भारत में जिद्दी महंगाई
के सबसे लंबे दौर के बावजूद दिन बहुरने का आसरा शायद इसलिए कायम
था क्यों कि इतिहास, सरकारों को दर्दनिवारक बताता है। किस्म किस्म की कमजोरियों के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज तरक्की
के तीज त्योहार
लौटने की उम्मीदें इसलिए जिंदा
थीं क्यों कि सरकारों की सूझबूझ से हालात बदलने की नजीरें मिलती हैं। अफसोस ! उम्मीदों की इन सभी डोर रस्सियों को अब कुछ वर्षों के लिए समेट लेने का
वक्त आ गया है। देश का मौद्रिक
प्रबंधक रिजर्व बैंक और राजकोषीय प्रबंधक
वित्त मंत्रालय, लगभग सभी बड़ी लड़ाइयां हार चुके हैं। इस हार का
ऐलान भी हो गया है। दहाई
की महंगाई, छह
फीसदी के इर्द गिर्द विकास दर, कमजोर रुपया, भारी घाटे और एक सुस्त-लस्त-पस्त आर्थिक तरक्की अगले कुछ वर्षों के
लिए नई नियति है यानी भारत का ‘न्यू नॉर्मल’। 2003 से 2008 वाले सुनहले दौर की जल्द वापस आने की संभावनायें अब खत्म हो गई
हैं।
न्यू नॉर्मल मुहावरा दुनिया की
सबसे बड़ी बांड निवेशक कंपनियों में एक पिमोको की देन है। जो 2008 के संकट के बाद
पस्त हुए अमेरिका की आर्थिक हकीकत को बताता था। भारत का न्यू नॉर्मल भी निर्धारित हो गया है। भारत के
आर्थिक प्रबंधन को लेकर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय दो साल से अलग अलग ध्रुवों
पर खडे थे। बीते सप्ताह दोनों के बीच युद्ध विराम