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Monday, December 16, 2013

जनादेश के चैम्पियन


courtesy - Mint 
बहस अब यह नहीं है कि देश के लिए विकास का मॉडल क्‍या है अब तो यह तय होगा कि किस राज्‍य के    विकास का मॉडल पूरे देश के लिए मुफीद है।

राज्‍यों के कामयाब क्षत्रपों को भारत में सत्‍ता का शिखर शायद इसलिए नसीब नहीं हुआ क्‍यों कि पारंपरिक राजनीति एक अमूर्त राष्‍ट्रीय महानायकवाद पर केंद्रित थी जो प्रशासनिक सफलता के रिकार्ड या तजुर्बे को कोई तरजीह नहीं देता था। कद्दावर राजनीतिक नेतृत्‍व की प्रशासनिक कामयाबी को गर्वनेंस व विकास की जमीन पर नापने का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए किसी सफलतम मुख्‍यमंत्री के भी प्रधानमंत्री बनने की कोई गारंटी भी नहीं थी। सभी दलों के मुख्‍यमंत्रियों को पिछले दो दशकों के आर्थिक सुधार व मध्‍य वर्ग के उभार का आभारी होना चाहिए जिसने  पहली बार गवर्नेंस व विकास को वोटरों के इंकार व स्‍वीकार का आधार बना दिया और प्रशासनिक प्रदर्शन के सहारे मुख्‍यमंत्रियों को राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व की तरफ बढ़ने का मौका दिया। इस नए बदलाव की रोशनी में दिल्‍ली, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान व छत्‍तीसगढ़ का जनादेश न केवल विकास और गवर्नेंस की राजनीति के नए अर्थ खोलता है और बल्कि संघीय राजनीति के एक नए दौर का संकेत भी देता है।
चारों राज्‍यों का जनादेश, विकास से वोट की थ्‍योरी में दिलचस्‍प मोड़ है। विकास की सियासत का नया मुहावरा चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्‍व में नब्‍बे के दशक के अंत में आंध्र से उठा था। नायडू तो 2004 में कुर्सी से उतर गए लेकिन 1999 से 2003 के बीच राज्‍यों के क्षत्रप पहली बार विकास की राजनीति पर गंभीर

Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश

Monday, August 23, 2010

दो नंबर का दम

अर्थार्थ
भी-कभी बड़े बदलाव के लिए ज्यादा वक्त की दरकार नहीं होती। कई बार दूरगामी परिवर्तन ढोल-ताशा बजाए बगैर चुपचाप संजीदगी के साथ दबे पांव आ जाते हैं और हम जान भी नहीं पाते। जैसे कि विश्व में आर्थिक ताकत के हिसाब-किताब को ही लीजिए। पूरी दुनिया पता नहीं कहां-कहां उलझी थी, इस बीच बीते सप्ताह जापान को पछाड़कर चीन दुनिया की (अमेरिका के बाद) दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया। ..तकरीबन साढ़े चार करोड़ निर्धन लोगों वाली एक विकासशील अर्थव्यवस्था और दुनिया में दूसरे नंबर पर। हर पैमाने पर अभूतपूर्व है यह करिश्मा। चीन ने केवल एक तिहाई सदी में ही सब कुछ उलट-पलट दिया। आखिर ऐसी कामयाबी पर कौन है जो रश्क न करेगा। मगर हकीकत यह है कि चीन बल्लियों उछल नहीं रहा है, बल्कि वह नंबर दो के चक्कर को लेकर कुछ ऊहापोह में दिखता है। चीन के विकास में कुछ गहरे भीतरी अंतरविरोध हैं, जो शायद इस चमक के बाद खुलकर उभर आए हैं। इसलिए सरकार अपने इस ताज को कोई भाव ही नहीं दे रही है। सरकार के अखबारों को चीन का तीसरी दुनिया वाला चेहरा ही सुहाता है। अलबत्ता बाहरी विश्व को कोई असमंजस नहीं है। पूरी दुनिया को मालूम है कि चीन अद्भुत रूप से व्यावहारिक है, गरीब व पिछड़ा बना रहना उसके लिए कूटनीतिक व आर्थिक तौर पर ज्यादा माफिक है।
चमत्कारी रफ्तार
1968 में जब जापान ने तत्कालीन पश्चिम जर्मनी को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की जगह ली थी तो दुनिया चौंक गई थी। अलबत्ता इसके बाद यह मान लिया गया था कि अमेरिका व जापान ने पहली व दूसरी सीटें रिजर्व करा ली हैं। गरीब और आबादी से भरा चीन तब किसी के राडार पर नहीं था। साढ़े तीन से चार दशकों में सारी गणनाएं सर के बल खड़ी हो गई। सुधारों के पहले एक दशक में तो दुनिया यह जान ही नहीं पाई कि चीन में क्या हो रहा है। अगले एक दशक में लोगों ने चीन को समझना शुरू किया और बाद के तीसरे दशक में दुनिया दांतो तले उंगली दबाकर इसकी रफ्तार में खो गई। चीन शून्य से शिखर पर आ गया। बीते सप्ताह जब जापान की सरकार ने यह बताया कि साल की दूसरी तिमाही में जापान का जीडीपी 1.29 ट्रिलियन डॉलर रहा है, जबकि चीन का 1.36 ट्रिलियन तो दुनिया के सामने हर तरह से यह साबित हो गया कि अब अमेरिका के बाद चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश की अर्थव्यवस्था का आकार उसकी क्रय शक्ति (पर्चेजिंग पॉवर) पर आंकते हैं और चीन इस पैमाने पर जापान को एक दशक पहले ही पछाड़ चुका है। अलबत्ता दुनिया आर्थिक उत्पादन के डॉलर में मूल्यांकन को ज्यादा भरोसेमंद मानती है। इसलिए जापान के आर्थिक उत्पादन के आंकड़ों बाद लगी मुहर ज्यादा प्रामाणिक है। अब यह तय है कि साल खत्म होते-होते चीन का उत्पादन जापान से काफी आगे निकल जाएगा। अब अगर कोई महामंदी न आ धमके या बड़ी आफत न आए तो चीन अगले एक दशक से भी कम वक्त में अमेरिका को पछाड़ सबसे आगे खड़ा होगा।
असमंजस बेशुमार
आगे होने पर चीन बाग-बाग नहीं, बल्कि संजीदा है। ड्रैगन के सरकारी अखबार इस रिपोर्ट कार्ड को बहुत तवज्जो न देने की सलाह बांट रहे हैं। दरअसल चीन एक खास किस्म की उधेड़बुन में है। तेज विकास दर की चमक में चीन के अंतरविरोध भी उभर आए हैं। दुनिया अब चीन के भीतर विकास ही नहीं और भी कुछ देख रही है। हाल में जब चीन की एक बड़ी सूचना तकनीक कंपनी में वेतन न बढ़ने पर श्रमिक असंतोष बढ़ा तो पूरी दुनिया पीछे पड़ गई। 1.3 अरब लोगों वाले चीन की विसंगतियां महाकाय हैं। सरकार ने ज्यादातर संसाधन देश को औद्योगिक ताकत बनाने में झोंक दिए, जिसके कारण एक डॉलर प्रतिदिन से भी कम कमाने वाले 15 करोड़ लोगों की हालत पर नजर ही नहीं गई। 58 फीसदी आबादी गांवों में है और मानव विकास सूचकांक में चीन बहुत से छोटों से पीछे है। सिर्फ यही नहीं जापान की तर्ज पर चीन ने पर्यावरण गंवाया है और ये सभी क्षेत्र चीन में भारी निवेश मांग रहे हैं, जबकि राज्य सरकारों पर भारी कर्ज है। चतुर कामरेडों को मालूम है कि अगर दुनिया ने विकसित दर्जे में गिनना शुरू कर दिया तो यह सब कुछ ज्यादा समय तक ढंका नहीं जा सकता, इसलिए चीन विकासशील ही रहना मांगता है। अब दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा लगाए चीन को यह महसूस हो रहा है कि वह पूरी दुनिया के लिए सस्ता सप्लायर भर बनकर रह गया है। यह दर्जा भी उसने काफी कुछ गंवाकर पाया है।
दुनिया बेकरार
चाइना डेली ने सलाह दी है कि चीन को इन आंकड़ों पर इतराने के बजाय अपना प्रैक्टिकल काम करते रहना चाहिए। यकीनन चीन अपना प्रैक्टिकल काम कर रहा है और दुनिया इसे देख व जान रही है और बेचैन है। चीन का यह नया शिखर विश्व में आर्थिक संतुलन बदलने की पहली इबारत है। वित्तीय बाजार के लिए चीन बहुत बड़ी ताकत है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका के सरकारी बांडों में चीन सबसे बडा निवेशक है यानी अमेरिका ने अपने ताजा खातों में सबसे ज्यादा कर्ज चीन से ले रखा है। यूरो जोन में चीन की तूती बोलती है और अफ्रीका में उसका पैसा अभूतपूर्व कमाल दिखा रहा है। इसलिए कोई भी चीन के विकासशील होने के मुगालते में नहीं है। चीन यूं तो जिद्दी है, मगर चतुर भी। अगर बात फायदे की हो तो उसे अपनी मुद्रा अवमूल्यन करने का दबाव स्वीकारने में दिक्कत नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि चीन कूटनीतिक ताकत में अपने पूर्ववर्ती नंबर दो जापान से बहुत अलग है। दुनिया के मंचों पर चीन का जलवा दिखता है और इसके बूते वह यूरोप से लेकर अफ्रीका तक तरह-तरह से पैर फैला रहा है। चीन ने सैन्य ताकत भी मजबूत की है और दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की होड़ में लंबे हाथ मारे हैं। दुनिया की नंबर दो अर्थव्यवस्था बनने के बाद ड्रैगन का आत्मविश्वास और बढ़ गया है।
ब्रिटेन के करीब 2500 से ज्यादा छात्र मंदरिन (चीन की भाषा) सीख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षो में दुनिया में हुए कोयला, तेल, गैस व यूरेनियम के अधिकांश बड़े सौदे चीन की कंपनियों ने किए हैं और चीन की मुद्रा युआन भविष्य में नई ताकत बन सकती है यानी कि यह मानना गलत नहीं है कि दुनिया का पहिया अब चीन के इशारे पर घूम रहा है। मगर पहिए पर खुद चीन भी सवार है। पिछले तीन दशक में चीन ने उत्पादन का विशाल तंत्र खड़ा कर लिया है और दुनिया में हर पांच लोगों में एक चीन का आदमी शामिल है। अर्थात इतनी बड़ी आबादी व इस उत्पादन तंत्र के लिए दुनिया की चक्की का लगातार तेजी से चलते रहना जरूरी है, क्योंकि अगर विश्व की अर्थव्यवस्था को झटके लगे तो चीन का पहिया भी पटरी से उतर जाएगा और मेला उखड़ जाएगा। नंबर दो बनने के बाद चीन दुनिया पर शायद कुछ ज्यादा ही निर्भर हो गया है।
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Monday, August 2, 2010

मेहरबानी आपकी !

अर्थार्थ
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दस फीसदी की धार से छीलती महंगाई, महंगा होता कर्ज, अस्थिर खेती, सुस्त निवेश, चरमराता बुनियादी ढांचा और सौ जोखिम भरी वित्तीय दुनिया!!!! फिर भी अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी से ऊपर की कुलांचें? ..कुछ भी तो माफिक नहीं है, मगर गाड़ी बेधड़क दौड़े चली जा रही है। किसे श्रेय देंगे आप इस करिश्मे का? ..कहीं दूर मत जाइए, अपना हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ थपथपाइए!! यह सब आपकी मेहरबानी है। आप यानी भारतीय उपभोक्ता देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया में सबसे पहले मंदी के गर्त से बाहर खींच लाए हैं। दाद देनी होगी हिम्मत की कि इतनी महंगाई के बावजूद हम खर्च कर रहे हैं और उद्योग चहक रहे हैं। यह बात दीगर है कि इस वीरता की कीमत कहीं और वसूल हो रही है। कमाई, उत्पादन और खर्च तीनों बढ़े हैं, लेकिन आम लोगों की बचत में वृद्धि पिछले तीन-चार साल से थम सी गई है। दरअसल खर्च नही, बल्कि शायद आपकी बचत महंगाई का शिकार बनी है।
खर्च का जादू
मंदी से दूभर दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी पटरी पर लौटना हैरतअंगेज है। मांग का यह मौसम कौन लाया है? भारत तो चीन की तरह कोई बड़ा निर्यातक भी नहीं है। यहां तो निर्यात हमेशा से नकारात्मक अर्थात आयात से कम रहा है। दरअसल बाजार में ताजी मांग खालिस स्वदेशी है। माहौल बदलते ही भारत के उपभोक्ताओं ने अपने बटुए व क्रेडिट कार्ड निकाल लिये और आर्थिक विकास दर थिरकने लगी। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत में उपभोग फिर 4 से 4.5 फीसदी की गति दिखाने लगा है। खासतौर पर निजी उपभोग खर्च तो मार्च में 10.4 फीसदी पर आ गया है। इसी के बूते रिजर्व बैंक नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर की उम्मीद बांध रहा है। करीब 36 फीसदी निर्धन आबादी के बावजूद भारत का 55-60 करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग इतना खर्च कर रहा है कि अर्थव्यवस्था आराम से दौड़ जाए। भारत के बाजार में 60 फीसदी मांग अब विशुद्ध रूप से खपत से निकलती है। पिछले कुछ वर्षो में आय व खर्च में वृद्धि तकरीबन बराबर हो गई है। बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण तो बताता है कि हाल की मंदी से पहले के वर्ष (2008-09) में तो प्रति व्यक्ति खर्च, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से ज्यादा तेज दौड़ रहा था। अर्थातलोगों ने कर्ज के सहारे खर्च किया। वह दौर भी भारत में उपभोक्ता कर्जो में रिकार्ड वृद्घि का था। मैकेंजी ने एक ताजा अध्ययन में माना है कि अगले एक दशक में भारत का निजी उपभोग खर्च 1500 बिलियन डॉलर तक हो जाएगा। अर्थात खर्च का जादू जारी रहेगा।
खर्च से खुशहाल
पिछले कुछ महीनों के दौरान आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े दिलचस्प सूचनाएं बांट रहे हैं। भारत में उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन की वृद्धि दर जनवरी के तीन फीसदी से बढ़कर अप्रैल में 14.3 फीसदी हो गई। इसमें भी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक सामान आदि का उत्पादन 37 फीसदी की अचंभित करने वाली गति दिखा रहा है और सबूत दे रहा है कि बाजार में नई ग्राहकी आ पहुंची है। भारत में उपभोक्ता खर्च के कुछ हालिया (आर्थिक समीक्षा 2009-10) आंकड़े प्रमाण हैं कि उद्योग क्यों झूम रहे हैं। उपभोक्ताओं के कुल खर्च में परिवहन व संचार पर खर्च का हिस्सा पिछले कुछ वर्षो में 20 फीसदी पर पहुंच गया है। इसे आप सीधे आटोमोबाइल व संचार कंपनियों के यहां चल रहे त्यौहार से जोड़ सकते हैं। यात्रा करने पर खर्च बढ़ने की रफ्तार बीते चार वर्षो में पांच फीसदी से बढ़कर 12.3 फीसदी हो गई है। आटोमोबाइल बढ़ा तो ईधन पर खर्च भी उछल गया। मनोरंजन, चिकित्सा, शिक्षा और यहां तक कि फर्निशिंग जैसे उद्योग उपभोक्ताओं की कृपा से बाग-बाग हुए जा रहे हैं। खाने पर खर्च की वृद्धि दर घट गई है। मार्च में कुल निजी उपभोग खर्च 35.71 लाख करोड़ रुपये रहा है, लेकिन यह भारत मंं उपभोक्ता खर्च की आधी तस्वीर है। भारत के उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा खर्च असंगठित खुदरा बाजार में होता है। देश के पूर्व सांख्यिकी प्रमुख प्रनब सेन ने हाल में कहा था कि देश के कुल कारोबार में संगठित खुदरा कारोबार का हिस्सा पांच-छह फीसदी ही है, इसलिए भारत में खपत को सही तरह से आंकना मुश्किल है।
खर्च का शिकार
भयानक महंगाई और फिर भी बढ़ता खर्च? ..उलटबांसी ही तो है, क्योंकि महंगाई तो खर्च को सिकोड़ देती है। भारत में इस संदर्भ में पूरा परिदृश्य बड़ा रोचक है। यहां महंगाई ने खर्च को नहीं बचत को सिकोड़ा है। भारत में उपभोक्तावाद का ताजा दौर 2004-05 के बाद शुरू हुआ था, जब अर्थव्यवस्था ने आठ-नौ फीसदी की रफ्तार दिखाई। उस समय महंगाई की दर चार फीसदी के आसपास थी। आय बढ़ी, बाजार बढ़ा, सस्ते कर्ज मिले तो उपभोक्ताओं ने बिंदास खर्च किया। आय व खर्च का स्वर्ण युग 2008-09 के अंत तक चला। इसी वक्त महंगाई और मंदी ने अपने नख दंत दिखाए, जिससे खपत कुछ धीमी पड़ गई, लेकिन शॉपिंग की नई संस्कृति तो तब तक जम चुकी थी। इसलिए जैसे ही छठवें वेतन आयोग का तोहफा मिला, सरकारी कर्मचारी झोला उठाकर बाजार में पहुंच गए। हालात सुधरते ही बढ़े वेतन के साथ निजी नौकरियों वाले भी शॉपिंग लिस्ट लेकर निकल पड़े। महंगाई ने खर्च के उत्साह को यकीनन तोड़ा है, लेकिन खर्च को नहीं। खर्च के इस मौसम में कुर्बान तो हुई है बचत। उपभोक्तावाद की ऋतु के आने के बाद से आम लोगों की बचत पिछले पांच साल से औसत 22-23 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर स्थिर है। वित्तीय बचत भी अर्से से 10-11 फीसदी पर घूम रही है।
इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं कि महंगाई असर नहीं करती। महंगाई कम और कमजोर आय वालों का खर्च चाट गई तो मध्यम आय वर्ग की बचत उसके पेट में गई है। अलबत्ता खर्च का त्यौहार जारी है और इसलिए तमाम बाधाओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मंदी की बाजी सबसे पहले पलट दी है। चीन की कामयाबी भारी निर्यात और निवेश से निकली है, मगर भारत खपत व उपभोग की गौरव गाथा लिख रहा है, नया निवेश भी इसी उपभोग का दामन पकड़ कर आ रहा है। ..सरकार तो उपभोक्ताओं को सलाम करने से रही, लेकिन कम से कम आप तो खुद को शाबासी दे ही लीजिए.. महंगाई से जूझते हुए आपने सचमुच करिश्मा किया है।
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Monday, June 28, 2010

तौबा, तेरा सुधार !!

अर्थार्थ
चास पार का पेट्रोल और चालीस पार का डीजल खरीदते हुए कैसा लग रहा है? सुधारों की पैकिंग में कांटो भरा तोहफा। पेट्रो उत्पादों के मामले में सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई हैं। कीमतें बढ़ाते हुए हमें (सब्सिडी आंकड़ा दिखा कर) सब्सिडीखोर होने की शर्मिदगी से भर दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों की रोशनी में तेल कंपनियों की बेचारगी देखकर हम मायूस हो जाते हैं। अंतत: सुधारों का तिलक लगा कर उपभोक्ता यूं बलिदान हो जाते हैं कि मानो कोई दूसरा जिम्मेदार ही न हो। यह सरकारों का आजमाया हुआ इमोशनल अत्याचार है। वैसे चाहें तो ताजा फैसले की रोशनी में इसे पेट्रो मूल्य प्रणाली में नया सुधार भी कह सकते हैं। मगर पेट्रो उत्पादों को दुगने तिगुने टैक्स से निचोड़ती राज्य सरकारों को कुछ मत कहिए। सब्सिडी का डीजल पी रहे जेनसेटों से घरों बाजारों को चमकने दीजिए, बिजली की कमी की शिकायत मत कीजिए। सार्वजनिक परिवहन की मांग मत करिए, क्या ऑटो कंपनियों की प्रगति से जलते हैं? यह सब सुधार के एजेंडे में नहीं आते हैं। ताजा सुधार तेल कंपनियों को सिर्फ पेट्रोल की कीमत तय करने की आजादी देता है। डीजल को लेकर रहस्य और केरोसिन व एलपीजी पर सब्सिडी कायम है। साथ ही सियासत के दखल का शाश्वत रास्ता भी खुला है, जिसके कारण पेट्रो मूल्य प्रणाली में सुधारों का इतिहास बुरी तरह दागदार रहा है।
मांग के बदले महंगाई
मांग तलाश रही अर्थव्यवस्था को सरकार ने महंगाई व ऊंची लागत थमा दी है। नीति निर्माता इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही महंगाई बनाम तेज विकास बनाम घाटे की तितरफा ऊहापोह में घिरे हैं। अब बारी बाजार व निवेशकों के भ्रमित होने की है। महंगे पेट्रो उत्पादों के बाद आने वाले महीनों में मांग बढ़ते रहने की कोई गारंटी नहीं है। अर्थव्यवस्था की हालिया चमक की मजबूती पर दांव लगाना अब जोखिम भरा है। आखिर मंदी से घायल व महंगाई से लदी अर्थव्यवस्था पेट्रो कीमतों की टंगड़ी फंसने के बाद कितना तेज चल पाएगी? बाजार को दिखने लगा है कि खेत से लेकर फैक्ट्री तक पहले से फैली महंगाई मांग को समूचा निगल जाएगी। कच्चे तेल की वायदा कीमतें आने वाले वक्त में पेट्रो उत्पाद और महंगे होने का वादा कर रही हैं। तभी तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के कागज पत्तर संभालने लगा है। मुद्रास्फीति की आग पर उसे पानी डालना है। चीन के नए मौद्रिक दांव से अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमत बढ़ने वाली है। महंगा ईधन, महंगी पूंजी या कर्ज और महंगा कच्चा माल। महंगाई की मारी और मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को फिलहाल ऐसे सुधार की दरकार नहीं थी।
साफ सियासत, रहस्यमय फार्मूले

कल्पना कीजिए, बिहार (अक्टूबर 2010) या बंगाल (मई 2011) में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। तभी ईरान को अमेरिका अचानक परमाणु कार्यक्रम का नया पिन चुभो देता है या फिर इजरायल हाल के फ्लोटिला हमले जैसी कोई कारगुजारी कर बैठता है। दुनिया में तेल की कीमतें सातवें आसमान पर हैं, तब क्या होगा? सरकार तेल कंपनियों से कीमतें तय करने की आजादी तत्काल छीन लेगी। पेट्रो मूल्य प्रणाली के ताजा क्रांतिकारी सुधार में यह प्रावधान शामिल है। यही पेंच पेट्रो मूल्य ढांचे में सुधारों की साख को हमेशा से दागी करते हैं। 2002 में भी सरकार ने पेट्रो मूल्यों के नियंत्रण से तौबा की थी। बजट में ऐलान हुआ भी था लेकिन कीमतें सरकार की जकड़ से कभी आजाद नहीं हुई। बस केरोसिन व एलपीजी का घाटा तेल पूल खाते की जगह बजट में पहुंच गया। सुधारों के नए कार्यक्रम में भी सरकार के हस्तक्षेप की जगह और राजनीतिक ईधनों यानी डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों में पुराना असमंजस बरकरार है। कीमतें कब कैसे कितनी बढ़ेंगी या सरकार कब किस मौके पर कैसे दखल देगी, इसके फार्मूले रहस्य के रवायती आवरण में हैं। ऐसी सूरत में सुधारों पर भरोसा जरा मुश्किल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सुधार की रोशनी राज्यों के टैक्स ढांचे तक नहीं पहुंचती जो पेट्रो उत्पादों की कीमत दोगुनी कर देते हैं। महंगी कारों में सस्ते ईधन के खेल, तेल कंपनियों की दक्षता, केरोसिन व डीजल की मिलावट के अर्थशास्त्र, संरक्षण की कोशिशों और वैकल्पिक ईधनों की जरूरत जैसे मुद्दों की तरफ भी सुधारों की नजर नहीं जाती। पेट्रो मूल्यों में सुधार का मतलब सियासत के हिसाब से कीमतों में कतर ब्योंत है बस। और इस पैमाने पर यह वक्त सबसे मुफीद था।
बाजार बदला, पैमाने नहीं
सरकार का सस्ता डीजल कहां खप रहा है? सबको पता है कि सस्ता केरोसिन देश में किस काम आता है? पिछले बीस साल में इस देश में ईधन की खपत का पूरा ढांचा बदल गया मगर सरकार के पैमाने नहीं बदले। बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं में कई बुनियादी खामियों की कीमत पेट्रो उत्पाद चुकाते हैं। डीजल दुनिया के लिए ट्रांसपोर्ट फ्यूल है मगर भारत में यह एनर्जी फ्यूल भी है। आवासीय भवनों व शॉपिंग मॉल को रोशन करने वाले दैत्याकार किलोवाटी जनरेटर बिजली कमी से उपजे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक अब जरूरत की तिहाई रोशनी डीजल से निकलती है। नए उद्योग सरकारी बिजली भरोसे नहीं बल्कि सस्ते डीजल की बिजली भरोसे आते हैं। पिछले चार साल में डीजल 30 से 40 रुपये प्रति लीटर हो गया लेकिन डीजल की मांग करीब नौ फीसदी सालाना की रिकार्ड दर से बढ़ रही है। देश के ज्यादातर शहर सार्वजनिक परिवहन के मामले में आदिम युग में हैं मगर ऑटो कंपनियां वक्त को पछाड़ रही हैं। कामकाजी आबादी से भरे शहर निजी वाहनों से अटे पड़े हैं और पेट्रोल की मांग 14 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। बावजूद इसके पेट्रोल चार साल में 43 से 50 रुपये लीटर पर पहुंच गया। सस्ते डीजल और सस्ती बिजली दोनों की तोहमत खेती के नाम है लेकिन खेती में सिंचाई के फिर भी लाले हैं। दरअसल, बढ़ती अर्थव्यवस्था और कमाई ने बिजली, परिवहन सुविधाओं की कमी का इलाज सस्ते पेट्रो उत्पादों में खोज लिया है। इसलिए कीमत बढ़ने से मांग घटने का सिद्धांत यहां सिर के बल खड़ा है।
सरकार ठीक कहती है कि पेट्रो उत्पादों की महंगाई के मामले हम अभी सिंगापुर व थाईलैंड के करीब ही पहुंचे हैं। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तो बहुत आगे हैं। यह भी सच है कि अरब के कुओं, मैक्सिको की खाड़ी और नार्वे के समुद्र से निकला तेल कीमत के मामले में उपभोक्ताओं के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन जरा ठहरिये.. सरकारें चाहें तो फर्क पैदा कर सकती हैं क्योंकि ईधन के मूल्य महंगाई, जनता की आय और अर्थव्यवस्था की स्थिति देखकर ही तय होते हैं। मगर यहां तो सियासत का फार्मूला सब पर भारी है। अब छोड़ भी दीजिये, महंगाई से राहत की उम्मीद का दामन। बेनियाज और बेफिक्र सरकार ने एक नया धारदार सुधार आप पर लाद दिया है। इसलिए .. जोर लगा के हईशा!

बेनियाजी हद से गुजरी, बंदा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमायेंगे क्या
(गालिब )
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Monday, June 21, 2010

मांग के कंधे पर बैठी महंगाई

अर्थार्थ
कदम रुके थे, पैर में बंधा पत्थर तो जस का तस था। महंगाई गई कहां थी? अर्थव्यवस्था मंदी से निढाल होकर बैठ गई थी इसलिए महंगाई का बोझ बिसर गया था। कदम फिर बढ़े हैं तो महंगाई टांग खींचने लगी है। मुद्रास्फीति का प्रेत नई ताकत जुटा कर लौट आया है। मंदी के छोटे से ब्रेक के बीच महंगाई और जिद्दी, जटिल व व्यापक हो गई है। यह खेत व मंडियों से निकल कर फैक्ट्री व मॉल्स तक फैल गई है। मानसून का टोटका इस पर असर नहीं करता। gमौद्रिक जोड़ जुगत इसके सामने बेमानी है। महंगाई ने मांग में बढ़ोतरी से ताकत लेना सीख लिया है। तेज आर्थिक विकास अब इसे कंधे पर उठाए घूमता है। भारत में आर्थिक मंदी का अंधेरा छंट रहा है। उत्पादन के आंकड़े अच्छी खबरें ला रहे हैं लेकिन नामुराद महंगाई इस उजाले को दागदार बनाने के लिए फिर तैयार है।
लंबे हाथ और पैने दांत
महंगाई अब खेत खलिहान से निकलने वाले खाद्य उत्पादों की बपौती नहीं रही। बीते छह माह में यह उद्योगों तक फैल गई है यानी आर्थिक जबान में जनरलाइज्ड इन्फलेशन। महंगाई मौसमी मेहमान वाली भूमिका छोड़कर घर जमाई वाली भूमिका में आ गई है। उत्पादन का हर क्षेत्र इसके असर में है। कुछ ताजे आंकड़ों की रोशनी में महंगाई के इस नए चेहरे को पहचाना जा सकता है। पिछले साल दिसंबर तक भारत में महंगाई खाद्य उत्पादों की टोकरी तक सीमित थी। गैर खाद्य उत्पाद महज दो ढाई फीसदी की मुद्रास्फीति दिखा रहे थे लेकिन अब सूरत बदल गई है। गैर खाद्य और गैर ईधन (पेट्रोल डीजल) उत्पादों में भी मुद्रास्फीति 8 फीसदी से ऊपर निकल गई है। खाद्य उत्पादों में तो पहले से 11-12 फीसदी की मुद्रास्फीति है। खासतौर पर लोहा व स्टील, कपड़ा, रसायन व लकड़ी उत्पाद के वर्गो में कीमतों में अभूतपूर्व उछाल आया है। यह सभी क्षेत्र कई उद्योगों को कच्चा माल देते हैं इसलिए महंगाई का इन्फेक्शन फैलना तय है। यह महंगाई का नया व जिद्दी चरित्र है। बजट में कर रियायतें वापस हुई तो कीमतें बढ़ाने को तैयार बैठे उद्योगों को बहाना मिल गया। महंगाई का फैक्ट्रियों (मैन्यूफैक्चर्ड उत्पादों) में घर बनाना बेहद खतरनाक है। तभी तो रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ने को लेकर मुतमइन है। बाजार मान रहा है कि थोक कीमतों वाली महंगाई दहाई के अंकों का चोला फिर पहन सकती है, फुटकर कीमतों की मुद्रास्फीति तो पहले से ही दहाई में हैं। मैन्यूफैक्चर्ड और खाद्य उत्पादों की कीमतें साथ-साथ बढ़ने का मतलब है कि महंगाई के हाथ लंबे और दांत पैने हो गए हैं।
इलाज नहीं खुराक
महंगाई अब मांग के पंखों पर सवारी कर रही है। याद करें कि दो साल पहले 2007-08 की तीसरी तिमाही में जब मुद्रास्फीति ने अपना आमद दर्ज की थी तब भी भारत में आर्थिक विकास दर तेज थी और महंगाई बढ़ने की वजह मांग का बढ़ना बताया गया था। बात घूम कर फिर वहीं आ पहुंची है। आर्थिक वृद्घि का तेज घूमता पहिया महंगाई को उछालने लगा है जबकि आपूर्ति के सहारे महंगाई घटाने की गणित फेल हो गई है। अंतरराष्ट्रीय कारकों के मत्थे तोहमत मढ़ना भी अब नाइंसाफी है। ताजी मंदी के बाद से पिछले कुछ माह में पूरे विश्व के बाजारों में जिंसों यानी कमोडिटीज की कीमतें गिरी हैं लेकिन भारत में कीमतें बढ़ रही हैं। माना कि पिछली खरीफ को सूखा निगल गया था लेकिन रबी तो अच्छी गई। रबी में गेहूं की पैदावार 2009 के रिकॉर्ड उत्पादन 80.68 मिलियन टन से ज्यादा करीब 81 मिलियन टन रही। सरकार ने कहा कि इससे खरीफ का घाटा पूरा हो गया है मगर महंगाई वैसे ही नोचती रही। अंतत: सरकार ने पैंतरा बदला और अब खरीफ पर उम्मीदें टिका दीं। मानसून का आसरा देखा जाने लगा है। दरअसल आर्थिक विकास के पलटी खाते ही मांग बढ़ी है जिसने पूरा गणित उलट दिया। आपूर्ति बढ़ने से महंगाई कुछ हिचकती इससे पहले उसे मांग ने नए सिरे से उकसा दिया है।
सारे तीर अंधेरे में

महंगाई को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के सारे तीर दरअसल अंधेरे में चलते रहे हैं इसलिए महंगाई का इलाज करने के जिम्मेदार भी अब अटकल और अंदाज के सहारे हैं। आंकड़ों में अगर कमी दिखी तो सरकार ने भी ताली बजाई और अगर आंकड़े ने कीमतें बढ़ती बताईं तो सरकार ने भी चिंता की मुद्रा बनाई। सरकार के ं महंगाई नियंत्रण कार्यक्रम में अगला टारगेट दिसंबर है और मानसून ताजा बहाना है। हालांकि अच्छी खरीफ महंगाई का इलाज शायद ही करे। दरअसल पिछले चार फसली मौसमों से जारी महंगाई ने कृषि उपज के बाजार में मूल्य वृद्घि की नींव खोद कर जमा दिया है। खरीफ का समर्थन मूल्य बढ़ाना सियासी मजबूरी थी इसलिए खरीफ में पैदावार के महंगे होने का माहौल पहले से तैयार है। इधर अर्थव्यवस्था में आमतौर पर मांग बढ़ने के साथ ही रबी की बेहतर फसल ने ग्रामीण क्षेत्र में भी उपभोग खर्च बढ़ा दिया है। तभी तो रबी की फसल आते ही उपभोक्ता उत्पादों व दोपहिया वाहनों का बाजार अचानक झूम उठा है। यानी कि अगर बादल कायदे से बरसे तो भी खरीफ की अच्छी फसल महंगाई को डरा नहीं सकेगी। इसके बाद बचती है रिजर्व बैंक की मौद्रिक कीमियागिरी। तो इस मोर्चे पर दिलचस्प उलझने हैं। मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को सस्ते कर्ज का प्रोत्साहन चाहिए और सरकारी उपक्रमों व निजी कंपनियों की ताजी इक्विटी खरीदने के लिए बाजार को भरपूर पैसा चाहिए। इधर यूरोप के बाजारों से जले निवेशक डॉलर यूरो लेकर भारत की तरफ दौड़ रहे हैं। उनके डॉलर आएंगे तो बदले में रुपया बाजार में जाएगा। इसलिए रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव का इशारा समझिये। वह बाजार और उद्योग की नहीं सुनने वाले। उन्हें मालूम है कि बाजार में इस समय पैसा बढ़ाना महंगाई को लाल कपड़ा दिखाना है। अर्थात कर्ज महंगा होकर रहेगा और महंगा कर्ज उद्योगों की लागत बढ़ाकर महंगाई के नाखून और धारदार करेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था ने मंदी की मारी दुनिया में सबसे पहले विकास की अंगड़ाई ली है। अर्थव्यवस्था में कई मोर्चो पर सुखद रोशनी फूट पड़ी है। आर्थिक उत्पादन के ताजे आंकड़े उत्साह भर रहे हैं तो सरकारी घाटे को कम करने के सभी दांव (थ्रीजी व ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की बिक्री और विनिवेश) भी बिल्कुल सही पड़े हैं। रबी के मौसम में खेतों से भी अच्छे समाचार आए हैं और मानसून आशा बंधा रहा है। लेकिन महंगाई इस पूरे उत्सव में विघ्न डालने को तैयार है। और जिस अर्थव्यवस्था में महंगाई मेहमान की जगह मेजबान यानी कि मौसमी की जगह स्थायी हो जाए वहां कोई भी उजाला टिकाऊ नहीं हो सकता। क्योंकि महंगाई का अंधेरा अंतत: हर रोशनी को निगल जाता है।

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Tuesday, March 16, 2010

ढूंढो तो, बुनियाद कहां है?

अभी तो नौ की तैयारी . पर जल्दी ही दस की बारी.. याद कीजिये, कुछ ऐसा ही तो अंदाज था वित्त मंत्री का बजट भाषण के दौरान। मगर जब वित्त मंत्री नौ और दस फीसदी की विकास दर का रंगीन सपना बुन रहे थे ठीक उसी समय सरकार के आंकड़ा भंडार से विकास दर के ताजे आंकड़े निकल रहे थे, जिनके मुताबिक दिसंबर में खत्म तिमाही में विकास दर तेज गोता खा गई थी। वित्त मंत्री का विकास उवाच, महंगाई पर शोर करते विपक्ष की आवाजों के बीच संसद की गोल दीवारों में खो गया मगर विकास दर का गिरने का आंकड़ा रिकार्ड में पुख्ता हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि आर्थिक विकास मांग, निवेश और कर्ज या पूंजी से मिलकर बनी खुराक से बढ़ता है और खुद सरकार के तथ्य यह बता रहे हैं कि मौजूदा सूरते हाल में इस खुराक का कोई जुगाड़ नहंी है। यानी कि नौ दस वाली बात भरी दोपहर की झपकी वाला सपना है, जिसमें किले कंगूरे तो दिखते हैं मगर कमबख्त बुनियाद नजर नहीं आती।
वो मांग कहां से लाएं?
महंगाई में मांग?.. बात ही बेतुकी है लेकिन हम हैं कि नौ फीसदी विकास दर की बारात के लिए सज रहे हैं। सत्रह अठारह फीसदी की दर वाली महंगाई से रोज की छीन झपट के बाद किसमें इतना दम बचता है कि वह कुछ और खरीदने की सोचे। इसलिए ही तो मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की दर पर उछल रही विकास दर तीसरी तिमाही में छह फीसदी पर निढाल हो गई। ठीक यही वक्त था जब खरीफ के सूखे ने महंगाई को नये तेवर दिये थे। अर्थात मंदी से उबरने के बाद बाजार में जो उत्साह दिखा था उस पर जल्द ही टनों महंगाई पड़ गई। महंगाई हमेशा मांग की बड़ी दुश्मन रही है और हालत तब और बुरी हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि मांग को बढ़ावा देने वाले बुनियादी कारक भी बदहाल हैं। यहां आंकड़ों की रोशनी जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर 5.3 फीसदी और प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च की दर केवल 2.7 फीसदी? शायद बढ़ी हुई आय महंगाई खा गई? क्योंकि यह आंकड़ा महंगाई यानी वर्तमान बाजार मूल्य को शामिल नहीं करता। सिर्फ यही नहीं आर्थिक विकास दर को अगर मांग के नजरिये से पढ़ें तो सरकारी दस्तावेजों में और भी हैरतअंगेज आंकड़े चमकते हैं। पिछले तीन चार वर्षो में करीब नौ फीसदी की वृद्घि दर दिखा रहा निजी उपभोग अचानक 2009-10 में घटकर चार फीसदी रह गया है जबकि सरकार उपभोग खर्च की वृद्घि दर 16 से आठ फीसदी पर आ गई है। यानी एक तो पहले से मांग कम और ऊपर से महंगाई का ढक्कन। इसके बाद तेज विकास दर की उम्मीद कुछ हजम नहीं होती।
जो निवेश को लुभाये
बाजार में मांग का नृत्य निवेश को लुभाता है। मंदी आई तो सबसे पहले यह उत्सव बंद हुआ। उद्योगों ने अपनी जेब कस कर दबा ली। पिछले करीब डेढ़ साल में देश में नया निवेश अचानक तलहटी पर आ गया है। आंकड़ों की मदद लें तो दिखेगा कि 2008-09 तक देश में नया निवेश करीब 16 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन मंदी की धमक के साथ यह घटकर शून्य से नीचे -2.4 आ गया। आंकड़ों के और भीतर उतरें तो दिखेगा कि नए निवेश का झंडा लेकर चलने वाला उद्योग क्षेत्र तो मानो निढाल है। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश 2007-08 तक 19.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन अब शून्य से नीचे 21 फीसदी गिर गया। गिरावट केवल बड़ी इकाइयों तक ही सीमित नहीं है, असंगठित औद्योगिक क्षेत्र के निवेश में यह गिरावट -42 फीसदी तक है। सिर्फ दूरसंचार क्षेत्र को छोड़कर सभी सेवाओं में निवेश घटा है। यह गिरावट हर पैमाने पर बहुत बड़ी है। मांग की कमी उद्योगों का भरोसा तोड़ती है और उसे लौटाने के लिए बाजार में मांग बढ़ने के ठोस संकेत चाहिए और चाहिए सस्ती पूंजी। यह खुराक मिलने में अभी वक्त लगेगा यानी कि तेज विकास की उम्मीद को साधने के लिए निवेश की बुनियाद भी नहीं है।
मगर पूंजी महंगी होती जाए
पूंजी सस्ती हो तो निवेशक लंबे समय की उड़ान भरते हैं यानी कि मांग की उम्मीद में जोखिम उठा लेते हैं लेकिन इस पहलू पर गहरी निराशा है। दरअसल उद्योग अपने बचत और मुनाफे को भी लगाने के मूड में नहीं हैं। आंकड़े यह कलई कायदे से खोलते हैं। 2008-09 में निजी क्षेत्र में बचत की दर जीडीपी के अनुपात में 31.1 फीसदी रही जबकि निवेश की दर केवल 24.9 फीसदी। यानी कि उद्योग अपनी बचत और मुनाफे को रोक कर अभी इंतजार करेंगे। पूंजी के दूसरे स्रोत यानी कर्ज और बाजार मदद नहीं करते बल्कि मुश्किल बढ़ाते हैं। महंगाई से डरा रिजर्व बैंक ठीक उस समय सस्ते कर्ज की दुकाने बंद कर रहा है जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। जनवरी में आए नए मौद्रिक उपायों के बाद ब्याज दर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और अप्रैल की शुरुआत में जब उद्योग अपने नए बहीखाते खोल रहे होंगे और निवेश की योजनायें बना रहें होंगे तब बैंकों की ब्याज दर उन्हें निवेश से दूर भगा रही होगी। बल्कि हो सकता है कि उद्योगों की चिंता अपने पुराने कर्ज हों जिन पर बढ़ी हुई ब्याज दर का असर होने वाला है। पूंजी बाजार से पैसे उठाकर नया निवेश करना सबके बस का नहीं है लेकिन जिनके बस का है वह भी सरकारी नवरत्नों को मिले कौडि़यों के भाव यानी सरकारी कंपनियों के आईपीओ की विफलता देखकर आगे आने की हिम्मत नहीं जुटायेंगे।
वित्त मंत्री के साहसी आशावादिता आश्चर्यजनक है, क्योंकि हकीकत, उनके सपनों से बिल्कुल उलटी है। अगर अर्थव्यवस्था को मंदी की गर्त से उचक कर बाहर आना है तो उसे मांग की सीढ़ी, निवेश की रोशनी और पूंजी का सहारा चाहिए। मगर इस समय यह तीनों ही उपलब्ध नहीं हैं। विकास के नौ-दस फीसदी वाले खूबसूरत नृत्य के लिए मांग, पूंजी व निवेश का नौ मन तेल जुटने में अभी एक से डेढ़ साल लग जाएंगे। तब तक वित्त मंत्री से मिली उम्मीदों को इन्ज्वाय कीजिये, महंगाई के चुभन के बीच यह सपने कुछ राहत देंगे। रही बात हकीकत की तो अभी विकास दर के लिए 6 से सात फीसदी की मंजिल ही मुमकिन और भरोसेमंद दिखती है। अलबत्ता यह बात पूरी तरह सच है कि गरीबी हटाने या आय को निर्णायक ढंग से बढ़ाने की क्रांति छह सात फीसदी के विकास दर से नहीं हो सकती। इससे कुछ अमीर, और ज्यादा अमीर हो जाएंगे बस... पिछले दो दशकों का यही तजुर्बा है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, January 18, 2010

वेताल फिर डाल पर!

भारत में आर्थिक मंदी दुनिया की मार थी या अपनी महंगाई व अपनी ही नीतियों का उपहार? उद्योगों को प्रोत्साहन देने का तुक तर्क क्या था? मंदी का डर दिखाकर उद्योगों ने जो सरकार से झटक लिया उसमें उन्होंने आम उपभोक्ताओं को क्या बांटा? प्रोत्साहन की जरूरत दरअसल किसे थी और टानिक किसे पिला दी गई?.... वक्त का वेताल फिर डाल पर है और अजीबोगरीब व बुनियादी किस्म के सवाल कर रहा है? अर्थव्यवस्था का पहिया घूम कर 2007-08 के बिंदु पर आ गया है, बल्कि चुनौतियां कुछ ज्यादा ही उलझी हैं। ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं, मांग बढ़े या न बढ़े उत्पादन की लागत का बढ़ना तय है, महंगाई पहले से ज्यादा ठसक के साथ मौजूद है, जबकि घाटे से हलकान सरकार के सामने कर बढ़ाने और खर्च घटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए चलिये भूले बिसरे आंकड़ों की गुल्लक फोड़ें और मंदी व उद्योगों की रियायतों को लेकर लामबंदी के दावों को निचोड़ें।.. हकीकत दरअसल आल इज वेल के दावों से बिल्कुल उलटी है।
दिमाग पर जोर डालिये
2007-08 की पहली तिमाही याद करिये। ठीक इसी समय से भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट की शुरुआत हुई थी। दुनिया में उस वक्त मंदी की चर्चा भी नहीं थी। मत भूलिये कि अप्रैल 2007 में पहली बार रिजर्व बैंक ने सीआरआर दर बढ़ाई थी क्योंकि तब महंगाई आठ फीसदी का स्तर छू रही थी और सरकार की सांस ऊपर नीचे हो रही थी। कोई कैसे भूल सकता है दो साल पहले इसी वक्त चल रही उस बहस को, जिसमें रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय यह मानने लगे थे कि अर्थव्यवस्था ओवरहीट हो रही है, यानी कि कुछ ज्यादा ही तेज गति से दौड़ रही है और महंगाई बाजार में बढ़ रही अप्रत्याशित मांग का नतीजा है। मांग पर ढक्कन लगाने की चर्चायें नीतिगत समर्थन पाने लगी थीं और नतीजतन रिजर्व बैंक ने लगातार सीआरआर बढ़ाई और 2007-08 की चौथी तिमाही (औद्योगिक विकास दर पहली तिमाही के दस फीसदी से घटकर चौथी तिमाही में 6.3 फीसदी पर) से भारत में आर्थिक मंदी शुरू हो गई। यह बात हजम करना जरा मुश्किल है कि भारत में मंदी दुनिया की मंदी की देन है। लेहमैन की बर्बादी सितंबर 2008 की घटना है, जिसका असर वित्तीय बाजारों पर हुआ था। भारत में आर्थिक फिसलन तो इससे कई महीने पहले शुरू हो गई थी। अगर मंदी ने किसी को मारा था तो वह निर्यात (वह भी दिसंबर 2008 के बाद। दिसंबर तक निर्यात 17 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा था) का क्षेत्र था। मंदी के नाम पर रियायतों की लामबंदी करने वाले उद्योग यह भूल जाते हैं कि कुल आर्थिक उत्पादन में निर्यात का हिस्सा बहुत छोटा है, अधिकांश मांग तो देशी बाजार से आती है। भारत में दरअसल मंदी दुनिया से पहले आई और वह भी इसलिए क्योंकि महंगाई ने मांग का दम घोंट दिया था। बाद में बची खुची कसर ब्याज दरों ने पूरी कर दी।
इलाज, जो बन गया खुराक?
चलिये अब स्टिमुलस यानी मंदी से उबरने के लिए प्रोत्साहनों की बहस को भी कुछ तथ्यों के आईने में उतारा जाए। उद्योग जिन कर रियायतों को जारी रखने का झंडा उठाये हैं वह हकीकत में महंगाई का इलाज थीं। मंदी हटाने की खुराक नहीं। सरकार ने कभी नहीं माना कि भारत मंदी का शिकार है। पिछले साल के अंतरिम बजट भाषण में आदरणीय वित्त मंत्री के शब्द थे, 'भारत की अर्थव्यवस्था 7.1 फीसदी की वृद्घि दर के साथ अभी भी दुनिया की दूसरी सबसे तेज अर्थव्यवस्था है।' संसद में पेश सरकारी आर्थिक समीक्षा कहती है कि भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट सख्त मौद्रिक नीतियों की देन थी। इसलिए प्रोत्साहन भी मंदी दूर करने के लिए दिये ही नहीं गए थे। प्रोत्साहनों का दौर नवंबर 2008 से शुरू हुआ और वह भी महंगाई घटाने के लिए। सरकार ने एक मुश्त कई कृषि जिंसों के आयात पर शुल्क हटाये और घरेलू उत्पादन पर करों में रियायत दी। यह सब चुनाव सामने देख कर किया गया था। रही बात खर्च बढ़ाने की तो वह प्रोत्साहन चुनावी संभावनाओं के लिए था। खर्च बढ़ाने के पैकेज वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल, किसानों की कर्ज माफी और सब्सिडी में वृद्घि से बने थे। जिनका मंदी से सीधा कोई लेना देना नहीं था। सच तो यह है कि देश को पलट कर उद्योगों से पूछना चाहिए कि उन्होंने महंगाई को कम करने में क्या भूमिका निभाई? किस रियायत को उन्होंने उपभोक्ताओं से बांटा? सच यह है कि महंगाई घटाने के लिए मिली कर रियायतों को उद्योगों ने सफाई के साथ मंदी दूर करने से जोड़ दिया और सारा प्रोत्साहन पी गए। महंगाई जस की तस रही। औद्योगिक उत्पादन दरअसल इन रियायतों की वजह से पटरी पर नहीं लौटा है बल्कि वापसी तब शुरू हुई जब बाजार में रुपये का प्रवाह बढ़ा। अगस्त 2008 में रिजर्व बैंक ने सख्त मौद्रिक नीति की जिद छोड़ी और सीआरआर व रेपो रेट कम करना शुरू किया। यह कदम उठाने के ठीक एक साल 2009-10 की दूसरी तिमाही से उत्पादन पटरी पर आया है। .. मगर विसंगति देखिये कि अब बारी ब्याज दर फिर बढ़ने की है क्योंकि रिजर्व बैंक को फिर 2007-08 की तरह ब्याज दरें बढ़ाकर और कर्ज की मांग घटाकर महंगाई पर काबू करना है।
बीमार कौन और दवा किसको?
भारत में मंदी की शुरुआत अर्थात अप्रैल 2007 और हाल की उम्मीद भरी वापसी सितंबर 2009 के बीच दो कारक स्थिर रहे हैं। एक है महंगाई और दूसरी मांग में कमी। बदली है तो सिर्फ रिजर्व बैंक की मौद्रिक मुद्रायें और सरकार के असमंजस के रंग। महंगाई में वृद्घि और मांग में कमी का सीधा रिश्ता है। अप्रैल 2007 में खाद्य जिंसों व उत्पादों की महंगाई 9.4 फीसदी पर थी, अप्रैल 2008 में यह 10.7 फीसदी हो गई और पिछले सप्ताह के आंकड़ों में यह 18 फीसदी है। यानी कि महंगाई लगातार बढ़ी और मांग टूटती गई है। औद्योगिक उत्पादन में ताजे सुधार की जमीन इस तथ्य की रोशनी में खोखली दिखती है। औद्योगिक उत्पादन में यह वृद्घि हालात सुधरने की उम्मीदों और सस्ते कर्ज के सहारे आए नए निवेश की देन है, इसे बाजार में ताजी मांग का समर्थन हासिल नहीं है। प्रोत्साहन, खुराक या इलाज की जरूरत खेती को थी जहां से महंगाई पैदा हो रही है और लेागों की क्रय शक्ति व मांग को खा रही है। जबकि मंदी से मारे जाने का सबसे ज्यादा स्यापा उद्योगों ने किया और रियायतें ले उड़े। ताजा हालात में उद्योगों की एक खुराक रिजर्व बैंक के पास है अर्थात सस्ता कर्ज और दूसरी बाजार के पास अर्थात मांग में सुधार। रिजर्व बैंक सस्ते कर्जो का शटर गिराने वाला है, जबकि मांग की दुश्मन महंगाई बाजार का रास्ता घेरे बैठी है। यानी दोनों जगह मामला गड़बड़ है। ऐसे में अगर सरकार कर रियायतें देती भी रहे तो उसका कोई बड़ा फायदा नहीं होने वाला।
पिछले तीन साल के आंकड़े और तथ्य किस्म-किस्म के सवाल पूछ रहे हैं। कठघरे में उद्योग भी हैं, सरकार भी और रिजर्व बैंक भी। नीतियों को लेकर गजब का भ्रम और जबर्दस्त अफरा-तफरी है। रिजर्व बैंक मानता है कि इस महंगाई का इलाज मौद्रिक सख्ती से नहीं हो सकता मगर फिर भी वह ब्याज दरें बढ़ाकर मंदी से उबरने की कोशिशों का दम घोंटने की तैयारी कर रहा है। सरकार तो अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि पहले वह मंदी का इलाज करे या महंगाई का या फिर बढ़ते घाटे का। तीनों का इलाज एक साथ मुमकिन नहीं है क्योंकि एक की दवा दूसरे के लिए कुपथ्य है। घाटा कम करने के लिए खर्च घटाना और कर बढ़ाना जरूरी है, लेकन इससे मंदी को अगर खुराक मिलने का खतरा है, वहीं दूसरी तरफ घाटा इसी तरह बढ़ा तो भी आर्थिक दुनिया नहीं छोड़ेगी। रही बात महंगाई की तो वहां सरकार पहले से थकी-हारी और पस्त व निढाल होकर वक्त के आसरे है।..दस के बरस का बजट हाल के वर्षो में सबसे गहरे असमंजस का बजट है। .. इक तो रस्ता है पुरखतर अपना, उस पे गाफिल है राहबर अपना। .. खुदा खैर करे।
और अन्‍यर्थ ( the other meaning ) के लिए स्‍वागत है
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