्‍वीर ही बदल दी थी.

भारत में नई एनबीएफसी बनाने की रफ्तार में 2010 के बाद तेजी आई. 2012 के बाद भारत की बैंकिंग ढांचा लड़खड़ाने लगा था. यह ट‍ि्वन बैलेंस शीट की उलझन का दौर था. भारी कर्ज में डूबी कंपन‍ियों के कारोबार टूट रही थे. सरकारी बैंकों का  बकाया का कर्ज  फंसने लगा था. 2014 तक यह हालत और गंभीर हो गई. बैंकों को कर्ज से हाथ पीछे खींचने पड़े. अगले चार साल में पूरे बैंकिंग सिस्‍टम में  एनपीए यानी फंसे हुए कर्ज का स्‍तर (कुल कर्ज के अनुपात में ) दोगुना हो गया.

 

2014 वह वक्‍त था जब भारत में शैडो बैंकिंग का उदय हुआ. एनबीएफसी की कतार लग गई. कई प्रमुख औद्योगिक घरानों और बड़े निवेशक इस कारोबार में कूद पड़े. उद्योगों से उपभोक्‍तओं तक कर्ज बांटने की कमान इन कंपनियों ने संभाल ली. इन कंपनियों के पास बैंकों की तरह आम लोगों से बचत जुटाने की छूट नहीं थी लेक‍िन कर्ज बांटने की इजाजत थी. बांटने के लिए यह पैसा इन्‍हें बैंकों से मिलता था. बैंक इन्‍हें सीधा कर्ज भी देते थे और इनके बांड में निवेश करते थे  

 

बैंक अपने फंसे कर्ज के कारण नए कर्ज रोक रहे थे. 2014 के ब्‍याज दर कम होने से बाजार में पूंजी भी थी. नोटबंदी (2016) के बाद बैंकों के पास काफी बचत मौजूद थी. इधर  2012 से 2017 के बीच बड़ी मात्रा में लोगों की बचतें म्‍युचुअल फंड के पास पहुंचने लगी थीं. इस दौरान में इनके पास उपलब्‍ध निवेश धन (एसेट अंडर मैनेजमेंट ) में सालाना 22.1 फीसदी के दर बढ़ा.   बैंक और म्‍युचुअल फंड की बचतें यह बचतें एनबीएफसी कर्ज देने या उनके बांड में निवेश में इस्‍तेमाल हुई.


कर्ज की पायलट सीट पर आ गई भारत की शैडो बैंकिंग. मुख्‍य बैकिंग अब पीछे से इन्‍हें पैसा दे रही थी. यही वह दौर था जब भारत में लगभग 10-11 अलग अलग तरह के एनबीएफसी बने जिनमें आटो, हाउस‍िंग, माइक्रो फाइनेंस आद‍ि प्रमुख थे. 

रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2014 से 2017  तक कुल कर्ज में बैंकों का हिस्‍सा 62 फीसदी से घटकर 35 फीसदी रह गया. 2013 से 2017 के बीच एनबीएफ का कर्ज वितरण सालाना 13.1 फीसदी और 2017 से 2019 के बीच 23.4 फीसदी की गत‍ि से बढ़ा. 2018-19 तक यानी  कोविड से पहले  वाण‍िज्‍य‍िक कर्ज में खासतौर पर उद्योगों को कर्ज में एनबीएफसी बैंकों की बराबरी पर आ गए थे. 2020 की पहली छमाही तक शैडो बैंकिंग का कुल कर्ज वितरण 23 लाख करोड़ पहुंच रहा था.

 शैडो बैंकिंग का लीमैन मौका

फिर आया 2018, जहां अमेरिका के लीमैन ब्रदर्स की बैंक की तर्ज पर पर  भारत की शैडों बैंकिंग साइकिल स्‍टैंड पर खड़ी साइकिलों की तरह गिरने लगी. भारत की एनबएफसी कर्ज को बांट कर उसे प्रतिभूत‍ियों में बदल रही थी यानी सिक्‍योरिटाइज कर रही थीं. बाजार में पूंजी सस्‍ती थी, बैंक और म्‍युचुअल उनके बांड में पैसा लगा रहे थे. एनबीएफ छोटी अवध‍ि का कर्ज लेकर लंबी अवध‍ि के लिए बांट रही थीं. लिया गया कर्ज सस्‍ता था और बांटा गया महंगा. सामान्‍य तौर पर एनबीएफसी उनको कर्ज दे रही थीं जिन्‍हें बैंक कर्ज लेने लायक नहीं मानते थे. अर्थव्‍यवस्‍था में ढांचागत मंदी आ चुकी थी, एनबीएफसी के कर्ज की क‍िश्‍तें टूटने लगीं, कर्ज डूबने लगे. एनबीएफस का कर्ज सिक्‍यूराइटजेशन 2018 में 1.99 लाख करोड़ तक पहुंच गया था लेक‍िन इनका बिजनेस मॉडल दरक गया था

पहले डूबी देवान हाउस‍िंग जहां 30000 करोड़ का कर्ज घोटाला हुआ और फिर भारत की एनबीएफस की लीमैन आईएलएफस का पतन हुआ. इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक और म्‍युचुअल फंड भी संकट में आ गए.

सनद रहे कि 2014 के बाद कर्ज की सप्‍लाई में इनका हिस्‍सा बहुत बड़ा था. भरपूर कर्ज बांटने का सरकारी अभियान इनके कंधों पर था इसल‍िए सरकार ने बैंकों के जरिये इनके पैकेज, बेलआउट का इंतजाम किया लेक‍िन निवेश हाथ क्‍या कोहनी भी जला चुके थे. वे एनबीएफसी के लिए सख्‍त और बैंकों जैसे नियम मांग रहे थे इसल‍िए शैडो बैंकिंग अस्‍ताचल की तरफ बढ़ चली. यहीं से भारत की शैडो बैंक‍िंग को लेकर नियम कानूनों का मि‍जाज बदलने लगा.

2018 के बाद इस एनबीएफ की दुनिया में तीन बड़े भूचाल आए हैं. इनको समझना जरुरी है ताकि हमें पता चल सके कि राजामणि‍ को जैसों कर्ज मिलना कयों मुश्‍क‍िल हो गया है.

1- आईएलएफएस के डूबने के बाद रिजर्व बैंक को शैडो बैंकिंग की दरारें नजर आईं. नियम बदले गए. एनबीएफसी को बैंकों तरह संकट के लिए रिजर्व बनाने होंगे. एनपीए घोष‍ित करने होंगे. कर्ज फंसने की सूरत बैंकों की तर्ज इन्‍हें सख्‍त नियमों (पीसीए) में बांधा जाएगा. अब केवल बड़ी एनबीएफसी ही टिकेंगी लेक‍िन उन्‍हें बहुत पूंजी लगानी होगी

2- दूसरा भूचाल तकनीक की दुनिया से आया. फिनटेक के बाद नई तरह व‍ित्‍तीय सेवायें. एनबीएफसी केवल कर्ज बांटने में सक्रिय थे. इस बीच बैकों व अन्‍य वित्‍तीय कंपनियों में पेमेंट, वालेट, यूपीआई,  ऑनलाइन पेमेंट, आदि सेवाओं का  पूरा पोर्टफोलियो बना लिया. सरकारी और निजी बैंक तेजी से से आगे गए आ गए.  कर्ज के कारोबार तक सीम‍ित एनबीएफसी इस होड़ में अब दौड़ नहीं पाएंगे

3- तीसरा सबसे बड़ा झटका कर्ज की महंगाई है. एनबीएफसी सस्‍ते कर्ज के युग में उभरे थे. यह वित्‍तीय प्रणाली के आर‍बि‍ट्राज पर चलते थे. बैंकों व बांड के जरिये सस्‍ता कर्ज उठाकर आगे बांटते थे. कर्ज महंगा होने के बाद यह संभावान चुक गई है. एनबीएफसी के लिए फंड की लागत में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी हो रही हैं दूसरी तरफ महंगे कर्ज के लेनदार घट हैं

 

चार अप्रैल का दिन भारत के वित्‍तीय बाजार की एक और बड़ी करवट थी जब एचडीएफसी के एचडीएफसी बैंक में विलय का एलान हुआ. देश की सबसे बड़ी हाउस‍िंग फाइनेंस कंपनी एचडीएफसी जो कि एनबीएफसी है, वह सबसे बड़ी निजी बैंक में विलय होने जा रही थी. यह विलय अभी मंजूर‍ियों में फंसा है लेक‍िन बाजार ने समझ लिया था कि जब नए कानूनों में बैंकों और एनबीएफसी में अंतर नहीं बचा दो का क्‍या फायदा. अचरज नहीं कि बची हुए बड़ी एनबीएफसी या तो बैंकों के लाइसेंस लें लें या किसी बैंक की गोद में समा जाएं.

शैडो बैंकिंग के पतन के साथ देश के कर्ज के बाजार में दो बहुत बड़े  बदलाव हो रहे हैं. 

एक-                     कर्ज अब आमतौर पर महंगा होगा और कर्ज देने वाले कम बचेंगे

दो-                         दो- बहुत बड़ा तबका बैंकों से कर्ज नहीं ले पाएगा क्‍यों कि उनके पास मजबूत बिजनेस मॉडल नहीं है और बैंक उनके साथ जोखिम नहीं ले सकते.

भारत इस समय करीब 3 ट्र‍िल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था है जिसमें कर्ज का हिसस करीब 1.6 ट्रिल‍ियन डॉलर है. बैंक कर्ज का जीडीपी से अनुपात 56 फीसदी है जबक‍ि कारपोरेट कर्ज जीडीपी का 90 फीसदी. विक‍स‍ित देशों में प्राइवेट कर्ज जीडीपी अनुपात 200 फीसदी से ऊपर है. स्‍टेट बैंक का आकलन है कि भारत मे 5 ट्रि‍ल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था बनने के लिए करीब एक ट्र‍िल‍ियन डॉलर के कर्ज बांटने होंगे...

सरकार को कर्ज बाजार और कर्ज विकल्‍पों की नियमावली नए स‍िरे लिखनी होगी. लेक‍िन सरकारों के पास वक्‍त कहां है?


Saturday, November 2, 2019

ऐसे कैसे चलेंगे बैंक?


 
जमा डूबने के डर से महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक के एक जमाकर्ता की मौत की खबर जब सुर्खियों में थीउसी दौरान सरकारी लोन मेलों में 81,000 करोड़ रुके कर्ज बांटे गएबैंकों ने 1.72 लाख करोड़ रुके कर्ज बट्टे खाते (2018-19) में डाल दिएगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के बाद दूरसंचारलघु उद्योगों और भवन निर्माण क्षेत्र में नए कर्ज संकट के सायरन बज उठेकई बैंकों ने जमा पर ब्याज दर घटा दीखासतौर पर बुजुर्गों की बचत पर ब्याज घट गया.  



भारत के बैंकों के पास अगर कोई चेहरा होता तो उसमें किसी आम भारतीय का ही अक्स दिखाई देतादुविधाग्रस्तआशंकितअनिश्चित और परेशान.
क्या भारतीय बैंकों का बुनियादी कारोबारी मॉडल लड़खड़ा रहा है?

·       भारतीय बैंकों का एक पैर पुराने दौर की डिपॅाजिट बैंकिंग में है जहां ज्यादा से ज्यादा जमा के लिए ऊंचे ब्याज का प्रोत्साहन देना होता है जबकि दूसरा पैर सस्ता कर्ज झोंककर अर्थव्यवस्था को चलाए रखने की मुहिम में हैभारतीय बैंक पूंजी के लिए सरकार पर नहीं बल्कि आम लोगों की बचत पर निर्भर है इसलिए बैंकों का जोखिम देश के करोड़ों जमाकर्ताओं का सबसे बड़ा जोखिम है.

·       यह सही है कि बैंक खाते में जमा कितना भी होबीमा केवल एक लाख रुका है लेकिन सरकारी बैंकों में प्रति खाता औसत जमा 53,000 रुहै जो बीमा की सीमा के भीतर हैनिजी व विदेशी बैंकों में यह औसत एक लाख रुसे दस लाख रुतक हैइसलिए ज्यादातर छोटी बचतें बीमा के तहत महफूज हैं.

·       भारतीय बैंकिंग की मुसीबत यह है कि लोग उसके पास पैसा रखने को तैयार नहीं हैंबैंकों में बचत बढ़ने की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसद पर आ गई हैजो 2009-13 के दौरान 17 फीसद पर थीमियादी जमा यानी एफडी में तेज गिरावट दर्ज हुई है.

·       2006 और 2010 के विपरीत पहली बार बाजार में नकदी का प्रवाह यानी हाथों में नकदी बढ़ने के बाद भी जमा नहीं बढ़ी है.

·       इस साल जनवरी में बैंकों का कर्ज जमा अनुपात 47 साल के सबसे ऊंचे स्तर (78.6 फीसदपर पहुंच गयायह ऊंचाई बताती है कि जमा की तुलना में कर्ज देने की रफ्तार बहुत तेज है जो कि भारी जोखिम का संकेत है.

·       बैंकों का कर्ज सरकारमुट्ठीभर कंपनियों और कुछ खुदरा मध्यवर्गीय ग्राहकों को मिलता हैबैंकों का इस्तेमाल करने वाले 80 फीसद लोग बैंकों से कोई कर्ज नहीं लेतेबैंकों के मुनाफे से बचत करने वालों को कुछ नहीं मिलताकेवल ब्याज उनका सहारा है.

·       नए कर्जदार जोड़ने के लिए बैंकों को बार-बार ब्याज दर कम करना जरूरी है ताकि अर्थव्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ सकेलेकिन कर्ज सस्ता करने के साथ जमा पर ब्याज दर कम होती हैरेपो रेट को कर्ज दर से जोड़ने के बाद बैंक डिपॉजिट पर रिटर्न और घट गया है.

·       सरकार सस्ता कर्ज झोंक अर्थव्यवस्था को चलाना चाहती हैवह अपने खर्च के लिए जमाकर्ताओं की बचत (बैंकों से कर्जपर निर्भर हैयहां तक कि बैंकों में नई पूंजी भी अब उनसे ही पैसा लेकर (बॉन्डडाली जाती है.

·       सरकारों ने बैंकों में जमा आम लोगों की पूंजी के सहारे छद्म बैंकिंग (एनबीएफसीका पूरा तंत्र खड़ा कर दियाजो अब बैठ गया हैखेती से लेकर उद्योग तक बैंकों के बकाया कर्ज बढ़ते या डूबते चले जा रहे हैंजमा घटने से बैंकों की पूंजी सिकुड़ रही हैयही वजह है कि सरकार ने बैंकों के विलय के जरिए पूंजी आधार बढ़ाने की कोशिश की है.

·       इस माहौल में बैंक के डिपॉजिट ग्राहकों की चिंता दोहरी हैउनकी बचत का रिटर्न भी गिर रहा है और वह कर्ज में लुटाई भी जा रही है इसलिए बैंक भरोसा और पूंजी दोनों ही खो रहे हैं.

बैंकिंग का मॉडल बदले बिना इस चक्रव्यूह से निकलना मुश्किल है.

¨    बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगेपिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थेक्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ायाअब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैंइससे संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैंभारत में बैंकों को पारदर्शी बनानेसरकार की हिस्सेदारी घटाने और उन्हें बॉन्ड बाजार में सक्रिय करने की जरूरत है ताकि वे बाजार से पूंजी लेकर कर्ज दें.

¨    बैंक ग्राहकों को बचत पर ऊंचे रिटर्न की जगह सुरक्षा यानी समग्र बीमा कवर की अपेक्षा करनी होगीअच्छे रिटर्न के लिए म्युचुअल फंड और शेयर बाजारों की तरफ जाना होगा.

¨    कर्ज आधारित निवेश की एक सीमा तय करनी होगी क्योंकि अब उद्योगों को अपनी पूंजी पर जोखिम लेना होगा न कि जमाकर्ताओं के पैसे पर.

सनद रहे कि बैंक में बचत पूरी अर्थव्यवस्था और वित्तीय तंत्र (सरकार का खर्चनिजी उद्योगों को कर्जएनबीएफसी का कर्जका आधार है लेकिन इसके बावजूद खतरा बैंकों में रखी आम लोगों की जमा पर हरगिज नहीं हैजोखिम यह है कि बैंक अब बचत पर ऊंचा रिटर्न और सस्ता कर्ज एक साथ नहीं दे सकते इसलिए बैंकों की मौजूदा आफत दरअसल भारतीय बैंकिंग के लिए अस्तित्व का संकट बन गई है.

Saturday, June 29, 2019

...डूब के जाना है!


बात बीते बरस जनवरी से शुरू होती है जब नीरव मोदी बैंकों का बकाया चुकाने में चूके थे. नीरव की करतूत का घोटाला संस्करण बाद में पेश हुआ, पहले तो वित्तीय बाजार के लिए यह एक भरा-पूरा डिफॉल्ट था हीरे जैसे कीमती धंधे के कारोबारी का कर्ज चुकाने में चूकना! नीरव मोदी के डिफॉल्ट के साथ वित्तीय बाजार को मुसीबतों की दुर्गंध महसूस होने लगी थी.

मौसम एक-सा नहीं रहता और कर्ज हमेशा सस्तानहीं रहता. पूंजी की तंगी और कर्ज की लागत बढ़ते ही अर्थव्यवस्था को अपशकुन दिखने लगते हैं क्योंकि कर्ज जब तक सस्ता है, अमन-चैन है. ब्याज की दर एक-दो फीसद (छोटी अवधि के कर्ज-मनी मार्केट) बढ़ते ही, घोटाले के प्रेत कंपनियों की बैलेंस शीट फाड़ कर निकलने लगते हैं और नियामकों (रेटिंग, ऑडिटर) की कलई खुल जाती है.

पंजाब नेशनल बैंक को नीरव मोदी के झटके के एक साल के भीतर ही कई वित्तीय कंपनियां (अब तो एक टेक्सटाइल कंपनी भी) कर्ज चुकाने में चूकने लगीं.

  ·       भारत की सबसे बड़ी वित्तीय कंपनियों में एक, आइएलऐंडएफएस 2018 के अंत में बैंक कर्ज चूकी और डिफाॅल्ट का दुष्चक्र शुरू हो गया. सीरियस फ्रॉड इनवेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआइओ) कर्ज घोटाले में कंपनी के 30 अधिकारियों के खिलाफ पहली चार्जशीट दाखिल कर चुका है.

  ·   दीवान हाउसिंग फाइनेंस (दूसरी बड़ी संकटग्रस्त कंपनी) पर बॉक्स कंपनियां बनाकर कर्ज की बंदरबांट करने का आरोप है. रेड इंटेलीजेंस (वित्तीय डेटा कंपनी) की रिपोर्ट के मुताबिक, बड़ी वित्तीय कंपनियों के प्रवर्तक कुछ कागजी कंपनियां बनाते हैं जो आपस में एक-दूसरे को हिस्सेदारी बेचती हैं और फिर प्रवर्तक की वित्तीय कंपनी से कर्ज लेते हैं और उसी कर्ज से वापस मुख्य वित्तीय कंपनी में हिस्सेदारी खरीदते हैं. इस मामले की जांच होने के आसार हैं.

·       एनबीएफसी का ऑडिट और रेटिंग करने वाली कंपनियां भी घोटाले में शामिल मानी जा रही हैं. सीरियस फ्रॉड ऑफिस ने रिजर्व बैंक से इन कंपनियों के ऑडिट की अनदेखी करने पर रिपोर्ट तलब की है.

·       बकौल रिजर्व बैंक के 2018-19 में बैंकों में 71,500 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई है.

·       एसएफआइओ ने 2017-18 में बड़े कॉर्पोरेट फ्रॉड के 209 मामले दर्ज किए, यह संख्या 2016 के मुकाबले दोगुनी है. जेट एयरवेज और कुछ अंतरराष्ट्रीय ऑडिट कंपनियों सहित करीब आधा दर्जन बड़ी कंपनियां एसएफआइओ की ताजा जांच का हिस्सा हैं.

महंगी होती पूंजी और घोटालों के रिश्ते ऐतिहासिक हैं. जनवरी 2009 में सत्यम घोटाला, 2008 में लीमैन बैंक ध्वंस के चलते बाजार में तरलता के संकट के बाद निकला था. अमेरिका का प्रसिद्ध बर्नी मैडॉफ घोटाला भी इसी विध्वंस के बाद खुला. अमेरिका में डॉटकॉम का बुरा दौर शुरू होने के 15 माह और 9/11 के एक माह के बाद, एनरॉन के धतकरम से परदा उठा था.
छोटी अवधि (एक साल या कम) के कर्ज भारतीय कारोबारी दुनिया की प्राण वायु हैं. इनमें अंतर बैंक, बैंक व वित्तीय कंपनी, म्युचुअल फंड और वित्तीय कंपनी, एनबीएफसी और कंपनियों के बीच कर्ज का लेनदेन शामिल है जो विभिन्न माध्यमों (सीधे कर्ज, बॉन्ड या कॉमर्शियल पेपर) के जरिये होता है.

जब तक आसानी से कर्ज मिलता है, कंपनियों के प्रवर्तक मनमाने तरीकों से इसका इस्तेमाल करते और छिपाते रहते हैं. उनकी बैलेंस शीट और रेटिंग चमकदार दिखती है. लेकिन जब कर्ज महंगे होते हैं तो उनकी कारोबारी शृंखला में डिफॉल्ट का दुष्चक्र शुरू हो जाता है.

बड़ी कंपनियां आमतौर पर अपने शेयर या संपत्ति के बदले कर्ज लेती हैं. तलरता के संकट में इनकी कीमत गिरती है और कर्ज देने वाले बैंक वसूली दबाव बढ़ाते हैं. नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे मामले इसका उदाहरण हैं.

अर्थव्यवस्था में अच्छी विकास दर के साथ कंपनियों की कमाई बढ़ती रहती है और उनको छोटी अवधि के कर्ज मिलते रहते हैं लेकिन मंदी की शुरुआत के साथ बैंक, कंपनियों के नतीजों पर निगाह जमाकर ब्याज की दर बढ़ाते हैं और संकट फट पड़ता है. मसलन अब ऑटोमोबाइल की बिक्री कम होने के बाद कंपनियों के लिए सस्ता कर्ज मुश्किल हो जाएगा. 

पूंजी और कर्ज की ताजा किल्लत के पीछे धतकरम और घोटाले छिपे हैं. इन्हें सूंघकर ही रिजर्व बैंक ने, सरकार के दबाव को नकार कर संकटग्रस्त गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मदद से न केवल इनकार कर दिया है बल्कि इनके लिए नए सख्त नियम भी बना दिए हैं.

दूसरी मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट, कर्ज व डिफॉल्ट की हकीकतों से अलग खड़ा नजर आए तो चौंकिएगा मत. अर्थव्यवस्था के सूत्रधारों की बेचैन निगाहें भी दरअसल बजट पर नहीं बल्कि अगली तिमाही पर है जब गिरती रेटिंग और बढ़ते घोटालों के बीच गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के 1.1 खरब रुपए के बकाया कर्ज वसूली के लिए आएंगे. 


Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.   

Friday, May 10, 2019

नतीजा, जो आ गया !





अंतरिम बजट के आंकड़े गढ़ने तक मोदी सरकार को यह एहसास हो गया था कि अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़कर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार नहीं होगी. नतीजतन, पांच साल तक न्यू इंडिया का बिगुल बजाने के बाद नरेंद्र मोदी पाकिस्तान से आर-पार के नाम पर चुनाव मैदान में उतर गए.

मार्च में चुनावी राष्ट्रवाद का पारा चढ़ने तक अर्थव्यवस्था में अच्छे दिनों के दुर्दिन शुरू हो गए थे और बाजार मुतमइन हो चुके थे कि चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन

एक अंतरिम बजट में सरकार ने आंकड़ों की जो खिचड़ी पकाई है, वह जल्द ही सड़ जाएगी. सरकार की कमाई घटेगी और घाटा धर दबोचेगा.

दो आर्थिक आंकड़ों को चमकाने की हजार कोशिशों के बावजूद 2019 की आखिरी तिमाही में विकास दर गिरेगी और नरेंद्र मोदी पिछले पांच साल की सबसे खराब अर्थव्यवस्था के साथ वोट मांगने निकलेंगे. (संदर्भ पिछले अर्थात्)

सबसे तेज झटका
चौथे चरण का मतदान खत्म होने तक सरकारी राजस्व में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज हो गई और वित्त मंत्रालय ने मान लिया कि अर्थव्यवस्था मंदी में है...अलबत्ता यह किसी ने नहीं सोचा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा इंजन भी थमने लगेगा.

निर्यात, सरकार का खर्च, निजी निवेश और खपतइन चार इंजनों पर चलती है भारतीय अर्थव्यवस्था. इनमें खपत यानी आम लोगों का खर्च सबसे बड़ी ताकत है. निर्यात पहले से मृतप्राय था. बीते दिसंबर में निजी और सरकारी कंपनियों का निवेश 14 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया था. घाटे की मारी सरकार ने 2018-19 की आखिरी तिमाही में खर्च भी काट दिया. इन सबके बीच खर्च-खपत ही था जो अर्थव्यवस्था को ढुलका रहा था अलबत्ता चुनाव के गर्द--गुबार के बीच बाजार को जब यह नजर आया कि मांग की कमी मकानों से लेकर कार और मोटरसाइकिल से होते हुए साबुन, तेल, मंजन तक फैल गई है, तो खौफ लाजिमी था. खपत में गिरावट ऐसा झटका है जिसके लिए अर्थव्यवस्था हरगिज तैयार नहीं है.

क्यों गिरी खपत

पिछले ढाई दशक में पहली बार भारत में खपत गिर रही है यानी कि 135 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था (पीपीपी) की सबसे मजबूत बुनियाद डगमगा रही है! क्यों?

उपभोग या खपत के दो हिस्से हैं और दोनों एक साथ टूट गए हैं.

पहला है वह उपभोग जो कर्ज के सहारे बढ़ता है, इसमें ऑटोमोबाइल और हाउसिंग प्रमुख हैं. बकाया कर्ज से दबे बैंक उद्योगों को नया कर्ज देने की हालत में पहले से ही नहीं थे अलबत्ता नोटबंदी के दौरान बैंकों में बड़ी मात्रा में जो धन जमा हुआ था उसका बड़ा हिस्सा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को कर्ज के तौर पर मिला. तभी तो 2016 से 2018 के बीच ऑटो लोन में एनबीएफसी का हिस्सा 77 फीसद हो गया. लेकिन यह मांग सिर्फ कर्ज के कारण बढ़ी, तेज विकास के कारण नहीं.

इस साल कई बड़ी एनबीएफसी के वित्तीय संकट में फंसने के बाद कर्ज की पाइपलाइन पूरी तरह बंद हो गई इसलिए बाजार को गुलजार करने वाली खपत टूट गई है. मकानों की मांग पहले से ही गर्त में बैठी है इसलिए कर्ज आधारित खपत लौटने में वक्त लगेगा.

उपभोग का दूसरा हिस्सा कमाई या बचत पर आधारित है जिसमें उपभोक्ता उत्पाद, खाद्य, कपड़े आदि आते हैं. अगर आम लोगों की वित्तीय बचतों के आंकड़े पर गौर फरमाया जाए तो साबुन, तेल, मंजन की मांग कम होने की वजह उसमें मिल जाएगी. 2011 में लोगों की वित्तीय बचत जीडीपी के अनुपात में 9.9 फीसदी थी जो 2018 में 6.6 फीसदी रह गई. यानी कि कमाई में कमी के कारण लोग खपत घटाने को मजबूर हैं.

2013-18 के बीच अचल संपत्ति यानी मकानों की कीमतें स्थिर रही हैं लेकिन कुल बचत के अनुपात में भौतिक बचत गिरना मकानों की मांग न बढ़ने का सबूत है. सोने के आयात व मांग में कमी भी इसी क्रम में है

पिछले पांच साल की तथाकथित तेज विकास दर के बीच रिकॉर्ड बेकारी का असर समझना जरूरी है. दुनिया के विभिन्न देशों का तजुर्बा बताता है कि जो देश तेज विकास दर के दौरान पर्याप्त रोजगार नहीं बनाते, उनके यहां बचत दर गिरती जाती है जो अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए विस्फोटक है. सनद रहे कि 2017 में भारत में आम लोगों की कुल बचत दर बीस साल के सबसे निचले स्तर (जीडीपी के अनुपात में 17 फीसदी) पर आ गई थी.

चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन मोदी सरकार के कामकाज का सबसे बड़ा नतीजा आ गया है. अर्थव्यवस्था के आंकड़े रहस्य नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था आय-बचत-खपत-निवेश में समन्वित गिरावट के दुष्चक्र की तरफ खिसक रही है. विकास दर का आकलन घटाए जाने का दौर शुरू हो चुका है, सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई सरकार आने पर कोई जादू नहीं होने वाला है. चुनाव की आंधी तो 23 मई को थम जाएगी लेकिन आर्थिक संकट के थपेड़े हमें लंबे समय तक बेहाल रखेंगे.