ताली-थाली और दीया-मोमबत्ती से होते हुए कोविड लॉकडाउन का तीसरा सप्ताह आने तक केंद्र सरकार को अपनी सीमाओं का अहसास होने लगा था. यही मौका था जब भारतीय संविधानसभा की वह जद्दोजेहद कारगर नजर आने लगी, जिसके तहत राज्यों को पर्याप्त शक्तियों से लैस किया गया था. आजादी के बाद सबसे बडे़ संकट में भारत के राज्य अमेरिका की तरह वहां के राष्ट्रपति का सिरदर्द नहीं बने थे बल्कि संघीय ढांचे की ताकत के साथ महामारी से लड़ाई में केंद्र से आगे खडे़ थे.
नतीजतन, लॉकडाउन लगाते समय राज्यों की उपेक्षा करने वाला केंद्र, इसमें ढील से पहले उनसे मशविरे पर मजबूर हुआ और अंतत: कोविड से जंग को पूरी तरह राज्यों और वहां भी सबसे निचली प्रशासनिक इकाइयों के हाथ सौंप दिया गया.
महामारी की इस अंधी सुरंग के बाद कोई सपनीला बसंत हमारा इंतजार नहीं कर रहा है, बल्कि आगे मंदी की खड़ी चढ़ाई है जो महामारी से ज्यादा दर्दनाक और लंबी होगी. उसे जीतने के लिए जीतने का मंत्र, कोविड से लड़ाई ने ही दिया है यानी कि मंदी से जंग की अगुआई राज्यों को सौंपनी होगी.
संयोग से हमारे पास कुछ ऐसे तजुर्बे हैं जो पिछले ढाई दशकों के विकास में राज्यों की मौन लेकिन निर्णायक भूमिका की गवाही देतेहैं.
•1997 से 2014 तक भारत में निजी निवेश का स्वर्ण काल था. वह राजनीति का सबसे अच्छा वक्त नहीं था. केंद्र में ढीली-ढाली सरकारें थीं, राज्यों से राजनैतिक समन्वय ध्वस्त था लेकिन निवेश के लिए राज्यों की होड़ ने रिकॉर्ड बना दिए. भारत की सभी भव्य उद्येाग निवेश कथाएं उसी दौर में लिखी गईं. राज्यों की विकास दर दशकीय आधार पर डेढ़ से दोगुना बढ़ गई, जिसका असर देश के जीडीपी की चमक में नजर आया.
• तब की कमजोर केंद्र सरकारों के तहत ताकतवर राज्यों ने सुधारों का अपनी तरह से इस्तेमाल किया और उद्यमिता को ताकत दी 2019-20 आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 2006 से नोटबंदी के पहले तक देश में नई इकाइयों की संख्या (पंजीकरण)45,000 से 1.25 लाख पहुंच गई. इनमें सेवा क्षेत्र में सबसे ज्यादा नई इकाइयां (करीब छह गुना बढ़त) आईं जो स्थानीयअर्थव्यवस्थाओं की मांग पर केंद्रित थी.
• सशक्त राज्यों के चलते वित्त आयोगों ने केंद्र और राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदला. विकास के साथ राज्यों का अपना राजस्व भी बढ़ा. केंद्रीय बजट बढ़े. नतीजतन 2011 से 2019 के बीच (इक्रा) राज्यों का विकास खर्च 1.7 लाख करोड़ रुपए बढ़कर छह लाख करोड़ रुपए हो गया. करीब 83 फीसद पूंजी खर्च की कमान अब 15 राज्यों के पास है.
महामारी के बाद निवेश का पहिया,राजस्व की चरखी और रोजगारोंकी मशीन चलाने के लिए केंद्र की नई रणनीति में राज्य केंद्रीय होंगे. आर्थिक सुधारों का जो नया दौर अब शुरू होगा (कोई विकल्प नहीं है) उसका नेतृत्व हर हाल में राज्य ही करेंगे.
►राज्यों को जीएसटी के अंतर्गत निवेश आकर्षित करने के लिए टैक्स छूट देने की छूट मिलनी चाहिए ताकि राज्यों के बीच होड़़ शुरू हो सके. यही वह प्रतिस्पर्धा है जिसकी रोशनी में मुख्यमंत्रियों का चेहरा देखकर निवेशक आए. तब उद्योग मेले कम थे लेकिन निवेश ज्यादा था क्योंकि राज्य टैक्स, जमीन, सेवा दरों में तरह-तरह की सहूलत दे सकते थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर इसे कौन जानता होगा. हालांकि उनके केंद्र में आने के बाद राज्यों की ऐसी आजादियां लगभग छिन गईं
►कोविड के कहर के बाद वित्त आयोग को केंद्र-राज्य वित्तीय रिश्तों का नया प्रारूप बनाना होगा. उसे ध्यान रखना होगा कि राज्य 8-9 फीसद ब्याज पर कर्ज उठा रहे हैं
जो रेपो रेट का दोगुना है और होम-कार लोन से महंगा.
राज्यों को केंद्रीय स्कीमों के मकड़जाल ने मुक्त करने, सीधे आवंटन करने और घाटे नियंत्रित करने की नई सीमाओं में बांधना होगा. राज्यों का बॉन्ड बाजार शुरू करना होगा ताकि वह पारदर्शी हो सके और अपनी साख बेहतर कर सस्ता कर्ज ले सकें
जो रेपो रेट का दोगुना है और होम-कार लोन से महंगा.
राज्यों को केंद्रीय स्कीमों के मकड़जाल ने मुक्त करने, सीधे आवंटन करने और घाटे नियंत्रित करने की नई सीमाओं में बांधना होगा. राज्यों का बॉन्ड बाजार शुरू करना होगा ताकि वह पारदर्शी हो सके और अपनी साख बेहतर कर सस्ता कर्ज ले सकें
►पिछले 25 वर्षों में राज्यों में उपक्रमों और सेवाओं का निजीकरणनहीं हुआ, नियामक नहीं बने, संस्थागत सुधार नहीं हुए. केंद्र को यह क्षमताएं विकसित करने में उनकी मदद करनी होगी. उनके ट्रेजरी संचालन चुस्त और बजटों का मानकीकरण करना होगा
अचरज नहीं कि अगर भीमराव आंबेडकर न होते तो विभाजन से डरी संविधानसभा (नेहरू भी) एक बेहद ताकतवर केंद्र वाला संविधान हमें सौंप देती और तब शायद हम इस महामारी से ऐसी लड़ाई नहीं लड़ पा रहे होते. आंबेडकर ने संविधानसभा को संघीय ढांचे और राज्यों को ताकत व अधिकार देने पर राजी किया और संविधान के जन्म के तत्काल बाद अपनी देखरेख में 1951 में वित्तआयोग का गठन भी कराया जो हर पांच साल पर राज्य व केंद्र केआर्थिक रिश्तों का स्वरूप तय करता है.
संविधान ने जिस समृद्ध संघीय ढांचे की राह दिखाई थी उस पर चलने का वक्त आ गया है. केंद्र को अपनी शक्तियां सीमित करनीहोंगी. नई आर्थिक स्वतंत्रता के साथ राज्य ही हमें इस गहरी मंदी निकाल पाएंगे.