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Saturday, January 12, 2019

खुशी से मर न जाते...


''मूर्ख बनने के दो तरीके हैं—एक जो सच नहीं है उस पर विश्वास किया जाए और दूसरा जो सच है उस पर विश्वास न किया जाए.''—सोरेन कीर्केगार्ड

नेता हमेशा इस खास आत्मविश्वास से भरे होते हैं कि लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है. वे जनता के बार-बार इनकारअस्वीकार और दुत्कार के बावजूद काठ की हांडियों के प्रयोग नहीं छोड़ते. बेचारे हैं वे  क्योंकि शायद इसके अलावा करने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता.

सरकारी नौकरियों में आरक्षण (अब आर्थिक आधार पर सवर्णों के लिए) एक ऐसा फरेब है जिसे सियासत जितनी शिद्दत के साथ बार-बार रचती है, हकीकत उससे कई गुना गंभीरता के साथ उसे ध्वस्त कर देती है.

- देश में कुल 2.15 करोड़ सरकारी (केंद्र व राज्य)  स्थायी कर्मचारी हैं. इनमें करीब 90 फीसद पद ग्रुप सी व डी के हैं जो सरकारी नौकरियों में सबसे निचले वेतन वर्ग हैं.

- हर साल करीब एक करोड़ लोग (कुशलअकुशलशिक्षित) रोजगार की कतार में बढ़ जाते हैं. सरकार में सेवानिवृत्ति व नए पदों के सृजन को मिलाकर इतनी नौकरियां पांच साल में भी नहीं बनतीं जितने लोग रोजगार बाजार में हर छह माह में शामिल हो जाते हैं. केंद्र सरकार में रेलवेसेना और बैंक बड़े नियोजक हैं लेकिन इनमें किसी में सालाना नई नौकरियों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वह 10 फीसद आवेदनों को भी जगह दे सके.
सरकारी नौकरी का सबसे बड़ा आकर्षण क्या हैस्थायित्व और पेंशन! सरकार पुरानी पेंशन स्कीम (रिटायरमेंट के वक्त वेतन की आधी तनख्वाह) बंद कर चुकी है. नए कर्मचारी अब जितना बचाएंगेउतनी पेंशन पाएंगेजो कोई भी पेंशन निवेशक करता है.

- पिछले दो वेतन आयोगों के बाद सरकारों के वेतन बजट बुरी तरह बिगड़ चुके हैं. अब ज्यादातर भर्तियां संविदा (ठेका) और अस्थायी पदों पर हो रही हैं ताकि पेंशन का बोझ न हो और वेतन सीमित रहे. जीएसटी और कर्ज माफी के बाद सरकारों के पास अब खुद को चलाने के संसाधन और कम होते जाने हैं.

- सरकार में 29 लाख पद खाली हैं जिन्‍हें भरने पर 1.27 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे. सरकार का वेतन बिल 71 फीसदी और राजकोषीय घाटा 21 फीसदी बढ़ जाएगा 

- आरक्षण का पूरा तमाशा सालाना बमुश्किल कुछ हजार सरकारी नौकरियों को लेकर है जिसमें आरक्षित पद और भी कम होंगे.

आरक्षण के गुब्बारे सिर्फ भरमाने के लिए ही नहीं बल्कि कुछ छिपाने के लिए भी छोड़े जा रहे हैं.

देश में रोजगारों का ताजा सच सरकारों की भव्य विफलता का खुला हुआ घाव है. आरक्षण की सियासत पर रीझने से पहले इस पर एक नजर जरूरी है. वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम और आर्थिक समीक्षा 2015-16 के मुताबिकनौकरीपेशा लोगों की कुल संख्या केवल 4.9 करोड़ है और इनमें 94 फीसद लोग असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं.

- नेशनल सैंपल सर्वे का 2011 सर्वे सबसे ताजा और रोजगारों का सबसे अधिकृत आंकड़ा है. इसके निष्कर्षों पर सरकार बात नहीं करना चाहती.
भारी-भरकम निवेश मेलेउद्योगों से गलबहियांसरकारी खर्च के दावे याद हैं! सर्वे बताता है कि पूरे देश में फैक्टरी रोजगार तेजी से घट रहे हैं क्योंकि मझोले आकार की फर्म में रोजगार कम हुए हैं.

- ज्यादातर नियमित गैर खेती रोजगार देश के दक्षिण और पश्चिम के चुनिंदा जिलों में केंद्रित हैं. पिछले डेढ़ दशक में अन्य जिलों में गैर खेती रोजगार कम हुए हैं.

- मुंबईपुणेदिल्लीहैदराबादचेन्नैकोलकातातिरुपुरहावड़ादमनसूरत जैसे कुछ जिलों को छोड़ देश के अधिकांश जिलों में फैक्टरी रोजगार नगण्य है. सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों (उत्तर प्रदेशमध्य प्रदेशबंगाल) में नियमित रोजगार लगातार घट रहे हैं.

- खेती सबसे बड़ी जीविका हैजिसमें पिछले चार साल से आय और मजदूरी स्थिर है.

- 2017 की सरकारी आर्थिक समीक्षा ने रेलवे के आंकड़ों की मदद से बताया कि राज्यों और जिलों के बीच प्रवास अब दोगुना हो कर सालाना 90 लाख लोगों तक पहुंच गया है.

- और सीएमआइई का सबसे ताजा आंकड़ा कि दिसंबर 2018 में भारत में बेकारी की दर पंद्रह माह के सबसे ऊंचे मुकाम 7.4 फीसदी पर पहुंच गई.

सरकारें रोजगार नहीं दे सकतींयह बात हमेशा से उतनी ही सच है जितना सच यह तथ्य कि पिछले दो दशक में अधिकांश नए रोजगार बाजार और आर्थिक विकास दर से आए हैं. सरकार केवल रोजगार का माहौल बना सकती है.

इससे पहले कि वे काठ की हांडी में सरकारी नौकरियों की हवाई खिचड़ी लेकर हमारे पास पहुंचेंहकीकत हमारे सामने है; हम भोले हो सकते हैंमगर मूर्ख नहीं. 

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता- गालिब 



Monday, March 21, 2016

नौकरियों के बाजार में आरक्षण


जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकारदरअसलबीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है


सके लिए राजनैतिक पंडित होने की जरूरत नहीं है कि बिहार के चुनाव में बड़े नुक्सान के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातीय आरक्षण की समीक्षा की बहस क्यों शुरू की ताज्जुब संघ के डिजाइन पर नहीं बल्कि इस बात पर है कि सरकार ने रेत में सिर धंसा दिया और एक जरूरी बहस की गर्दन संसद के भीतर ही मरोड़ दी जबकि कोई हिम्मती सरकार इसे एक मौका बनाकर सकारात्मक बहस की शुरुआत कर सकती थी. संघ का सुझाव उसके व्यापक धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे से जुड़ता है, जो विवादित है, लेकिन इसके बाद भी हरियाणा के जाट व गुजरात के पाटीदार आंदोलन की आक्रामकता और समृद्ध तबकों को आरक्षण के लाभ की रोशनी में, कोई भी संघ के तर्क से सहमत होगा कि जातीय आरक्षण की समीक्षा पर चर्चा तो शुरू होनी ही चाहिए. खास तौर पर उस वक्त जब देश के पास ताजा आर्थिक जातीय गणना के आंकड़े मौजूद हैं, जिन पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है.
 जातीय आरक्षण में यथास्थिति बनाए रखने के आग्रह हमेशा  ताकतवर रहे हैं, जिनकी वजह से बीजेपी और सरकार को संघ का सुझाव खारिज करना पड़ा. जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकार, दरअसल, बीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है जो संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को बीजेपी की राजनीति के रसायन से अलग करता है. आर्थिक व धार्मिक (राम मंदिर) एजेंडे पर ठीक इसी तरह की असहमतियां अटल बिहारी वाजपेयी व संघ के बीच देखी गई थीं.
सरकार भले ही इनकार करे लेकिन आरक्षण की समीक्षा की बहस शुरू हो चुकी है जो जातीय पहचान की नहीं बल्कि रोजगार के बाजार की है. इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करेगा कि आरक्षण ने चुनी हुई संस्थाओं (पंचायत से विधायिका तक) और राजनैतिक पदों पर जातीय प्रतिनिधित्व को सफलतापूर्वक संतुलित किया है और इस आरक्षण को जारी रखने में आपत्ति भी नहीं है. आरक्षण की असली जमीनी जद्दोजहद तो सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर है. अगर रोजगारों के बाजार को बढ़ाया जाए तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बेसिर-पैर की दीवानगी को संभाला जा सकता है.
आरक्षण की बहस के इस गैर-राजनैतिक संदर्भ को समझने के लिए रोजगारों के बाजार को समझना जरूरी है. भारत में रोजगार के भरोसेमंद आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए आरक्षण जैसी सुविधाओं के ऐतिहासिक लाभ की पड़ताल मुश्किल है. फिर भी जो आंकड़े (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और आर्थिक समीक्षा 2015-16) मिलते हैं उनके मुताबिक, नौकरीपेशा लोगों की कुल संख्या केवल 4.9 करोड़ है जो 1.28 अरब की आबादी में बेकारी की भयावहता का प्रमाण है. इनमें 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं, जबकि केवल चार फीसदी लोग संगठित क्षेत्र में हैं जिसमें सरकारी व निजी, दोनों तरह के रोजगार शामिल हैं. ताजा आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2012 में संगठित क्षेत्र में कुल 2.95 करोड़ लोग काम कर रहे थे, जिनमें 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे. 
सरकारी रोजगारों के इस छोटे से आंकड़े में केंद्र व राज्य की नौकरियां शामिल हैं. केंद्र सरकार में रेलवे, सेना और बैंक सबसे बड़े रोजगार हब हैं लेकिन इनमें किसी की नौकरियों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वह 10 फीसदी आवेदनों को भी जगह दे सके. केंद्र सरकार की नौकरियों में करीब 60 फीसदी पद ग्रुप सी और करीब 29 फीसदी पद ग्रुप डी के हैं जो सरकारी नौकरियों में सबसे निचले वेतन वर्ग हैं. सरकारी क्षेत्र की शेष नौकरियां राज्यों में हैं और वहां भी नौकरियों का ढांचा लगभग केंद्र सरकार जैसा है.
इस आंकड़े से यह समझना जरूरी है कि आरक्षण का पूरा संघर्ष, दो करोड़ से भी कम नौकरियों के लिए है जिनमें अधिकांश नौकरियां ग्रुप सी व डी की हैं जिनके कारण वर्षों से इतनी राजनीति हो रही है. गौर तलब है कि सरकारों का आकार कम हो रहा है जिसके साथ ही नौकरियां घटती जानी हैं. आर्थिक समीक्षा बताती है कि सरकारी नौकरियों में बढ़ोतरी की गति एक फीसदी से भी कम है, जबकि संगठित निजी क्षेत्र में नौकरियों के बढऩे की रफ्तार 5.6 फीसदी रही है. लेकिन संगठित (सरकारी व निजी) क्षेत्र केवल छह फीसदी रोजगार देता है इसलिए रोजगार बाजार में इस हिस्से की घट-बढ़ कोई बड़ा फर्क पैदा नहीं करती.
सबसे ज्यादा रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं जिसका ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है अलबत्ता इतना जरूर पता है कि असंगठित क्षेत्र जैसे व्यापार व रिटेल, लघु उद्योग, परिवहन, भवन निर्माण, दसियों की तरह की सेवाएं भारत में किसी भी सरकारी तंत्र से ज्यादा रोजगार दे रहे हैं. यह सभी कारोबार भारत के विशाल जीविका तंत्र (लाइवलीहुड नेटवर्क) का हिस्सा हैं जो अपनी ग्रोथ के साथ रोजगार भी पैदा करते हैं.  

नौकरियां बढ़ाने के लिए भारत में विशाल जीविका तंत्र को विस्तृत करना होगा जिसके लिए भारतीय बाजार को और खोलना जरूरी है क्योंकि भारत में नौकरियां या जीविका अंततः निजी क्षेत्र से ही आनी हैं. यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण की बहस को कायदे से शुरू करना चाहता है तो उसे इस तथ्य पर सहमत होना होगा कि भारत में व्यापक निजीकरण, निवेश और विदेशी निवेश की जरूरत है ताकि रोजगार का बाजार बढ़ सके और मुट्ठीभर सरकारी नौकरियों के आरक्षण की सियासत बंद हो सके, जो अंततः उन तबकों को ही मिलती हैं जो कतार में आगे खड़े हैं.