कोरोना
वायरस के नए संस्करण ऑमिक्रॉन के हल्ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्यापार संधि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को कहना पड़ा कि
वह भी एक नए व्यापार गठजोड़ की कोशिश शुरु कर रहे हैं. पिछले
अमेरिकी मुखिया डोनल्ड ट्रंप ने टीपीपी
यानी ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप के प्रयासों को कचरे के डब्बे में फेंक दिया
था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.
याद रहे
कि इसी भारत इसी आरसीईपी से बाहर निकल
आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्यवस्थायें इस समझौते का हिस्सा नहीं हैं. चाहे न
चाहे लेकिन चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .
आरसईपी
के आंकड़ों की रोशनी में एशिया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आसियान के दस
देश (ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, लाओस,
मलेशिया, म्यान्मार, फिलीपींस,
सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्सा हैं जबकि आस्ट्रेलिया,
चीन, जापान, न्यूजीलैंड
और दक्षिण कोरिया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्यापार
समझौता है.
दुनिया
की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और
28 फीसदी व्यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है. विश्व व्यापार में हिस्सेदारी के पैमाने इसके करीब पहुंचने वाले व्यापार समझौते में
अमेरिका कनाडा मैक्सिको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं
आरसीईपी
के 15 सदस्य देशों ने अंतर समूह व्यापार के लिए 90 फीसदी उत्पादों पर सीमा शुल्क शून्य कर दिया है..यानी कोई कस्टम ड्यूटी नहीं. संयुक्त राष्ट्र संघ
के व्यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में
निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्लोबल
अर्थव्यवस्था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्या यूरोप यह सुन
पा रहा है कि बकौल अंकटाड, अपने आकार और व्यापार वैविध्य के कारण आरसीईपी दुनिया में व्यापार का नया केंद्र होने वाला
है.
आप
इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या भारत का स्वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशिया की
सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में
सुनते आए हैं. एशिया की वह सदी यकीनन अब
आ पहुंची है
यह है नया एशिया
एशिया
की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय वििवधता के बावजूद एशिया ने यूरोप और अमेरिका की
जगह दुनिया की अर्थव्यवस्था में केंद्रीय स्थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी
के बाद जो आंकडे आए हैं, दुनिया की आर्थिक धुरी बदलने की
तरफ इशारा करते हैं.
कोविड
के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एशियाई अर्थव्यवस्थाओं ने किया. आईएमफ का
आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्यवस्थायें करीब 3.2
फीसदी सिकुड़ी लेकिन एशिया की ढलान केवल
1.5 फीसदी थी. एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में
आईएमएफ ने बताया कि 2021 में एशिया 7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर
से विकास कर करेगा जबकि दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.
2020
में महामारी के दौरान दुनिया का व्यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेकिन ग्लोबल व्यापार
में एशिया का हिस्सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्यादा
हुआ.
2021
में आसियान चीन का सबसे बड़ा कारोबारी
भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत 2019
में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती
है. एशिया का 60 फीसदी व्यापार
और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय है. चीन से कंपनियों के पलायन के दावों की गर्द
अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय और
अमेरिकी चैम्बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपनियां चीन छोड़ कर
नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्याय बंद कर दिया है क्यों कि अधिकांश
बाजार शुल्क मुक्त या डयूटी फ्री हो गए
हैं. इन कंपनियों ज्यादातर उत्पादन
अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता है
बात पुरानी है
एशिया की यह नई ताकत एक
दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सहित कई अलग अलग सर्वे 2018 में ही बता चुके थे कि ग्लोबल टेक्नोलॉजी व्यापार के पैमानेां
पर एशिया सबसे तेज दौड़ रहा है. टेक्नोलॉजी राजस्व की अंतरराष्ट्रीय विकास दर
में 52 फीसदी, स्टार्ट अफ फंडिंग में 43 फीसदी, शोध
विकास फंडिंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी हिस्सा अब एशिया का है.
ब्लूमबर्ग इन्नोवेशन
इंडेक्स 2021 के तहत कोरिया दुनिया के 60
सबसे इन्नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर
हो गया है. यही वजह है कि महामारी के बाद
न्यू इकोनॉमी में एशिया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु
जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यूनिवर्सिटी इनडाउमेंट फंड
काम करने लगेगा जो करीब 90 अरब डॉलर की
शोध परियोजनाओं को वित्तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्व
स्तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.
अलबत्ता एशिया की सदी
का सबसे कीमती आंकड़ा यहां है. अगले एक
दशक दुनिया की आधी खपत मांग एशिया के उपभोक्ताओं से आएगी. मेंकेंजी
सहित कई संस्थाओं के अध्ययन बताते हैं कि यह उपभोक्ता बाजार कंपनियों के लिए
करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है. क्यों कि
2030 तक एशिया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्ता समूह का हिस्सा होगी यानी कि वे
11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति दिन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर
था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्यम व उच्च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030
तक करी 40 फीसदी मांग डिजटिल नैटिव तैयार करेंगे.
दुनिया की कंपनियां इस
बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि से
पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्व निवेश में एक डॉलर एशिया में गया था
और प्रत्येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी
कंपनियों में एशिया से आए राजस्व का हिस्सा
करीब 43 फीसदी था अलबत्ता इस मुकाल पर एशिया
का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है
सबसे बड़ी दरार
एशिया की कंपनियों के
मुनाफे पश्चित की कंपनी से कम हैं. 2005
से 2017 के बीच दुनिया में कारपोरेट घाटों में एशिया की कंपनियों का हिस्सा
सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एशिया की करीब
24 फीसदी कंपनियां ग्लोबल कंपनियों के इकनॉमिक प्रॉफिट सूचकांक में सबसे नीचे
हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपनियां एशिया से आती हैं. एशिया के पास एप्पल, जीएम,
बॉश, गूगल, यूनीलीवर,
नेस्ले, फाइजर जैसे चैम्पियन नहीं हैं.
शायद यही वजह थी एशिया के मुल्कों की कंपनियों ने सरकारों की
हिम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार
हो गए. अगली सदी अगर एशिया की है
तो कंपनियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्त
व्यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद
अगले एक दशक में एशिया में पास भी ग्लोबल चैम्पियन होंगे.
आपसी रिश्ते तय और अपने
लोगों के भविष्य को सुरक्षित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे
नेताओं की तुलना में में एशिया के छोटे देशों ने ज्यादा समझदारी दिखाई है यही
वजह है कि आरसीईपी के तहत चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रतिस्पिर्धियों
का यह पहला कूटनीतिक, व्यापारिक गठजोड़
है. यूरोप
जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार
की एशिया से रोशनी मांगनी पड़ेगी.
भारतीय राजनीति दकियानूसी
बहसों का नशा किये हुए है जबकि इस नई
उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले कि, वह एशिया
की जिस सदी के नेतृत्व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी शुरु होती है अब ...