Showing posts with label cognitive biases. Show all posts
Showing posts with label cognitive biases. Show all posts

Friday, April 9, 2021

भरम गति टारे नहीं टरी

 


फिल्म अभि‍नेता अक्षय कुमार को कोविड होने की खबर सुनकर डब्बू पहलवान चौंक पड़े. डब्बू को बीते साल पहली लहर में उस वक्त कोरोना ने पकड़ा था, जब डोनाल्ड ट्रंप बगैर मास्क के घूम रहे थे. पहलवान को लगता था कि उनकी लोहा-लाट मांसपेशि‍यों और कसरती हड्डियों के सामने वायरस क्या टिकेगा? लेकिन कोविड से उबरने के बाद, डब्बू ने मोच उतारने की अपनी दुकान से यह ऐलान कर दिया अगर बगैर मास्क वाला आस-पास भी दिखा तो हड्डी तोड़कर ही जोड़ी जाएगी.

अक्षय कुमार को लेकर पहलवान की हैरत लाजिमी है. डब्बू भाई उन करोड़ों लोगों का हिस्सा हैं जो महामारी की शुरुआती लहरों में आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टि‍मिज्म बायस) का शि‍कार होकर वायरस को न्योत बैठे थे. तब तक बहुत-से लोग यह सोच रहे थे उन्हें कोविड नहीं हो सकता लेकिन अक्षय कुमार के संक्रमित होने तक भारत कोविड से मारों की सूची में दुनिया में तीसरे नंबर पहुंचा चुका था. 

इसके बाद भी महामारी की और ज्यादा विकराल दूसरी लहर आ गई!

कैसे ?

डब्बू पहलवान तो सतर्क हो गए थे लेकिन सितंबर आते-आते लाखों लोग सामूहिक तौर पर उस अति आत्मविश्वास का शि‍कार हो गए जिसका नेतृत्व खुद सरकार कर रही थी. सरकारों ने लॉकडाउन लगाने और उठाने को कोविड संक्रमण घटने-बढऩे से जोड़ दिया जबकि प्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन लगने से कोविड संक्रमण थमने का कोई ठोस रिश्ता आज तक तय नहीं हो पाया.

यहां से भारत की कोविड नीति एक बड़े मनोविकार की चपेट में आ गई जिसे एक्स्पोनेंशि‍यल ग्रोथ बायस कहते हैं. हम समझते हैं कि बढ़त रैखि‍क है जबकि‍ रोज होने वाली बढ़त अनंत हो सकती है. आबादी,  चक्रवृद्धि ब्याज, बैक्टीरिया, महामारियां इसी तरह से बढ़ती हैं.

कहते हैं एक बादशाह से किसी व्यापारी ने अनोखे इनाम की मांग की. उसने कहा कि वह चावल का एक दाना चाहता है लेकिन शर्त यह कि शतरंज के हर खाने में इससे पहले खाने से दोगुने दाने रखे जाएं...64वें खाने का हिसाब आने तक पूरी रियासत में उगाया गया चावल कम पड़ गया!

कितना अनाज हुआ होगा इसका हि‍साब आप लगाइए...हम तो यह बताते हैं कि वैक्सीन उत्सव के बीच इस जनवरी में सरकार को तीसरे सीरो सर्वे की रिपोर्ट मिल चुकी थी. यह सर्वेक्षण कुल आबादी में संक्रमण की वैज्ञानिक पड़ताल है. मई-जून 2020 के बीच हुए पहले सीरो सर्वे में भारत में एक फीसद से कम आबादी संक्रमित थी. दूसरे सर्वे में (अगस्त-सितंबर 2020) 6.6 फीसद लोगों तक संक्रमण पहुंच गया था और इस फरवरी में जब सरकार के मुखि‍या चुनावी रैलियों में हुंकार रहे थे जब 21.7 फीसद आबादी तक यानी कि हर पांचवें भारतीय तक संक्रमण पहुंच चुका था. संक्रमण में मई से फरवरी तक, यह 21 गुना बढ़त थी यानी अनंत (एक्स्पोनेंशि‍यल) ग्रोथ.

यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वानिया के शोधकर्ताओं (हैपलॉन, ट्रग और मिलरजून 2020) ने पाया कि कई देशों में सरकारें तीन बड़े सामूहिक भ्रम का शि‍कार हुई हैं.

सरकारों ने प्रत्यक्ष हानि (आइडेंटिफियबिल विक्टि‍म इफेक्ट) को रोकने की कामयाबी का ढोल पीटने के चक्कर में लंबे नुक्सानों को नजरअंदाज कर दिया. मौतें कम करने पर जोर इतना अधि‍क रहा कि जैसे ही मृत्यु दर घटी, सब ठीक मान लिया गया.

कोविड से निबटने की रणनीतियां प्रजेंट बायस का शि‍कार भी हुईं. कोविड के सक्रिय केस कम होने का इतना प्रचार हुआ कि जांच ही रुक गई. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्रवासी मजदूरों से संक्रमण फैलने की जांच किए बगैर भारत की मजबूत प्रतिरोधक क्षमता का जिंदाबाद किया जाने लगा.

कोविड घटने के प्रचार के बजाए संक्रमि‍तों की आवाजाही पर नजर रखने और टीकाकरण को उसी ताकत से लागू करना चाहिए था जैसे लॉकडाउन लगा था. अलबत्ता लॉकडाउन उठने के साथ पूरी व्यवस्था ही कोविड खत्म होने के महाभ्रम (बैंडवैगन इफेक्ट) का शि‍कार हो गई तभी तो बीते सितंबर में जब दुनिया में दूसरी लहर आ रही थी तब देश के नेता अपने आचरण से बेफिक्र होने लगे थे और मेले, रैलियों, बारातों के बीच लोग मास्क उतारकर कोविड को विदाई देने लगे.

सनद रहे कि भारत में कोविड से मौतें और सक्रिय केस कम (आंकड़े संदिग्ध) हुए थे, संक्रमण नहीं लेकिन लॉकडाउन हटने को कोविड पर जीत समझ लिया गया और सरकार भी वैक्सीन राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकती हुई चुनाव के दौरे पर निगल गई.

सभी मनोभ्रम बुरे नहीं होते. सामूहिक अनुभव (एवेलेबिलिटी बायस) तजुर्बे के आधार पर खतरे को समय से पहले भांपने की ताकत देता है. इसी की मदद से कोरिया, ताईवान जैसे कई देशों ने सार्स की विभीषि‍का से मिली नसीहतों को सहेजते हुए खुद को कोविड से बचा लिया.

अलबत्ता, भारत जहां केवल बीते कुछ माह में 1.65 लाख मौतें हुईं थीं, वहां लोग और सरकार मिलकर संक्रमितों की दैनिक संख्या एक लाख रिकॉर्ड (4 अप्रैल 2021) पर ले आए. इस बार भी कोई मसीहा बचाने नहीं आया, हम खुद के ही हाथों फिर ठगे गए.

Friday, July 31, 2020

देखत जग बौराना



त्थू हलवाई और डोनाल्ड ट्रंप दोनों एक ही भ्रम में थे कि हमें कोरोना कैसे हो सकता है? ट्रंप ने शुरुआत में (अब तक 1.5 लाख मौतें) वायरस को झूठा खौफ कहा था और वे भारत में (अब तक 15 लाख संक्रमण) तालियां बटोरने गांधीनगर गए. दूसरी तरफ मास्क पूछने पर गाली बकने वाले नत्थू समोसे बेचते हुए खुद अस्पताल पहुंच गए और बहुतों को कोविड बांट दिया.

मास्क पहनने वाले, जूम वीडियो की जगह जूम टेक्नो का शेयर खरीद लेने वाले और भारत-चीन के मुखिया की बीते छह बरस में 18 मुलाकातों पर लहालोट होने वालों में अनोखी समानता है. सभी आशावादी पूर्वाग्रह शिकार हैं, जिससे अभिभूत असंख्य भारतीय मानते हैं कि आत्मनिर्भर पैकेज से मंदी यूं गई समझो या बैंकों में रखी उनकी बचत पूरी तरह सुरक्षि है.

मनोविज्ञानियों ने आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टिमिज्म बायस) की खोज 1980 में ही कर ली थी लेकिन हेल्थ और वेल्थ यानी सेहत और निवेश-बचत पर इसके नुक्सानदेह असर के बारे में हाल में ही पता लगा. मानवीय व्यवहारों के नए अध्ययन बताते हैं कि दुनिया के 80 फीसद लोग इसके शिकार हैं. वे अपने ही दिमाग की चालबाजी समझ नहीं पाते. तथ्यहीन आशाओं के कारण इस पूर्वाग्रह के मरीजों को हमेशा लगता है कि मुसीबत उन पर नहीं पड़ोसी पर आएगी. नतीजतन वे गलत फैसले कर बैठते हैं.

संतुलित आशावाद रोगों से लड़ने में मदद करता है लेकिन आज अगर दुनिया में छह लाख लोगों ने कोविड से (1.65 करोड़ बीमार) जान गंवाई हैं तो इसकी वजह यही दंभयुक्त भ्रम है कि कोरोना हमें नहीं हो सकता. यूरोप-अमेरिका में भी बहुतों ने शारीरिक दूरी और मास्क की अहमियत समझने में लंबा वक्त जाया कर दिया.

मनोभ्रमों की दुनिया पुरानी है. आर्थि या शारीरिक (सेहत) जीवन पर इसके असर की पैमाइश अभी शुरू हुई है. इक्कीसवीं सदी की दो आपदाओं ने यह साबित किया कि आशावादी पूर्वाग्रह के कारण तकनीक और ज्ञान से लैस देश भी आपदाओं का आकलन करने में चूक गए.

2008 में किसी को भरोसा नहीं था कि लीमन ब्रदर्स जैसा विराट बैंक डूब जाएगा, जैसे कि 2018 में कौन मान रहा था कि भारत में जेट एयरवेज डूब सकती है. ताली-थाली बजाने वाले दिनों में कोरोना से डराने और स्वास्थ्य सेवा पर सवाल उठाने वाले दुरदुराए जा रहे थे. इसी तरह बहुत लोग आज यह नहीं मानेंगे कि कोविड बैंकों पर बहुत भारी पडे़गा या एलआइसी भी कभी डूब सकती है!

सब चंगा सीवाले भ्रमों-पूवाग्रहों का एक पूरा परिवार है जो गलत फैसले करने पर मजबूर करता है. जैसे सन्नाटों के सिलसिले (स्पाइरल ऑफ साइलेंस) नामक मनोभ्रम को ही लें. चीन कब संदिग्ध नहीं था पर छह साल में जब भारत-चीन समझौते या
चीनी कंपनियों के निवेश हो रहे थे तब सवाल पूछने की बजाए विदेश नीति की कामयाबी के ढोल बजाए जाने लगे. नतीजा
आज सामने आया.

वित्तीय बाजारों के शुक्राचार्य कभी मान ही नहीं सकते थे कि लाइबोर (दुनिया में ब्याज दर तय करने का अंतरराष्ट्रीय पैमाना) को चुराया जा सकता है. लेकिन उनके सामने बैंक डूबे और लाइबोर की फिक्सिंग हो गई. वे सब उपलब्ध तथ्यों के पार देखने को (अवेलेबिलिटी बायस) राजी नहीं थे. तभी तो ज्ञानी जानवरों के झुंड (हर्ड बिहेवियर) इस साल मार्च में जूम वीडियो की जगह जूम टेक्नो के शेयर खरीदने दौड़ पड़े थे.

जीएसटी की तैयारी अधूरी थी लेकिन आशावादी पूर्वाग्रह (ऐसा  मनोभ्रम जिसमें तथ्यों को ही नकार कर, पहले ही नतीजे तय कर दिए जाते हैं) पूरा था. सो, भारत की कथि आर्थिक क्रांति तीन माह में ही ध्वस्त हो गई.

आशावादी पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोगों की भीड़, सामूहिक अज्ञान (प्लुरलिस्टिक इग्नोरेंस) में फंस जाती है. इस तरह के समाज तथ्यों और अतीत के अनुभवों को नकार कर पूर्वाग्रहों के आधार पर सूचनाओं की व्याख्या की आदत डाल लेते हैं और एक मनगढ़ंत सहमति (फॉल्स कन्सेंसस) जन्म लेती है. कुटिल राजनीति के लि यह सबसे बड़ी मन्नत पूरी होने जैसा है. जैसे कि बुनियादी अर्थशास्त्र समझने वाले किसी भी व्यक्ति को पता था कि नोटबंदी के दौरान 95 फीसद मुद्रा बाजार से खींच लेने के बाद अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी पर लोग सवाल उठाने की बजाए पालकी उठाने में लग गए.

मुश्कि यहां तक बढ़ चुकी है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के निर्माताओं के पूर्वाग्रह उनके प्रोग्राम में घुसकर नतीजों को प्रभावित कर रहे हैं.

माया को सत्य की छाया मानने वाला भारतीय दर्शन, संदेह (जैन दर्शन का स्यादवाद) को ज्ञान के केंद्र में रखता है. संशय यानी जागरूकता सेहत और संपत्तिदोनों के लि लाभदायक है. सरकारी दावों और सूचनाओं को नमक चाटकर निगलने वाले हमेशा फायदे में रहे हैं. सवाल उठाने वाले नकारात्मक नहीं हैं. वह उस सुरक्षा चक्र का हिस्सा हैं जो अंधी श्रद्धा को तर्कसंगत विश्वास में बदलता है.

जागते रहिए, कहीं कोई मसीहा नहीं है जो मौके पर प्रकट होकर आपका सब कुछ बिखरने से बचा लेगा.