सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की राजनीतिक लड़ाई ने न्याय व्यवस्था को निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.
राजनैतिक बहसें
चलती रहनी चाहिए. लोकतंत्र के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन को नए सिरे से नापते
रहने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ये बहसें इतनी बड़ी और लंबी नहीं होनी चाहिए कि
व्यवस्था रुक जाए और आम लोग सैद्धांतिक टकरावों के बोझ तले दबकर मरने लगें. भारत
में न्यायपालिका और विधायिका के टकराव में अब लगभग यही स्थिति है. बौद्धिक मनोरंजन
के लिए हम इसे न्यायिक सक्रियता या लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच संतुलन की बहस कह
सकते हैं. अलबत्ता तल्ख हकीकत यह है कि भारत में न्याय का बुनियादी अधिकार
राजनेताओं और न्यायमूर्तियों के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई में फंस गया है और अफसोस कि
लड़ाई हद से ज्यादा लंबी खिंच रही है.
आजादी के समारोह
के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने सीधे प्रधानमंत्री
से ही जजों की नियुक्ति में देरी की कैफियत पूछ ली. फिर भारत में क्रिकेट के
तमामों विवादों के गढ़ बीसीसीआइ के अध्यक्ष और बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर ने क्रिकेट
बोर्ड में पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न केवल चुनौती दी बल्कि
सीधे मुख्य न्यायाधीश की नीयत पर सवाल उठा दिया. यह दोनों घटनाएं बताती हैं कि
पिछले साल न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर सुप्रीम कोर्ट के इनकार के बाद
विधायिका और न्यायपालिका के बीच अविश्वास कितना गहरा चुका है.
ताजा टकराव की
शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जो भ्रष्टाचार पर अदालतों की सख्ती से परेशान थी. यूपीए
सरकार के नेतृत्व में राज्यसभा ने 2013 में न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) विधेयक मंजूर किया था
जो जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (सुप्रीम कोर्ट नियंत्रित) की स्थापना करता
था. इस विधेयक का बीजेपी ने विरोध किया था. 15वीं लोकसभा भंग
होने के कारण विधेयक निष्प्रभावी हो गया. सत्ता में आने के बाद एनडीए ने
अदालतों में नियुक्ति पर नियंत्रण की कांग्रेसी मुहिम को अपनाने में खासी तेजी
दिखाई.
कांग्रेस पहले से
साथ थी, इसलिए नए एनजेएसी
विधेयक पर राजनैतिक सहमति बन गई. आयोग के गठन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई
और अदालत व सरकार के अधिकारों को लेकर कड़वाहट भरी जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट ने
पिछले साल अक्तूबर में न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी को खारिज कर सरकार को
नई न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक प्रकिया बनाने का निर्देश दिया.
इस फैसले के बाद
नई नियुक्तियां शुरू होनी चाहिए थीं लेकिन टकराव का दूसरा चरण एनजेएसी पर अदालत के
निर्णय के बाद शुरू हुआ. सरकार जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की
सिफारिशों को खारिज करने का विशेषाधिकार अपने पास रखना चाहती है और इसे नियुक्ति
की प्रक्रिया में शामिल कराना चाहती है. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट
इससे सहमत नहीं होगा. इसी के चलते हाइकोर्ट में 75 जजों की लंबित
नियुक्ति का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास लंबित है जबकि हाइकोर्ट में अलग-अलग
स्तरों पर करीब 400 न्यायिक पद खाली पड़े हैं.
इंडिया टुडे के 11 मई के अंक में
प्रकाशित शोध एजेंसी ''दक्ष'" के निष्कर्षों के मुताबिक, अदालतों में तीन
करोड़ मामले लंबित हैं. निचली अदालतों में मुकदमे औसतन छह साल और हाइकोर्ट में तीन
साल लेते हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट जाने पर 13 वर्ष लग जाते
हैं. न्याय मांगने वाले, धीमी सुनवाई के कारण अदालतों में सालाना 30,000 करोड़ रु. खर्च
करते हैं.
न्यायाधीशों की
कमी ऐतिहासिक है. मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने मई में ओडिशा हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम
में कहा था कि लंबित मामलों को निबटाने के लिए 70,000 जजों की जरूरत
है, जबकि उपलब्ध जजों
की संख्या केवल 18,000 है. पटना, कोलकाता, हैदराबाद के हाइकोर्ट में जज प्रति दिन 109 से 149 मामलों की
सुनवाई करते हैं यानी औसत दो मिनट में एक सुनवाई पूरी.
दक्ष के इस सर्वे
को पढ़ते हुए न्यायिक सक्रियता की बहस बेमानी लगती है. पांच-छह साल में शायद एक या
दो मुकदमे ही ऐसे होते होंगे जिनमें विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों के
संतुलन पर असर पड़ता हो. देश में 66 फीसदी मामले जमीन विवादों से जुड़े हैं और शेष मामले
बुनियादी अधिकारों को हासिल करने या अपराध पीड़ितों के हैं जिन्हें लेकर संविधान और
कानून में कोई अस्पष्टता नहीं है.
अदालतों और सरकार
के एक दूसरे पर शक और अधिकारों में दखल की लड़ाई भारतीय लोकतंत्र जितनी ऐतिहासिक हो
चली है और इसमें सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं आया है. पिछले 70 साल में
न्यायपालिका का अधिकांश समय सरकारों के साथ राजनैतिक टकरावों में ही बीता है.
नेहरू के दौर में संपत्ति के अधिकार को लेकर अदालती फैसले से लेकर इंदिरा गांधी के
दौर में संसद की सीमाएं तय करने वाले निर्णय और इमरजेंसी तक शायद ही कभी ऐसा हुआ, जब लंबे समय तक
सरकार और अदालतों ने एकजुट होकर काम किया है.
इस लंबे इतिहास
के बावजूद टकराव का ताजा अंक इसलिए ज्यादा परेशान करता है कि क्योंकि लोग पहले से
ज्यादा जागरूक हैं. भ्रष्टाचार मानवाधिकार छीन रहा है और सरकार के प्रति अविश्वास
व राजनीति से मोहभंग के कारण लोकतांत्रिक अधिकार और सेवा के तौर पर न्याय की मांग
सबसे ज्यादा है.
अदालतों में
लंबित मामलों की रोशनी में भारत में न्याय की चुनौती संवैधानिक और कानूनी नहीं है
बल्कि यह बुनियादी ढांचे, श्रम शक्ति और व्यवस्था की चुनौती है जिसे दूर करने के लिए
राजनैतिक बहस नहीं, संसाधन, जज और तकनीक चाहिए. लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे
समय से चल रही सैद्धांतिक खींचतान ने न्याय व्यवस्था को निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.
राजनेताओं और
अदालतों को खुद से यह जरूर पूछना चाहिए कि उनके अधिकारों की बहस क्या इतनी
महत्वपूर्ण है कि इसके चलते लोगों को बुनियादी न्याय मिलना ही बंद हो जाए? क्या हम इन बहसों
को करते हुए भी उन लाखों लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकते, जिन्हें सरकारें
और जज बदलने से फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता अदालतों में एडिय़ां घिसते-घिसते उनकी जिंदगी
खत्म होती जा रही है.