अर्थशास्त्र की असंख्य तकनीकी परिभाषाओं
के परे कोई आसान मतलब? प्राध्यापक ने कहा, उम्मीद और
विश्वास. कारोबार, विनिमय, खपत, बचत, कर्ज, निवेश अच्छे भविष्य की आशा और भरोसे पर टिका है. इसी
उम्मीद का थम जाना यानी भरोसे का सिमट जाना मंदी है.
खपत आधारित है आगे आय बढ़ते रहने की
उम्मीद पर. कर्ज अपनी वापसी की उम्मीद पर टिका है; औद्योगिक व्यापारिक
निवेश खपत बढ़ने पर केंद्रित है; और बचत या शेयरों की खरीद इस
उम्मीद पर टिकी है कि यह चक्र ठीक चलेगा.
सरकार ने मंदी से निबटने के लिए दो माह
पहले आए बजट को शीर्षासन करा दिया. लेकिन उम्मीदें निढाल पड़ी हैं.
क्या हम उम्मीद और विश्वास में कमी को
आंकड़ों में नाप सकते हैं? मंदी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं या जो समाधान मांगे जा रहे हैं उन्हें गहराई
से देख कर यह नाप-जोख हो सकती है.
मंदी की पहली वजह बताई जा रही है कि
बाजार में पूंजी, पैसे या तरलता की कमी है लेकिन...
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भारत में नकदी (करेंसी इन सर्कुलेशन), जुलाई के पहले सप्ताह में 21.1 लाख करोड़ रुपए पर थी
जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है.
दूसरी तरफ, बैंकों में जमा की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसदी से नीचे आ गई.
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रिजर्व बैंक ब्याज की दर एक फीसद से ज्यादा घटा चुका है लेकिन
कर्ज लेने वाले नहीं हैं. यानी कि बाजार में पैसा है, लोगों के हाथ में पैसा है,
बैंक कर्ज सस्ता कर रहे हैं लेकिन लोग बिस्किट खरीदने से पहले भी सोच
रहे हैं, कार और मकान आदि तो दूर की बात है.
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अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध (आयात महंगा करना)
से तो निर्यात बढ़ाने का मौका है. कमजोर रुपया
भी निर्यातकों के माफिक है लेकिन न निर्यात बढ़ा, न उत्पादन.
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खर्च चलाने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का रिजर्व निचोड़ लिया
है तो सुझाव दिए जा रहे हैं कि जीएसटी कम होने से मांग बढ़ जाएगी. लेकिन लागू होने के
बाद से हर छह माह में जीएसटी की दर कम हुई. न मांग बढ़ी, न खपत, राजस्व और बुरी तरह टूट गया.
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पिछले पांच साल के दौरान एक बार भी महंगाई ने नहीं रुलाया फिर
भी बचत और खपत गिर गई.
हाथ में पैसा होने के बाद भी खर्च न
बढ़ना,
टैक्स और कीमतें घटने के बाद भी मांग
न बढ़ना,
कर्ज सस्ता होने के बाद भी कर्ज न उठना...
इस बात की ताकीद करते हैं कि जिन्हें खर्च करना
या कर्ज लेकर घर-कार खरीदनी है उन्हें यह भरोसा नहीं है कि आगे उनकी कमाई बढ़ेगी. जिन्हें उद्योग के लिए कर्ज
लेना है उन्हें मांग बढ़ने की उम्मीद नहीं है और जिन्हें
कर्ज देना है, उन्हें कर्ज की वापसी न होने का डर है.
इस जटिलता ने दो दुष्चक्र शुरू कर दिए
हैं. टैक्स कम होगा तो घाटा
यानी सरकार का कर्ज बढ़ेगा. ब्याज दर बढ़ेगी, नए टैक्स लगेंगे या पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ेगी.
अगर बैंक कर्ज और सस्ता करेंगे तो डिपॉजिट पर भी ब्याज घटेगा.
इस तरह बैंक बचतें गंवाएंगे और पूंजी कम पड़ेगी.
यही वजह है कि यह मंदी अपने ताजा पूर्वजों
से अलग है. 2008 और 2012 में सरकार ने पैसा डाला और टैक्स काटे,
जिससे बात बन गई लेकिन अब मुश्किल है.
2015 के बाद से लगातार
सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है और जीएसटी के चुनावी असर को कम करने के लिए टैक्स में
कमी हुई लेकिन फिर भी हम ढुलक गए. अब संसाधन ही नहीं बचे.
सरकारी खर्च के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व के इस्तेमाल से डर बढ़ेगा
और विश्वास कम होगा.
कमाई, बचत और खपत, तीनों में एक साथ गिरावट मंदी की बुनियादी
वजह है. लोगों को आय बढ़ने की उम्मीद नहीं है. देश में बड़ा मध्य वर्ग कर्ज में फंस चुका है. रोजगार
न बढ़ने के कारण घरों में एक कमाने वाले पर आश्रितों की संख्या बढ़ रही है.
यही वजह है कि बचत (बैंक, लघु बचत, मकान) 20 साल के न्यूनतम
स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) पर है. यह सब उस कथित तेज विकास
के दौरान हुआ, जिसके दावे बीते पांच बरस में हुए. कोई अर्थव्यवस्था अगर अपने सबसे अच्छे दिनों में रोजगार सृजन या बचत नहीं करती
तो आने वाली पीढ़ी के लिए मौके कम हो जाते हैं.
सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में
तेज विकास के जो आंकड़े गढ़े थे क्या उन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया? उसी की चमक में निवेश
बढ़ाने, सरकारी दखल कम करने, मुक्त व्यापार
के लिए ढांचागत सुधार नहीं किए गए जिसके कारण हम एक जिद्दी ढांचागत मंदी की चपेट में
हैं.
अगर यही सच है तो फिर जरूरत उन सुधारों
की है, सुर्खियां बनाने वाले
पैकेजों की नहीं क्योंकि उम्मीदों की मंदी बड़ी जिद्दी होती है.