अपनी गलतियों पर हम जुर्माना भरते हैं लेकिन जब सरकारें गलती करती हैं तो हम टैक्स चुकाते हैं. इसलिए तो हम टैक्स देते नहीं, वे दरअसल हमसे टैक्स ‘वसूलते’ हैं. रोनाल्ड रीगन ठीक कहते थे कि लोग तो भरपूर टैक्स चुकाते हैं, हमारी सरकारें ही फिजूल खर्च हैं.
नए टैक्स और महंगी सरकारी सेवाओं के एक नए दौर से हमारी मुलाकात होने वाली है. भले ही हमारी सामान्य आर्थिक समझ इस तथ्य से बगावत करे कि मंदी और कमजोर खपत में नए टैक्स कौन लगाता है लेकिन सरकारें अपने घटिया आर्थिक प्रबंधन का हर्जाना टैक्स थोप कर ही वसूलती हैं.
सरकारी खजानों का सूरत-ए-हाल टैक्स बढ़ाने और महंगी सेवाओं के नश्तरों के लिए माहौल बना चुका है.
· राजस्व महकमा चाहता है कि इनकम टैक्स व जीएसटी की उगाही में कमी और आर्थिक विकास दर में गिरावट के बाद इस वित्त वर्ष (2020) कर संग्रह का लक्ष्य घटाया जाए.
· घाटा छिपाने की कोशिश में बजट प्रबंधन की कलई खुल गई है. सीएजी ने पाया कि कई खर्च (ग्रामीण विकास, बुनियादी ढांचा, खाद्य सब्सिडी) बजट घाटे में शामिल नहीं किए गए. पेट्रोलियम, सड़क, रेलवे, बिजली, खाद्य निगम के कर्ज भी आंकड़ों में छिपाए गए. राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.7 फीसद है, 3.3 फीसद नहीं! नई वित्त मंत्री घाटे का यह सच छिपा नहीं सकतीं. बजट में कर्ज जुटाने का लक्ष्य हकीकत को नुमायां कर देगा.
· सरकार को पिछले साल आखिरी तिमाही में खर्च काटना पड़ा. नई स्कीमें तो दूर, कम कमाई और घाटे के कारण मौजूदा कार्यक्रमों पर बन आई है.
· हर तरह से बेजार, जीएसटी अब सरकार का सबसे बड़ा सिर दर्द है. केंद्र ने इस नई व्यवस्था से राज्यों को होने वाले घाटे की भरपाई की जिम्मेदारी ली है, जो बढ़ती ही जा रही है.
सरकारें हमेशा दो ही तरह से संसाधन जुटा सकती हैं—एक टैक्स और दूसरा (बैंकों से) कर्ज. मोदी सरकार का छठा बजट संसाधनों के सूखे के बीच बन रहा है. बचतों में कमी और बकाया कर्ज से दबे, पूंजी वंचित बैंक भी अब सरकार को कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं.
इसलिए नए टैक्सों पर धार रखी जा रही है. इनमें कौन-सा इस्तेमाल होगा या कितना गहरा काटेगा, यह बात जुलाई के पहले सप्ताह में पता चलेगी.
▪ चौतरफा उदासी के बीच भी चहकता शेयर बाजार वित्त मंत्रियों का मनपसंद शिकार है. पिछले बजट को मिलाकर, शेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शन, शॉर्ट टर्म कैपिटल गेंस, लांग टर्म कैपिटल गेंस, लाभांश वितरण और जीएसटी) टैक्स लगे हैं. इस बार यह चाकू और तीखा हो सकता है.
▪ विरासत में मिली संपत्ति (इनहेरिटेंस) पर टैक्स आ सकता है.
▪ जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ नहीं घटा. नए टैक्स (सेस) बीते बरस ही लौट आए थे. कस्टम ड्यूटी के ऊपर जनकल्याण सेस लगा, डीजल-पेट्रोल पर सेस लागू है और आयकर पर शिक्षा सेस की दर बढ़ चुकी है. यह नश्तर और पैने हो सकते हैं यानी नए सेस लग सकते हैं.
▪ लंबे अरसे बाद पिछले बजटों में देसी उद्योगों को संरक्षण के नाम पर आयात को महंगा (कस्टम ड्यूटी) किया गया. यह मुर्गी फिर कटेगी और महंगाई के साथ बंटेगी.
▪ और कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में कमी के सापेक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम होने की गुंजाइश नहीं है.
जीएसटी ने राज्यों के लिए टैक्स लगाने के विकल्प सीमित कर दिए हैं. नतीजतन, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और झारखंड में बिजली महंगी हो चुकी है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान में करेंट मारने की तैयारी है. राज्यों को अब केवल बिजली दरें ही नहीं पानी, टोल, स्टॉम्प ड्यूटी व अन्य सेवाएं भी महंगी करनी होंगी क्योंकि करीब 17 बड़े राज्यों में दस राज्य, 2018 में ही घाटे का लाल निशान पार कर गए थे. 13 राज्यों पर बकाया कर्ज विस्फोटक हो रहा है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों का आधा राजस्व केंद्रीय संसाधनों से आता है.
जीएसटी के बावजूद अरुण जेटली ने अपने पांच बजटों में कुल 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाए यानी करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष और पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रु. की रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थीं, जबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गए. करीब 91,000 करोड़ रु. के कुल नए टैक्स के साथ, जेटली का आखिरी बजट, पांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट था.
देश के एक पुराने वित्त मंत्री कहते थे, नई सरकार का पहला बजट सबसे डरावना होता है. सो नई वित्त मंत्री के लिए मौका भी है, दस्तूर भी. लेकिन बजट सुनते हुए याद रखिएगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत टैक्स देने वालों की तादाद और टैक्स संग्रह बढ़ने से मापी जाती है, टैक्स का बोझ बढ़ने से नहीं.