अगर कोई कहे कि बीते बरस लॉकडाउन के दौरान गांवों ने अर्थव्यवस्था को उबार लिया या इस साल भी गांव भारतीय अर्थव्यवस्था की मदद करेंगे तो यह व्याख्यान काढ़ा पीकर सुनिएगा. ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत बने रहने का दावा उतना ही सच है जितना कि वैक्सीन बांटने की पूरी तैयारी होना.
मॉनसून पिछड़ने से खरीफ का रकबा सिकुड़ने की सूचना के बीच यह जानना जरूरी है कि 2020-21 में मंदी के बीच खेती ने कोई बड़ा चमत्कार नहीं किया. लॉकडाउन के साल में 3.4 फीसद की विकास दर 2019-20 (4.3 फीसद) से ही नहीं चार फीसद की लंबी औसत ऐतिहासिक दर से भी नीचे रही. महंगाई का हिसाब लगाने के बाद यह और कम हो जाती है.
बीते एक बरस में शहरों ने लाखों मजदूर भेज कर गांवों में जो गरीब भर दिए उनका पेट भरने के लिए तो यह विकास दर कतई नाकाफी थी. यही वजह है कि बाजार और कंपनियां रिकॉर्ड सरकारी अनाज खरीद पर रीझने के बजाए कुछ दूसरे आंकड़ों को पढ़ रहीं हैं.
● कोविड-19 की दूसरी लहर में संक्रमण की दस फीसद से ज्यादा दर (20 मई, 2021 तक) वाले कुल 394 जिलों में बड़ी आबादी ग्रामीण थी. कोविड से बुरी तरह तबाह हुए 50 जिलों में 26 के तहत 50 फीसद आबादी ग्रामीण थी. देश के जीडीपी में इन जिलों का हिस्सा करीब 8 फीसद (हाउ इंडिया लिव्ज और ब्लूमबर्ग का अध्ययन) है.
● अधिकांश ग्रामीण उन 5.5 करोड़ लोगों के समूह का हिस्सा हैं जो सामान्य दिनों में भी इलाज के खर्च से गरीब हो जाते हैं. यही वजह है कि महामारी की दूसरी लहर के दौरान गांवों में मौतों की इतनी बड़ी संख्या नजर आई.
● 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़ से कम जमीन है. जोत का औसत आकार घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपए यानी 200 रुपए रोज है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है.
● भारत के 90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषि कामों से आती है. गैर कृषि कामगार जितना कमाता है, खेती से होने वाली कमाई उसकी एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है.
● इसी कमाई की तलाश में जो लोग शहरों को गए थे, बीते साल वे सारी गरीबी लेकर वापस लौट आए. लॉकडाउन के बाद वे सभी कारोबार (भवन निर्माण, रिटेल, परिवहन) सिमटे हैं, जो गांवों में गैर कृषि आय का स्रोत थे.
● इंडिया रेटिंग्स का ताजा अध्ययन बताता है कि भारत में खेती के कामों से गांवों में मजूदरी बढ़ने की दर 8.5 फीसद (अप्रैल-अगस्त 2020) से घटकर 2.9 फीसद (नवंबर-मार्च 2021) पर आ गई. इसी क्रम में गैर खेती कामों में मजदूरी 9.1 फीसद से घटकर 5.2 फीसद पर आ गई है.
● कमाई में इस कमी के कारण ही अचानक एक साल में 14 करोड़ (प्यू रिसर्च अप्रैल 2021) लोग नए गरीबों में बदल गए यानी कि गरीबी की रेखा से नीचे खिसक गए. इन्हें अब 200-250 रुपए की दिहाड़ी के लाले हैं.
सबसे तगड़ा झटका मौसम ने दिया है. इस साल मॉनसून पिछड़ने से खरीफ की सभी प्रमुख अनाज, दलहन, तिलहन फसलों रकबा करीब 10 फीसद (9 जुलाई तक) टूट गया है. अनाज की कमी नहीं होगी लेकिन महंगे डीजल सहित कई तरह की लागत और गरीबी के बढ़ने से असंख्य छोटे किसान पहले से ही संकट में हैं. कमजोर खरीफ से उपजी महंगाई ग्रामीण गरीबों पर सबसे ज्यादा भारी पड़ेगी जिनकी आय टूट गई है.
गांव में वित्तीय बचतें बेहद सीमित हैं. कोविड ने बहुतों को कर्ज में फंसा दिया है. फसलों को बेचने और कर्ज (बैंक से लेकर पंसारी तक) चुकाने के बाद बचने वाला धन ही गांव से आने वाली नई मांग का जरिया होता है. 2016-17 के नाबार्ड फाइनेंशियल इन्क्लूजन सर्वे ने बताया था कि भारत के गांवों में निर्धन और औसत परिवारों के पास हर माह केवल 1,500 रुपए अतिरिक्त बचते हैं. यह उन दिनों की बात है जब गांवों में मजदूरी बढ़ रही थी. अब तो लॉकडाउन ने शहरों से गांवों में आने धन का (जीडीपी का दो फीसद—आर्थिक समीक्षा 2017) स्रोत भी बंद कर दिया है.
मांग को लेकर कंपनियां पहले ही बुरी तरह आशंकित हैं. अप्रैल-मई 2021 में अचानक 2.3 करोड़ लोग यूं ही बेरोजगार (सीएमआइई) नहीं हो गए. यह बेकारी नौकरियों में कटौती आने वाले दिनों में मंदी के गहराने की तैयारी का संकेत है, गुजरे हुए वक्त की प्रतिक्रिया नहीं.
केवल सस्ता अनाज बांट देने से काम नहीं चलने वाला. गांवों की गरीबी रोकने के लिए महंगाई थामने और सीधी मदद पहुंचाने की दोहरी कोशिश करनी होगी. गांवों में बीमारी, गरीबी और शहरों में बेकारी के सूत्र संयोजित हो रहे हैं. क्या सरकारें यह मारक त्रिभुज देख पा रही हैं?