काले धन पर रोक की कोशिशों के शुरुआती नतीजे नकारात्मक हैं लेकिन सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्मत दिखाई है
जोखिम उठाए बिना बड़े तो दूर, छोटे बदलाव भी संभव नहीं हैं, कम से कम गवर्नेंस पर
यह पुरानी सूझ पूरी तरह लागू होती है. दो साल की लानत-मलामत के बाद मोदी सरकार
अंततः नपे-तुले जोखिम लेने लगी है. हमारा संकेत उन कदमों की तरफ है जो काले धन की अर्थव्यवस्था
पर रोक को लेकर पिछले एक साल में उठाए गए हैं. हालांकि उनके शुरुआती नतीजे
नकारात्मक रहे हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्मत दिखाई
है. वित्तीय पारदर्शिता को लेकर पिछले एक साल में तीन
बड़े फैसले हुए, जो नकद लेन-देन सीमित करने, सर्राफा बाजार को नियमों में बांधने और शेयर बाजार के जरिए काले धन की
आवाजाही पर सख्ती करने से जुड़े हैं. इन तीनों कदमों के प्रारंभिक नतीजे वित्तीय और
राजनैतिक चुनौती बनकर सामने आए लेकिन शुक्र है कि सरकार ने प्रॉविडेंट फंड की तरह
कोई पलटी नहीं मारी और जोखिम से जूझने की हिम्मत दिखाई है.
इस साल अप्रैल में आए रिजर्व बैंक
के एक आंकड़े ने बैंकों और अर्थशास्त्रियों का सिर चकरा दिया. रिजर्व बैंक ने बताया
कि वित्तीय सिस्टम में नकदी का प्रवाह अचानक तेजी से बढ़ा है, जिसे तकनीकी शब्दों में करेंसी इन सर्कुलेशन कहा जाता है. यही वह नकदी है
जिसे हम जेब में रखते हैं. 20 मार्च, 2016 तक मौद्रिक प्रणाली में नकदी का स्तर 16.7 खरब
(ट्रिलियन) रुपए पहुंच गया जो पिछले साल मार्च में 14.8 खरब
(ट्रिलियन) पर था. यह बढ़ोतरी करीब 2 खरब (ट्रिलियन) रु. की
है. 2015-16 में करेंसी इन सर्कुलेशन की वृद्धि दर 15.4
फीसदी दर्ज की गई जो पिछले साल केवल 10.7 फीसदी
थी. सिर्फ यही नहीं, अप्रैल, 2015 से
जनवरी, 2016 के बीच एटीएम से निकासी में भी भारी बढ़ोतरी दर्ज
किए जाने के आंकड़ों ने इस नकद कथा के रहस्य को और गहरा दिया.
नकदी में बढ़ोतरी पर रिजर्व बैंक
गवर्नर को भी हैरत हुई. अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई कारण नहीं था जो ऐसा होने की वजह
बनता. मुद्रास्फीति न्यूनतम स्तर पर है, बाजार में मांग
नदारद है, अचल संपत्ति का कारोबार ठप है तो फिर लोग कैश लेकर
क्यों टहल रहे हैं? खास तौर पर उस दौर में जब इलेक्ट्रॉनिक
और मोबाइल बैंकिंग गति पकड़ रही है और सरकार भी बैंकिंग सिस्टम के जरिए ही लोगों को
सब्सिडी पहुंचाने की कोशिश में है.
बैंकिंग विशेषज्ञ इशारा कर रहे
हैं कि बड़े नकद लेन-देन पर सख्ती, सिस्टम में नकदी बढ़ने की
प्रमुख वजह हो सकती हैं. पिछले बजट में अचल संपत्ति सौदों में 20,000 रु. से ज्यादा के नकद एडवांस पर रोक लगा दी गई थी और एक लाख रु. से ऊपर की
किसी भी खरीद-बिक्री पर पैन (इनकम टैक्स का परमानेंट एकाउंट नंबर) दर्ज करना भी
अनिवार्य किया गया था. इस साल जनवरी में आयकर विभाग ने किसी भी माध्यम से दो लाख
रु. से अधिक के लेन-देन पर पैन का इस्तेमाल जरूरी बना दिया और गलत पैन नंबर पर सात
साल तक की सजा अधिसूचित कर दी. इसके साथ ही दो लाख रुपए से ऊपर की ज्वेलरी खरीद पर
भी पैन बताने की शर्त लगा दी गई. इन फैसलों ने काले धन की नकद अर्थव्यवस्था पर चोट
की है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, सिस्टम में नकदी
की बढ़ोतरी नवंबर, 2015 से शुरू हुई जो, जनवरी, 2016 में काले धन पर सख्ती के आदेश लागू होने
तक सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई, यानी लोग सख्ती से बचने के
लिए नवंबर से नकदी जुटाने में लग गए थे.
नकद कारोबार कालेधन को सफेद करने
का बड़ा जरिया है जिसे रोकने की कोशिशें असर तो कर रही हैं लेकिन इसका शुरुआती बुरा
प्रभाव बैंकों पर पड़ा है, जहां जमा की वृद्धि दर 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है. कारोबारी लेन-देन का बड़ा हिस्सा बैंकों से
बाहर होता दिख रहा है. सरकार ने बैंक जमा घटने का जोखिम उठाते हुए नकद लेन-देन पर
सख्ती बरकरार रखी है लेकिन अब बैंकों में जमा को प्रोत्साहन देने की जरूरत है
क्योंकि बैंक भारी दबाव में हैं.
2010 में काले धन पर संसद में
पेश श्वेत पत्र में सरकार ने माना था कि सोने और आभूषण कारोबार का एक बहुत बड़ा
हिस्सा सरकारी तंत्र की नजरों से ओझल रहता है. यह कारोबार, अचल
संपत्ति के बाद भारत में काले धन का सबसे बड़ा ठिकाना है. इस पर टैक्स की दर
न्यूनतम है इसलिए यह धंधा गांवों तक फैला है. वित्त मंत्री ने इस बजट में जब सोने
के आभूषणों पर एक फीसदी की एक्साइज ड्यूटी लगाई तो मकसद राजस्व जुटाना नहीं बल्कि
इस कारोबार को टैक्स की रोशनी में लाना था.
इस फैसले के बाद हड़ताल हुई जो
व्यापक राजनैतिक नुक्सान की वजह बनी, क्योंकि आभूषण
कारोबारी बीजेपी के पारंपरिक वोटर हैं, लेकिन वित्त मंत्री
ने इस जोखिम के बावजूद न केवल फैसला कायम रखा बल्कि स्वीकार किया कि देश में
सोने-चांदी पर टैक्स की दर अनुचित रूप से कम है. इस सख्ती का नतीजा है कि
सोने-चांदी के कारोबार पर ग्राहक (ज्वेलरी खरीद पर पैन का नियम) और विक्रेता
(एक्साइज ड्यूटी) दोनों तरफ से शिकंजा कस गया है.
तीसरा बड़ा फैसला बीते सप्ताह हुआ
है,
जब सरकार ने दोहरा कराधान टालने की संधि को सख्त करते हुए दुरुपयोग
के रास्ते सीमित करने पर मॉरिशस से सहमति बनाई. भारत में टैक्स से बचने के लिए
मॉरिशस के जरिए शेयर बाजारों में बड़ा निवेश होता है, जिसमें
बड़े पैमाने पर काले धन की आवाजाही होती है. कर संधियों का दुरुपयोग रोकने और
उन्हें पारदर्शी बनाने की कोशिशें काफी समय से लंबित थीं. भारत ने करीब 80 देशों के साथ ऐसी संधियां की हैं जिन्हें आधुनिक बनाया जाना है. संधियों
को बदलने का फैसला तात्कालिक तौर पर देश के शेयर बाजार में निवेश को प्रभावित
करेगा लेकिन सरकार ने इस जोखिम को स्वीकार करते हुए यह ऑपरेशन शुरू किया है.
काले धन को लेकर बेसिर-पैर के
चुनावी वादे पर फजीहत झेलने के बाद मोदी सरकार ने ठोस कदमों के साथ आगे बढ़ने का
साहस दिखाया है, जो पिछले दो साल की कम चर्चित लेकिन प्रमुख
उपलब्धि है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकल्प आगे बना रहेगा, क्योंकि काले धन से लड़ाई लंबी और पेचीदा है जिसमें कई आर्थिक और राजनैतिक
चुनौतियां सरकार का इंतजार कर रही हैं.