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Thursday, March 12, 2020

बीमार की बीमारी


दंगों की आग लगाकर पीडि़तों को  राजनैतिक स्वादानुसार भूनने के बादअगर वक्त मिले तो विभाजक  बहादुरों को भारत में स्वाइन फ्लू केताजा इतिहास पर नजर  डालनी चाहिए ताकि हम समझ सकें कि नोवेल कोराना वायरस हमारा क्या हाल कर सकता है जहां स्वास्थ्य ढांचा ब्राजील और वियतनाम से भी पिछड़ा है.  

स्वाइन फ्लू इक्कीसवीं सदी की पहली घोषि आधुनिक महामारी थीभारत में 2009 से 2019 के बीच स्वाइन फ्लू से 10,614 मौतें हो चुकी हैं और 1.37 लाख लोग बीमार हुएयह तबाही अभी जारी हैस्वास्थ्य विभाग (नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोलका यह आंकड़ा सीमित सूचनाओं पर   आधारित हैअधिकांश इलाज तो नीम हकीमों या निजी डॉक्टरों के पास होता हैकेवल 2019 में ही स्वाइन फ्लू ने करीब 1,000 जिंदगियां (गुजरात और राजस्थान में सबसे ज्यादानिगल लीं. हमने टैक्स निचोड़ने वाली सरकारों से कभी नहीं पूछा कि हम इस तरह मर क्योंरहे हैं?

भारत का बीमार स्वास्थ्य ढांचा जब तक जीवन शैली से जुड़े रोगों (डायबिटीजहाइपरटेंशनकार्डिएकके महंगे इलाजों का रास्ता निकाल पातातब तक वायरल रोगों ने घाव को खोल कर रख दियादुनिया की कथि  महाशक्ति मारक रोगों के नए दौर से मुखाति हैस्वास्थ्य सेवाओं के मामले में195 देशों में जिसका दर्जा 154वां (लांसेट शोधहै.

वायरल बीमारियों से निबटने में भारत का ताजा तजुर्बा हमें कोरोना वायरसको लेकर इसलिए बहुत ज्यादा डराता है क्योंकि...

 वायरल यानी हवा में तैर कर फैलने वाले इन वायरस से पैदा हुई    महामारियों के लिए बेहद सतर्क और चुस्त प्राथमिक स्वास्थ्य ढांचे की  जरूरत है.बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं वाले एशियाई देश भी वायरल रोगों के विस्फोट के सामने कमजोर साबित हुए हैं क्योंकि मरीजों की संख्या  अचानक बढ़ती हैअमेरिका और यूरोप अपने मजबूत प्राथमिक तंत्र के  जरिए फ्लू वैक्सीन के सहारे इनका असर सीमित रखते हैं.

 भारत प्राथमिक सुविधाओं के मामले में पुरातत्व युग में हैस्वाइन फ्लू के सामने मशहूर गुजरात मॉडल बुरी तरह असफल (2010 से 2019 के  बीच करीब 2,000 मौतें. 22,000 से अधि पीडि़तसाबित हुआउत्तर प्रदेश जैसे बीमार अस्पतालों वाले राज्य की बात ही दूर है.


 बुनियादी सुविधाओं के मामले में भारत का प्राथमिक स्वास्थ्य तंत्र जच्चा-बच्चा से आगे नहीं बढ़ सका हैवायरल फ्लू श्वसन तंत्र में संक्रमण करते हैं इसलिए जिला स्तरीय अस्पतालों में त्वरित जांच और कृत्रिम श्वसन प्रणालियों की जरूरत होती हैस्वाइन फ्लू से सैकड़ों मौतों के बाद जांच की सुविधाओं पर निगाह गईइलाज तो अभी भी दूर की कौड़ी हैवैक्सीन महंगीहै और उसका मिलना सहज नहीं है.

 भारत में हर साल करीब 5.5 करोड़ लोग केवल इलाज के कारण गरीब होते हैं (पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया का शोध). इसमें अधिकांश  खर्च प्राथमिक इलाज पर होता है.

 दवाओं की लागत लोगों को सबसे ज्यादा गरीब बनाती हैकोरोना वायरसइस लिहाज से दोहरी मार लेकर आने वाला हैदवाएं आमतौर पर महंगी हैं.कोरोना वायरस के बाद चीन से कच्चे माल की आपूर्ति रुकने से उनकी कीमतें और बढ़ेंगी.

भारत की सरकार सेहत पर  केवल दुनिया में सबसे कम (जीडीपी का  केवल एक फीसदखर्च करती है बल्कि वरीयताएं भी अजीबोगरीब हैं. 70 फीसद ग्रामीण आबादी वाले मुल्क में केवल 25,000 प्राइमरी हेल्थ  सेंटर और 19,000 अस्तपाल हैंजानलेवा वायरल बीमारियों से निबटने के लिए हमें जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत हैआयुष्मान भारत हमें कोरोना वायरस से शायद ही बचा सकेयह स्कीम अभीपिछले सरकारी बीमा प्रयोगों की तरह  बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों में लूटजोड़ की चपेट में है.

दिल्ली में जब ‘गोली मारो’ की आवाजें लगाई जा रही थीं तब तक कोरोना वायरस भारत पहुंच चुका था लेकिन जैसे हमारी चिंताओं में स्वाइन फ्लू सेमौतें नहीं हैंठीक उसी तरह सियासत ने हमें एक दूसरे से लड़ने में लगा दियाकोरोना से बचाने में नहीं.

1918 के स्पेनिश फ्लू (करीब 14 लाख मौतेंसे लेकर स्वाइन फ्लू तक,  भारतवायरल रोगों का सबसे बड़ा शिकार रहा हैलेकिन वायरल रोग के  वैक्सीन शोधजांच तंत्र की वरीयताएं तब आती हैं जब मौतें हमें घेर चुकी होती हैंनिजी अस्तपाल भी महंगे इलाजों के लिए तो तैयार हैं लेकिन इन महामारियों के लिए नहीं

जल्द ही भारत के विभि‍न्न शहरों में कोरोना के वायरल बम फटने लगेंगे और तब सरकारें हमें इलाज देने की बजाए यह बताएंगी कि  गर्मी बढ़ने से वायरस कमजोर होगा.  लेकिन फ्लू के पुराने तजुर्बे बताते हैं कि पुराने तजुर्बे बताते हैं कि तभी तो जो स्वाइन फ्लू दुनिया के देशों से होकर गुजरगयावह अब भारत की सालाना  महामारी है.


कोरोना इसका घातक उत्तराधिकारी हो सकता है.




Saturday, January 4, 2020

बीस की बीमारी


·       भारत में हर साल करीब 4.6 फीसद लोग केवल इलाज के खर्च के कारण गरीब हो जाते हैं. (पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडियापीएचएफआइकी सर्वे रिपोर्ट)
·       पांच लाख से ज्यादा ग्रामीण और नगरीय लोगों के बीच एनएसएसओ के सर्वे से पता चला कि पूरे देश में आठ फीसद लोग पिछले पंद्रह दिन में किसी  किसी बीमारी के शिकार हुए हैं. 45 से 59 साल के आयु वर्ग में 100 में 12 लोग और 60 साल से ऊपर की आबादी में 100 में 27 लोग हर पखवाड़े इलाज कराते हैं


इन तथ्यों से किसी धार्मिक या जातीय भावनाओं में कोई उबाल नहीं आताये कोई रोमांच नहीं जगाते फिर भी हम उनसे नजरें मिलाते हुए डरते हैंकड़कड़ाती ठंड में खून खौलाऊ राजनीति के बीच हमारे पास बीमारियों को लेकर कुछ ताजा सच हैंबीमारीभूखबेकारीबुढ़ापापर्यावरण की त्रासदीइन सबको लेकर हमने जो लक्ष्य तय किए थे अब बारी उनकी हार-जीत के नतीजे भुगतने की है.

बीते माह सरकार की सर्वे एजेंसी (एनएसएसओने नया हेल्थ सर्वेक्षण जारी किया जो जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच हुआ थाआखिरी खबर आने तक सरकार ने इसे नकारा नहीं थाइन आंकड़ों को स्वतंत्र सर्वेक्षणों (पीएचएफआइऔर विश्व बैंक (2018), डब्ल्यूएचओ (2016), लैंसेट (दिसंबर 2017) और आर्थिक समीक्षा (2017-18) के साथ पढ़ने पर 2020 की शुरुआत में हमें भारतीयों की सेहत और स्वास्थ्य सुविधाओं की जो तस्वीर मिलती है,
वह आने वाले दशक की सबसे बड़ी चिंता होने वाली है. 
·       अस्पताल में भर्ती होने वालों (प्रसव के अलावाकी संख्या लगातार बढ़ रही हैनगरीय आबादी बीमारी से कहीं ज्यादा प्रभावित हैसबसे ज्यादा बुरी हालत महिलाओं और बुजर्गों की हैगांवों में 100 में आठ और नगरों में दस महिलाएं हर पंद्रह दिन में बीमार पड़ती हैंलेकिन अस्पताल में भर्ती होने के मामले में इनकी संख्या पुरुषों से कम हैइसकी एक बड़ी वजह महिलाओं की उपेक्षा हो सकती है 

·       इलाज के लिए निजी अस्पताल ही वरीयता पर हैंकरीब 23 फीसद बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों में और 43 फीसदी का प्राइवेट क्लीनिक में होता हैसरकारी अस्पताल केवल 30 फीसद हिस्सा रखते हैं 

·       केवल 14 फीसद ग्रामीण और 19 फीसद नगरीय आबादी के पास सेहत का बीमा हैग्रामीण इलाकों में निजी बीमा की पहुंच सीमित है

·       और अंततभारत के गांवों में अस्पताल में भर्ती पर (विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए भर्ती अवधि‍ के औसत पर आधारितखर्च 16,676 रुपए है जबकि शहरों में करीब 27,000 रुपए.

तो प्रधानमंत्री आयुष्मान से क्या फर्क पड़ायह स्कीम अभी तो अस्पतालों के फ्रॉडनकली कार्डोंराज्यों के साथ समन्वयबीमा कंपनियों के नखरेइलाज की दरों में असमंजस से जूझ रही है लेकिन दरअसल यह स्कीम भारत की बीमारी जनित गरीबी का इलाज नहीं हैयह स्कीम तो गंभीर बीमारियों पर अस्पतालों में भर्ती के खर्च का इलाज करती हैयहां मुसीबत कुछ दूसरी है.

भारत में हर साल जो 5.5 करोड़ लोग बीमारी की वजह से गरीब हो जाते हैंउनमें 72 फीसद खर्च केवल प्राथमिक चिकित्सा पर हैपीएचएफआइ का सर्वे बताता है कि इलाज से गरीबी की 70 फीसद वजह महंगी दवाएं हैंएनएसएओ का सर्वे बताता है कि भारत में इलाज का 70-80 फीसद खर्च गाढ़ी कमाई की बचत या कर्ज से पूरा होता हैसनद रहे कि शहरों में 1,000 रुपए और गांवों में 816 रुपए प्रति माह खर्च कर पाने वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे आते हैं.

जिंदगी बचाने या इलाज से गरीबी रोकने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क चाहिए जो पूरी तरह ध्वस्त हैभारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बांग्लादेशनेपाल और घाना से भी कम है और डॉक्टर या अस्पताल बनाम मरीज का औसत डब्ल्यूएचओ पैमाने से बहुत नीचे है.
अगर हम हकीकत से आंख मिलाना चाहते हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि

·       रोजगार की कमी और आय-बचत में गिरावट के बीच बीमारियां बढ़ रही हैं और गरीबी बढ़ा रही हैं

·       भारत में निजी अस्पताल बेहद महंगे हैंखासतौर पर दवाओं और जांच की कीमतें बहुत ज्यादा हैं

·       अगले पांच साल में देश के कई राज्यों में बुजुर्ग आबादी में इजाफे के साथ स्वास्थ्य एक गंभीर संकट बनने वाला है

अगर इन हकीकतों को सवालों में बदलना चाहें तो हमें सरकार से पूछना होगा कि जब हम टैक्स भरने में कोई कोताही नहीं करते हैंहर बढ़े हुए टैक्स को हंसते हुए झेलते हैंहमारी बचत पूरी तरह सरकार के हवाले है तो फिर स्वास्थ्य पर खर्च जो 1995 में जीडीपी का 4 फीसद था वह 2017 में केवल 1.15 फीसद क्यों रह गया?