मंदी हमेशा बुरी होती है, लंबी मंदी और भी बुरी. 2018 में सात
वर्ष पूरे कर रही मंदी ने भारत की सबसे बड़ी आर्थिक दरार खोल दी है. 1991 के बाद
पहली बार किसान और उपभोक्ता आमने-सामने खड़े हो गए हैं. पिछले 25 वर्षों में ऐसा
कभी नहीं हुआ जब गांव और शहर इस तरह आमने-सामने आए हों.
आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी सफलता यह
थी कि इसने गांव और शहर के बीच राजनैतिक बंटवारे को सिकोड़ दिया था. सुधारों के
पहले पांच साल में ही गांव और शहरों के बीच की दूरी घटने लगी थी. दोनों
अर्थव्यवस्थाओं के पास एक दूसरे को देने के लिए कुछ न कुछ था. शहरों के पास बढ़ती
आबादी थी और गांवों के पास उपज. शहरों के पास अवसर थे, गांवों के पास श्रम था. शहरों के पास
सुविधाएं, सेवाएं, तकनीक थीं, गांवों के पास उनकी मांग.
सुधारों के करीब ढाई दशक बाद आज यह
समझा जा सकता है कि इस बदलाव ने सरकारों और राजनीति को, गांव और शहरों को (सड़क, मोबाइल, बिजली) जोडऩे पर बाध्य किया न कि
बांटने पर. 2006-07 में तेज आर्थिक विकास के बीच कांग्रेस ने मनरेगा के जरिए
गांवों को राजनीति के केंद्र में लाने की आंशिक कोशिश की. मनरेगा तेज आर्थिक विकास
के बीच आई थी इसलिए इससे एक ओर गांवों में आय बढ़ी तो दूसरी ओर उद्योगों को नई मांग
मिली.
यही वह समय था जब गांवों में एक नया
मध्य वर्ग तैयार हुआ. पिछले एक दशक में शिक्षा, चिकित्सा, संचार की अधिकांश नई मांग इसी ग्रामीण
और अर्धनगरीय मध्य वर्ग से निकली है. 2007 के बाद ग्रामीण और कस्बाई बाजार के लिए
रणनीतियां हर कंपनी की वरीयता पर थीं.
ताजा मंदी ने यह संतुलन बिगाड़ दिया.
मंदी ने हमें 2011-12 में पकड़ा. 2014 में सरकार बदलते वक्त ई-कॉमर्स, शेयर बाजार, होटल और यात्रा जैसे कुछ क्षेत्र ही
दहाई के अंकों की रफ्तार दिखा रहे थे. औद्योगिक उत्पादन और भवन निर्माण ठप था, सेवाएं भी सुस्त पड़ गई थीं.
फिर भी 2008 से 2014 के बीच माकूल मौसम, समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी, नगरीय आबादी की बढ़ती मांग, गांवों में जमीन की बेहतर कीमत और
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि जिंसों की तेजी ने खेती को दौड़ाए रखा था. 2014 के
सूखे के बाद चार साल में उपज बिगड़ी और कीमतें गिरीं.
पिछले 25 साल में आर्थिक सुस्ती के
छोटे दौर आए हैं लेकिन यह पहला सबसे लंबा कालखंड है जबकि अर्थव्यवस्था के सभी इंजन
सुस्त या बंद हैं.
सबसे बड़ी दुविधा
2014 में सरकार ने इस संकल्प के साथ
शुरुआत की थी कि अब समर्थन मूल्य नहीं बढ़ेंगे क्योंकि इनसे महंगाई बढ़ती है. भूमि
अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक चोट और सूखे के कारण समर्थन मूल्य बढ़ाना पड़ा. महंगाई
आई तो दालों के आयात से बाजार में कीमतें टूट गईं. नतीजतन मंदसौर में दाल की कीमत
मांगते किसानों को पुलिस की गोलियां मिलीं.
गांव और शहर अब दो ध्रुवों पर खड़े हैं:
- किसान को अपनी उपज का मूल्य चाहिए.
पैदावार पर 50 फीसदी मुनाफे का चुनावी वादा (जो तर्कसंगत नहीं था) राजनैतिक आफत
है. कहां 2014 में सरकार समर्थन मूल्यों को सीमित कर रही थी लेकिन अब हरियाणा में
सब्जी पर भी सरकारी कीमत देने की कोशिश हो रही है, हालांकि वह बेहद कम है. सरकारों के बजट
इससे ज्यादा की इजाजत नहीं देते.
- दूसरी तरफ समर्थन मूल्य में कोई भी
बढ़त महंगाई को दावत है. इस साल की शुरुआत मुद्रास्फीति के साथ हुई है. तेल कीमतें, बजट घाटा सब मिलकर महंगाई के लिए ईंधन
जुटा रहे हैं. शहरों में बेकारी और आय में कमी के बीच चुनाव के साल में महंगाई का
जोखिम राजनैतिक मुसीबत बन जाएगा.
किसान और उपभोक्ता के बीच संतुलन का
इलाज खुदरा बाजार में विदेशी निवेश और मंडी कानून की समाप्ति हो सकती थी लेकिन
वहां भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक है, जिसने दोनों बेहद संवेदनशील सुधार परवान नहीं चढऩे दिए. इन्हीं की
एक घुड़की में जीएसटी का शीर्षासन हो गया.
पिछले दो दशक में यह पहला मौका है जब
किसान और उपभोक्ता, दोनों
एक साथ परेशान हैं. दोनों जगह आय घटी है और अवसर कम हुए हैं. प्रोत्साहन की चौखट
पर अब किसान और उपभोक्ता, दोनों
को एक साथ बिठाना असंभव हो चला है. इस साल का बजट बताएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी गांव की पूंछ पकड़ चुनावी वैतरणी उतरेंगे या उपभोक्ताओं को पुचकार कर सियासत
साधेंगे. मंदी न चाहते हुए भी गांव बनाम शहर की विभाजक सियासत को चुनाव के केंद्र
में ले आई है.