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Sunday, March 19, 2023

सबसे बड़ी स्‍कीम का रिपोर्ट कार्ड


यद‍ि आप से पूछा जाए कि आग की खोज और पहिये यानी व्‍हील के आव‍िष्‍कार के बाद दुनिया की सबसे क्रांतिकारी घटना कौन सी थी

आसानी से जवाब नहीं मिलेगा आपको

क्‍यों कि गुफाओं से निकले मानव के करीब बारह हजार साल के इति‍हास में क्‍या कुछ नहीं घटा है

अबलत्‍ता अगर किसी आर्थिक इतिहासकार से पूछें तो वह कहेगा कि आग की खोज और पहिये आवि‍ष्‍कार के बाद ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति थी

इससे पहले तक दुनिया की आबादी कृष‍ि पर निर्भर थी, आबादी बढ़ती थी तो खाना कम फिर आबादी कम होती थी और फिर अनाज उत्‍पादन के साथ बढ़ती थी. इस चक्‍कर को माल्‍थेस‍ियन ट्रैप कहगा गया जिसे  पहले पहले जनसंख्‍याविद और अर्थशास्‍त्री थॉमस माल्‍थस ने समझाया था.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के बाद 1760 से खेती से लोग बाहर निकले, प्रति व्‍यक्‍त‍ि आय बढ़ी,जीवन स्‍तर बेहतर हुआ और आबादी संतुलित हुई. यहीं से राजनीतिक संस्‍थायें बनना शुरु होती हैं.

आप कहेंगे कि इस यह सब याद दिलाने का मकसद क्‍या है

मकसद है जनाब क्‍यों कि इसके बाद औद्योगिक तरक्‍की के लिहाज से दुनिया की से चमत्‍कारिक क्रांति कौन सी थी?

चीन का चमत्‍कार  

यह था चीन का औद्योगीकरण जो ब्रिटेन में मशीनों की खटर पटर शुरु होने के करीब 250 साल बाद आया.

2017 में विकास दर में पहली गिरावट और कोविड के साथ दूसरी बडी गिरावट तक 35 साल में चीन ने दुनिया की करीब 20 फीसदी आबादी को औद्योगीकरण के दायरे में पहुंचा दिया. यह करिश्‍मा पहली बार हुआ.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को दोहराने की कोश‍िशें

उत्‍तरी यूरोप से लेकर अमेरिका और पूर्वी एश‍िया कोरिया व ताइवान तक हुईं. कुछ जगह कामयाबी मिली कुछ जगह नहीं. प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय  बढ़ोत्‍तरी उतनी नहीं दिखी जितनी कि अमेरिका में थी, ठीक इसी तरह चीन की क्रांति से सीखने की कोश‍िश कई जगह चल रही है.

 

चीन का मॉडल

भारत ने इसी क्रांति से सबक मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग में निवेश बढ़ाने की मुहिम शुरु की. क्‍यों कि फैक्‍ट्र‍ियां लगेंगी तो उत्‍पादन और रोजगार बढेगा. निर्यात बढेगे और मिलेगा तेज आर्थ‍िक विकास. बात शुरु हुई थी विदेशी निवेश खोलने से, फिर दी गई तमाम उद्योग को र‍ियायतें मगर बात बनी नहीं.

विकास होना था मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग था जिससे रोजगार आने थे लेक‍िन सेवा क्षेत्र में ज्‍यादा तेज बढ़त हुई. चीन की तर्ज पर उद्योगों केा बुलाने और निर्यातोन्‍मुख उत्‍पादन करने की मुहिक मेक इन इंडिया से होते हुए अब उस नई स्‍कीम पर आ टिकी जिसे पीएलआई या प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेटिव कहते हैं.

यह भारत के इतिहास सबसे बड़ी एक मुश्‍त औद्योग‍िग प्रोत्‍साहन योजना है, जिसमें 15 अलग अलग उद्योगों में  कंपनियों को उत्‍पादन के लिए सरकार के बजट से अगले पांच साल में करीब 1.93 लाख करोड़ की सीधी नकद मदद दी जाएगी है. यह प्रोत्‍साहन अलग अलग उद्योगों के लिए उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों को पूरा करने के बदले मिलेगा. सनद रहे कि यह रियायतें अन्‍य टैक्‍स, निवेश  आदि की रियायतों के अलावा है जो सभी उद्येागों को मिलते हैं. 

इन रियायतों की पहली किश्‍त के तहत करीब 400 करोड़ रुपये ताइवान की कंपनी फॉक्‍सकॉन और भारत की कंपनी डिक्‍सन टेक्‍नोलॉजीज  को दिये गए हैं. फॉक्‍सकॉन भारत में एप्‍पल फोन बनाती है. इस कंपनी ने  एक अगस्‍त 2021 से 31 मार्च 2022 के बीच 15000 करोड़ का उत्‍पादन किया.  ड‍ि‍क्‍सन समूह की कंपनी करीब 58 करोड़ का प्रोत्‍साहन भुगतान हुआ है. यह कंपनी भी इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद बनाती है.

पंद्रह अलग अलग उद्योगों में उत्‍पादन के लिए सीधी नकद मदद देनी वाली इस स्‍कीम को अब 32 महीने पूरे हो रहे हैं.

बजट से पहले देखना च‍ाहि‍ए कि कहां तक पहुंची चीन के मॉडल को आजमाने  की यह मुहिम

प्रोत्‍साहनों सबसे बडा मेला

उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारत की सबसे बड़ी प्रत्‍यक्ष निवेश और निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम यानी पीएलाआई का आव‍िष्‍कार बडे अजीबोगरीब ढंग से हुआ. 

बात नवंबर 2019 की है. जब भारत डब्‍लूटीओ की अदालत में एक बड़ी लड़ाई हार गया. अचरज होगा कि इस वक्‍त भारत और अमेरिका यानी मोदी और ट्रंप के रिश्‍तों की बड़ी गूंज थी लेक‍िन अमेरिका ने भारत को डब्‍लूटीओ में धर रगड़ा और मोदी सरकार भारत की सभी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें चार माह के भीतर बंद करनी पड़ीं. 

उस वक्‍त तक मर्चेंडाइज एक्‍सपोर्ट्स ऑफ इंड‍िया (एमईआईएस) भारत की सबसे बड़ी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम थी जिसमें निर्यात योग्‍य उत्‍पादन पर लगने वाले कच्‍चे माल और सेवाओं पर टैक्‍स की वापसी की जाती थी. इस स्‍कीम के तहत 2019-20 में बजट  करीब 40000 करोड़ रुपये टैक्‍स के वापसी की गई.

मोदी सरकार ने 2015 में पांच निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें मिलाकर इसे बनाया था. अगले दो साल में निर्यात को इससे कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ. 2019 में एक और स्‍कीम लाई गई जिसका नाम भी रेमिशन ऑफ ड्यूटीज एंड टैक्‍सेस ऑन एक्‍सपोर्ट प्रोडक्‍टर (आरओडीटीपी). इसके बाद भी निर्यात नहीं बढ़े. निर्यात में जो बढ़त दिखी वह  कोविड के दौरान ही थी.  

 

इस बीच 2019 में निर्यात प्रोत्‍साहन बंद करने पड़े. जिसके बाद सरकार ने एमईआएस की जगह यह स्‍कीम शुरु की. जिसमें उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों पर चुनिंदा उद्योगों को बजट से सीधा प्रोत्‍साहन मिलेगा. इसमें करीब 15 उद्योगों शामिल किया गया.

लेन देन का हिसाब किताब

अब तक पंद्रह उद्योगों के लिए उपलब्‍ध  इस स्‍कीम से 2027 तक करीब 2.5 से 3 लाख करोड़ का पूंजी निवेश लाने का लक्ष्‍य रखा गया है. स्‍कीम के नियामक मानते हैं कि प्रमुख उद्योगों का करीब 13 से 15 फीसदी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आएगा और पांच साल में करीब 37-38 लाख करोड़ का अत‍िरिक्‍त उत्‍पादन होगा. सरकार मान रही है कि पीएलआई भारत के नॉम‍िनल जीडीपी में हर साल करीब 1.1 फीसदी की बढोत्‍तरी करेगी.

लक्ष्‍यों का क्‍या है, सुहाने ही होते हैं 

पीएलआई स्‍कीम में लगभग 11 उद्योगों में 60 फीसदी पूंजी निवेश के प्रस्‍ताव भी मंजूर हो चुके हैं मगर नतीजों को लेकर तस्‍वीर साफ नहीं हैं. पूरे परिदृश्‍य को आंकड़ों को मदद से धुंध रहित करना होगा.  क्रेडिट सुइसी, क्रि‍स‍िल और केयर रेटिंग्‍स ने हाल में पीएलआई स्‍कीम पर कुछ कीमती विश्‍लेषण पेश किये हैं जो मैन्‍युफैक्‍चरिंग को लेकर भारत के इस सबसे बडे और महंगे दांव की चुनौतियों सफलताओं को समझने में हमारी मदद करते हैं क्‍यों अंतत: सफलता इस बात से तय होगी कि क‍ितना निवेश हुआ और आए क‍ितने रोजगार?

पीएलआई स्‍कीम में आए प्रस्‍ताव तीन वर्गों में है.

पहला हिस्‍सा असेम्‍बलिंग में निवेश का है. यानी पुर्जे आयात कर उन्‍हें जोड़ने की फैक्‍ट्र‍ियां. मोबाइल, कंप्‍यूटर और टेलीकॉम हार्डवेयर में आया और संभावित न‍िवेश इसी वर्ग का है. इस वर्ग के तहत 2027 तक करीब 2108 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश पर सरकार सरकार करीब 8000 मिल‍ियन डॉलर के प्रोत्‍साहन देने का प्रस्‍ताव किया है. इस वर्ग के उत्‍पादन से सालाना  कुल 38000 मिल‍ियन डॉलर के बिक्री (निर्यात और घरेलू बाजार में बिक्री) टर्नओवर की उम्‍मीद है.

दूसरा हिस्‍सा ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है जिसमें नई मैन्‍युफैक्‍चरिंग शुरु की जानी है. सोलर, बैटरी, बल्‍क ड्रग, चिक‍ित्‍सा उत्‍पाद इस वर्ग में आते हैं. इस निवेश से नई तकनीक आने का उम्‍मीद लगाई गई है. इन्‍हीं के जरिये आयात पर निर्भरता भी कम होगी.

तीसरा और सबसे बडा हिस्‍सा कंपनियों के नियम‍ित पूंजी निवेश का है. जिसमें आटोमोबाइल, फूड, कपड़ा, फार्मा, उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स जैसे  टीवी फ्र‍िज और स्‍टील आद‍ि शामिल हैं. इनमें कुछ कंपनियों ने स्‍कीम की शर्तों को स्‍वीकारते हुए निवेश का प्रस्‍ताव मंजूर कराया है.

पीएलआई का रिपोर्ट कार्ड

इस स्‍कीम की अब तक की कामयाबी का पहला पैमाना पूंजी निवेश है, जिस पर सारा दारोमदार है. बीते दो बरस में अध‍िकांश पूंजी उन उद्योगों में आई है जहां कंपनियां पहले परियोजनायें चला रही हैं जैसे कि आटोमोबाइल और स्‍टील. नए उत्‍पादन में पीवी माड्यूल और  बैटरी प्रमुख है जहां ज्‍यादा संभावनायें बनती दिख रही हैं. यहां रिलायंस, एलंडटी और ओला जैसी बड़ी कंपनियों ने भी प्रस्‍ताव मंजूर कराये हैं. अगर यहां निवेश के नतीजे आए तो भारत में बैटरी की बडी क्षमतायें बन सकती हैं. अब तक मंजूर हुए कुल निवेश प्रस्‍तावों का 48 फीसदी हिस्‍सा जो क्रियान्‍वयन में है वह स्‍टील आटो, बैटरी और सोलर मॉड्यूल में केंद्रित है

अब दूसरा पैमाना जहां नतीजे मिले जुले है. नई इकाइयों को लेकर  दुनिया की बडी तकनीकी कंपनियों में निवेश में रुच‍ि नहीं ली है. बैटरी और सोलर पैनल में कोई बडी ग्‍लोबल कंपनी अब तक नहीं आई है इसलिए तकनीकी हस्‍तांतरण में पीएलआई का फायदा मिलता नहीं दिख रहा. अलबत्‍ता मोबाइल असेम्‍बली, कंप्‍यूटर हार्डवेयर और उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स में विदेशी बहुराष्‍ट्रीय कंपन‍ियों ने निवेश में रुच‍ि ली है. इनमें से कई कंपनियां पहले से भारत में हैं.

अब तीसरा पैमाना है उत्‍पादन में वैल्‍यू एडीशन का यानी मौजूदा उत्‍पादन को बेहतर करना. बैटरी स्‍टील फार्मा आदि क्षेत्रों में उत्‍पादों में वैल्‍यू एडीशन की गुंजाइश है मगर क्रेडिट सुइसी का मानना है कि इसके लिए स्‍कीम में और जयादा प्रोत्‍साहन और स्‍पष्‍टता जरुरी है.  यदि एसा होता है तो 2027 तक करीब 18 अरब डॉलर का वैल्‍यू एडीशन मिल सकता है. of GDP.

क्रेडिट सुइसी का मानना है कि मौजूदा हालात में यह स्‍कीम 2025 तक 70 अरब डॉलर के कुल कारोबार के साथ जीडीपी में करीब 0.7 फीसदी का अतिरिक्‍त योगदान कर सकती है. जबक‍ि क्रिसिल का आकलन है कि 2025 तक देश के प्रमुख उद्योगों में 13 से 15 फीसदी पूंजी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आ सकता है.

भारत के लिए यह स्‍कीम बड़ा और शायद आख‍िरी मौका है. दुनिया में घटती विकास दर और लंबी चलने वाली महंगाई की रोशनी में उत्‍पादन का ढांचा बदल रहा है. कई देश अपने यहां जरुरी सामानों की उत्‍पादन क्षमतायें तैयार कर रहे हैं जिनके लिए वह आयात पर निर्भर थे. भारत में इस स्‍कीम की सफलता के लिए केवल दो वर्ष हैं और यह इस बात से तय होगा कि चीन की तुलना में कितने बडे ब्रांड और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां भारत आते हैं. क्‍यों कि उनके जरिये ही भारत ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा बन सकता है.

सबसे कठिन पहेली

हम वापस ब्रिटेन और चीन की औद्योगिक क्रांति की तरफ लौटते हैं. क्‍यों इनकी रोशनी में यह समझना आसान है कि औद्योगिक क्रांत‍ियां इतनी कठिन क्‍यों होती हैं और क्‍यों हर देश में ब्रिटेन या चीन दोहराया नहीं जा पाता. औद्योगिक निवेश को लेकर बीते कुछ वर्षों में नए संदर्भों में अध्‍ययन हुए हैं. जिनसे पता चला है कि ब्रिटेन, अमेरिका, जापान और चीन में औद्योगिक विकास का मॉडल लगभग एक जैसा था. इस चारों ही अर्थव्‍यवस्‍थाओं में प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन का अतीत था यानी व्‍यापक शुरुआती ग्रामीण और कुटीर उद्योग. ब्रिटेन में 1600 से 1760 के बीच अमीर व्‍यापार‍ियों ने छोटे उद्योग में निवेश किया था. इसने औदयोगिक क्रांति को आधार दिया. यही समय था जब जापान में इडो और प्रारंभिक मेइजी युग (1600 से 1800) में ग्रामीण उद्योग फल फूल रहे थे. अमेरिका में 1820 में  प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन गांवों कस्‍बों में उभर आया था जो 19 वीं सदी के अंत में रेल रोड के विकास से औद्योगिक क्रांति का हिससा बन गया. और अंत में चीन जहां 1978 से 1988 के बीच गांवों में लाखो छोटे उद्योग थे जो देंग श्‍याओ पेंग की औद्योगिक क्रांति‍ का आधार बने

दुनिया के अन्‍य देश जहां मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्रांति की कोशिश परवान नहीं चढ़ी वहां शायद ब्रिटेन अमेरिका जापान या चीन जैसा ग्रामीण कुटीर उद्योग अतीत नहीं था. मगर भारत के पास व्‍यापार का पुराना अतीत रहा है और

आजादी के बाद बढती खपत के साथ भारत में छोटे उद्योग बड़े पैमाने पर उभरे थे. अबलत्‍ता औद्योगीकरण की ताजा कोशि‍शों में  इनकी कोई भूमिका नहीं दिखती. यह पूरी क्रांति कहीं पीछे छूट गई.  

 पीएलआई यानी अब तक की सबसे बड़ी निवेश प्रोत्‍साहन योजना अगर भारत के औद्योगिक परिदृश्‍य में नए छोटे निर्माता, सप्‍लायर और सेवा प्रदाता जोड़ सकी तो क्रांति हो पाएगी नहीं तो सरकारी मदद के सहोर चुनिंदा कंपनियों के एकाध‍िकार और बढ़ते जाने का खतरा ज्‍यादा बड़ा है 

डर के आगे जीत है


 

 

इटली के धुर पश्‍च‍िम में सुरम्‍य टस्‍कनी में एक बंदरहगार शहर है ल‍िवोनो

यूरोप के बंदरगाहों पर कारोबारियों की पुरानी खतो किताबत में लिवोनो के बारे में एक अनोखी जानकारी सामने आई

17वीं सदी में  ल‍िवोनो एक मुक्‍त बंदरगाह था. यह शहर यहूदी कारोबार‍ियों का गढ़ था यह शहर जो भूमध्‍यसागर के जरिये पूरी दुनिया में कारोबार करते थे

इन्‍हीं कारोबा‍र‍ियों था इसाक इर्गास एंड सिल्‍वेरा ट्रेड‍िंग हाउस. यह इटली के और यूरोप के अमीरों के लिए भारतीय हीरे मंगाता था

इर्गास एंड सिल्‍वेरा ठीक वैसे ही काम करते थे जैसे आज की राल्‍स रायस कार कंपनी करती है जो ग्राहक का आर्डर आने के बाद उसकी जरुरत और मांग पर राल्‍स रायस कार तैयार करती है.

ल‍िवोनो के यहूदी कारोबारियों के इतिहास का अध्‍ययन करने वाले इतालवी विद्वान फ्रैनेस्‍का टिवोलाटो लिखते हैं कि इर्गास एंड सिल्‍वेरा भारत ग्राहकों की पसंद के आधार पर भारत में हीरे तैयार करने का ऑर्डर भेजते थे. भारतीय व्‍यापारी इटली की मुद्रा लीरा में भुगतान नहीं लेते थे. उन्‍हें मूंगे या सोना चांदी में भुगतान चाहिए थे

इर्गास एंड सिल्‍वेरा मूंगे या सोने चांदी को लिस्‍बन (पुर्तगाल) भेजते थे जहां से बडे जहाज ऑर्डर और पेमेंट लेकर भारत के लिए निकलते थे. मानसूनी हवाओं का मौसम बनते ही लिस्‍बन में जहाज पाल चढाने लगते थे. हीरों के ऑर्डर इन जहाजों के भारत रवाना होने से पहले नहीं पहुंचे तो फिर हीरा मिल पाने की उम्‍मीद नहीं थी.

डच और पुर्तगाली जहाज एक साल की यात्रा के बाद भारत आते थे जहां कारोबारी मूंगे और सोना चांदी को परखकर हीरे देते थे. जहाजों को वापस लिस्‍बन लौटने में फिर एक साल लगता था. यानी अगर तूफान आदि में जहाज न डूबा तो करीब दो साल बाद यूरोप के अमीरों को उनका सामान मिलता था. फिर भी यह दशकों तक यह कारोबार जारी रहा

भारत के सोने की चिड़‍िया था मगर वह बनी कैसे?

भारत में सोने खदानों का कोई इतिहास नहीं है ?

इस सवाल का जवाब लिवोनो के दस्‍तावेजों से  मिलता है.  14 ईसवी के बाद यूरोप और खासतौर पर रोम को भारत के मसालो और रत्‍नो की की लत लग गई थी. रोम के लोग विलास‍िता पर इतना खर्च करते थे  सम्राट टिबेर‍ियस को कहना पडा कि रोमन लोग अपने स्‍वाद और विलास‍िता के कारण देश का खजाना खाली करने लगे हैं. यूरोप की संपत्‍त‍ि भारत आने का यह यह क्रम 17 वीं 18 वीं सदी तक चलता रहा.

18 वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली अफ्रीका और फिर लैट‍िन अमेरिका से सोना हासिल करने लगे थे. इतिहास के साक्ष्‍य बताते हैं कि 1712 से 1755 के बीच हर साल करीब दस टन सोना लिस्‍बन से एश‍िया खासतौर पर भारत आता था  जिसके बदले जाते थे मसाले, रत्‍न और कपड़े.

यानी भारत को सोने की च‍िड़‍िया के बनाने वाला सोना न तो भारत में निकला था और न लूट से आया था. भारत की समग्र एतिहासिक समृद्ध‍ि केवल विदेशी कारोबार की देन थी.

आज जब भारत में व्‍यापार के उदारीकरण, विदेशी निवेश और व्‍यापार समझौतों को लेकर असमंजस और विरोध देखते हैं तो अनायास ही सवाल कौंधता है कि हम अपने इतिहास क्‍या कुछ भी सीख पाते हैं. क्‍यों कि अगर सीख पाए होते मुक्‍त व्‍यापार संध‍ियों की तरफ वापसी में दस साल न लगते.

 

एक दशक का नुकसान

आखि‍री व्‍यापार समझौता फरवरी 2011 में मलेश‍िया के साथ हुआ था. 2014 में आई सरकार सात साल तक संरंक्षणवाद के खोल में घुस गई इसलिए अगला समझौता के दस साल बाद फरवरी 2022 में अमीरात के साथ हुआ. इस दौरान दुनिया में व्‍यापार की जहाज के बहुत आगे निकल गए.  कोविड के आने तक दुनिया में व्‍यापार का आकार दोगुना हो गया था.

 भारत जिस वक्‍त अपने दरवाजे बंद कर रहा था यानी 2013 के बाद मुक्‍त व्‍यापार से पीछे हटने के फैसले हुए उसके के बाद दशकों में दुनिया की व्‍यापार वृद्ध‍ि दर  तेजी से बढ़ी. अंकटाड की 2021 इंटरनेशनल ट्रेड रिपोर्ट बताती है कि कोविड आने तक दुनिया व्‍यापार में विकसति और विकासशील देशों का का हिस्‍सा लगभग बराबर हो गया था. चीन और रुस के ब्रिक्‍स देश इस बाजार में बड़े हिस्‍सेदार हो गए थे जबकि भारत बड़ा आयातक बनकर उभरा था

 देर आयद मगर दुरुस्‍त नहीं

बाजार बंद रखने का सबसे बडा नुकसान हुआ है. यह कई अलग अलग आंकड़ों में दिखता है निर्यात की दुनिया जरा पेचीदा है. इसमें अन्‍य देशों से तुलना करने कई पैमाने हैं. जैसे कि कि दुनिया के निर्यात में भारत का हिस्‍सा अभी भी केवल 2 फीसदी है. इसमें भी सामनों यानी मर्चेंडाइज निर्यात में हिस्‍सेदारी तो दो फीसदी से भी कम है. सामानों का निर्यात निवेश और उत्‍पादन का जरिया होता है.

विश्‍व न‍िर्यात में चीन अमेरिका और जर्मनी का हिस्‍सा 15,8 और 7 फीसदी है. छोटी सी अर्थव्‍यवस्‍था वाला सिंगापुर भी दुन‍िया के निर्यात हिस्‍सेदारी में भारत से ऊपर है. निर्यात को अपनी ताकत बना रहे इंडोनेश‍िया मलेश‍िया वियतनाम जैसे देश भारत के आसपास ही है. मगर एक बड़ा फर्क यह है कि इनकी

जीडीपी के अनुपात में  निर्यात 45 से 100 फीसदी तक हैं. दुनिया के 130 देशों में निर्यात जीडीपी का अनुपात औसत 43 फीसदी है भारत में यह औसत आधा करीब 20 फीसदी है. 

निर्यात के ह‍िसाब का एक और पहलू यह है कि किस देश के निर्यात  में मूल्‍य और मात्रा का अनुपात क्‍या है. आमतौर पर खन‍िज और कच्‍चे माल का निर्यात करने वाले देशों के निर्यात की मात्रा ज्‍यादा होती है. यह उस देश में निवेश और वैल्‍यूएडीशन की कमी का प्रमाण है. भारत के मात्रा और मूल्‍य दोनों में पेट्रो उत्‍पादों का नि‍र्यात सबसे बड1ा है लेक‍िन इसमें आयातित कच्‍चे माल बडा हिस्‍सा है

इसके अलावा ज्‍यादातर निर्यात खन‍िज या चावल, गेहूं आद‍ि कमॉडिटी का है. मैन्‍युफैक्‍चरिंग निर्यात तेजी से नहीं बढे हैं. बि‍जली का सामान प्रमुख फैक्‍ट्री निर्यात है. मोबाइल फोन का निर्यात ताजी भर्ती हैं लेक‍िन यहां आयाति‍त पुर्जों पर निर्भरता काफी ज्‍यादा है.

पिछले दशकों में निर्यात का ढांचा पूरी तरह बदल गया है. श्रम गहन (कपडा, रत्न जेवरात और चमड़ा) निर्यात पिछड़ रहे हैं. भारत ने रिफाइनिंग और इलेक्ट्रानिक्स में कुछ बढ़त ली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है और प्रतिस्पर्धा गहरी है.

कपड़ा या परिधान उद्योग इसका उदाहरण है जो करीब 4.5 करोड लोगों को रोजगार देता है और निर्यात में 15 फीसदी हिस्सा रखता है. 2000 से 2010 के दौरान वि‍श्व कपडा निर्यात में चीन ने अपना हिस्सा दोगुना (18 से 36%) कर लिया जबकि भारत के केवल 3 फीसदी से 3.2 फीसदी पर पहुंच सका. 2016 तक बंग्लादेश (6.4%) वियतनाम (5.5%) भारत (4%) को काफी पीछे छोड़ चुके थे.

शुक्र है समझ तो आया

इस सवाल का जवाब सरकार ने कभी नहीं दिया कि आख‍िर जब दुनिया को निर्यात बढ रहा तो हमने व्‍यापार समझौते करने के क्‍यों बंद कर दिये. भारत के ग्‍लोबलाइजेशन का विरोध करने वाले कभी यह नहीं बता पाए कि आख‍िर व्‍यापार समझौतों से नुकसान क्‍या हुआ

दुनिया के करीब 13 देशों साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापार समझौते और 6 देशों के साथ वरीयक व्‍यापार संध‍ियां इस समय सक्रिय हैं. आरसीईपी में भारत संभावनाओं का आकलन करने वाली भल्ला समिति ने आंकड़ों के साथ बताया है कि सभी मुक्त  व्यापार  समझौते  भारत  के  लिए  बेहद  फायदेमंद रहे हैंइनके  तहत  आयात और निर्यात  ढांचा संतुलित है  यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.

जैसे कि 2009  आस‍ियान के साथ भारत का एफटीए सबसे सफल रहा है. फ‍िलि‍प्‍स कैपटिल की एक ताज रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल निर्यात आस‍ियान का हिस्‍सा करीब 10 फीसदी है. आस‍ियान में सिंगापुर, मलेश‍िया इंडोनेश‍िया और वियतनाम सबसे बड़े भागीदार है. अब चीन की अगुआई वाले महाकाय संध‍ि आरसीईपी में इन देशों के शामिल होने के बाद भारत के निर्यात में चुनौती मिलेगी क्‍यों इस संध‍ि के देशों के बीच सीमा शुल्‍क रहित मुक्‍त व्‍यापार की शुरुआत हो रही है.

2004 का साफ्टा संधि जो दक्ष‍िण एश‍िया देशों साथ हुई उसकी हिस्‍सेदारी कुल निर्यात में 8 फीसदी है. यहां बंग्‍लादेश सबसे बडा भागीदार है.

 

कोरिया के साथ व्‍यापार संधि में निर्यात बढ़ रहा है लेक‍िन भारत जापान मुक्‍त व्‍यापार संध‍ि से निर्यात को बहुत फायदा नहीं हुआ. जापान जैसी विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍था को भारत का निर्यात बहुत सीमि‍त है.

अमीरात के साथ मुक्‍त व्‍यापार समझौते के साथ दरवाजे फिर खुले हैं. यह भारत का तीसरा सबसे बडा व्‍यापार भागीदार है लेक‍िन निर्यात में बड़ा हिस्‍सा मिन‍िरल आयल , रिफाइनरी उत्‍पाद, रत्‍न -आभूषण और बिजली मशीनरी तक सीमित है.  इस समझौते के निर्यात का दायरा बड़ा होने की संभावना है

इसी तरह आस्‍ट्रेल‍िया जो भारत के न‍िर्यात भागीदारों की सूची में 14 वें नंबर पर है. उसके साथ ताजा समझौते के बाद  दवा, इंजीन‍ियर‍िंग चमड़े के निर्यात बढ़ने की संभावना है.

व्‍यापार समझौते सक्रिय होने और उनके फायदे मिलने में लंबा वक्‍त लगता है. भारत में इस राह पर चलने के असमंजस में पूरा एक दशक निकाल द‍िया है वियतनाम ने बीते 10 सालों में 15 मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) किये हैं जबकि 20 शीर्ष व्‍यापार भागीदारों में कवेल सात देशों के साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापर समझौते हैं. बंगलादेश, इंडोनेश‍िया और वियतनाम से व्‍यापार में वरीयता मिलती है.  यूके कनाडा और यूरोपीय समुदाय के साथ बातचीत अभी शुरु हुई है

मौका भी जरुरत भी

वक्‍त भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को फिर एक बडे निर्णायक मोड़ पर ले आया है. बीते दो दशक की कोश‍िशों के बावजूद भारत में मैन्‍युफैक्‍चरिग में बहुत बड़ा निवेश नहीं हुआ. रोजगारों में बड़ा हिस्‍सा सेवाओं से ही आया फैक्‍ट्र‍ियों से नहीं. 2011 के बाद आम लोगों की कमाई में बढ़त धीमी पडती गई इसलिए जीडीपी में उपभोग चार्च का हिस्‍सा अर्से से 55 -60 फीसदी के बीच सीमित है.

अब भारत को अगर पूंजी निवेश बढ़ाना है तो उसे अपेन घरेलू बाजार में मांग चाहिए. मांग के लिए चाहिए रोजगार और वेतन में बढ़त.

मेकेंजी की रिपोर्ट बताती है कि  करीब छह करोड़ नए बेरोजगारों और खेती से बाहर निकलने वाले तीन करोड़ लोगों को काम देने के लिए भारत को 2030 तक करीब नौ करोड़ नए रोजगार बनाने होंगे. यदि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का असंतुलन दूर किया जाना है तो इनमें करीब 5.5 करोड़ अति‍रिक्त रोजगार महिलाओं को देने होंगे

2030 तक नौ करोड रोजगारों का मतलब है 2023 से अगले सात वर्ष में हर साल करीब 1.2 करोड़ रोजगारों का सृजन. यह लक्ष्य कितना बड़ा है इसे तथ्य की रोशनी में समझा जा सकता है कि 2012 से 2018 के बीच भारत में हर साल केवल 40 लाख गैर कृषि‍ रोजगार बन पाए हैं.

कृषि से इतर बड़े पैमाने पर   रोजगार (2030 तक नौ करोड़ गैर कृषि‍ रोजगार) पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था को सालाना औसतन 9 फीसद की दर से बढ़ना होगा. अगले तीन चार वर्षों में यह विकास दर कम से 10 से 11 फीसदी होनी चाहिए. 

 

यह विकास दर अकेले घरेलू मांग की दम पर हासिल नहीं हो सकती. भारत को ग्‍लोकल रणनीति चाहिए. जिसमें जीडीपी में निर्यात का हिस्‍सा कम से कम वक्‍त में दोगुना यानी 40 फीसदी करना होगा. मैन्‍युफैक्‍चरिंग का पहिया दुनिया के बाजार की ताकत चाहिए.

इस रणनीति के पक्ष में दो पहलू हैं

एक – रुस और चीन के ताजा रिश्‍तों के बाद अमेरिका और यूरोप के बाजारों में चीन को लेकर सतर्कता बढ़ रही है. यहां के बाजारों में भारत को नए अवसर मिल सकते हैं.

दूसरा – संयोग से भारत की मुद्रा यानी रुपया गिरावट के साथ भरपूर प्रतिस्‍पर्धात्‍मक हो गया है

आईएमएफ का मानना है कि भारत अगर ग्‍लोबलाइजेशन की नई मुहिम शुरु करे तो निर्यात को अगले दशक में निवेश और रोजगार का दूसरा इंजन बनाया जा सकता है.

भारत के लिए आत्मनिर्भरता का नया मतलब यह है कि दुनिया की जरुरत के हिसाब, दुनिया की शर्त पर उत्‍पादन करना. यही तो वह सूझ थी जिससे भारत सोने की चिड़‍िया बना था तो अब बाजार खोलने में डर किस बात का है?

 

 

Friday, November 8, 2019

डर के नक्कारखाने


 

डर के नक्कारखाने सबसे बड़ी सफलताओं को भी गहरी कायरता से भर देते हैं. भारत चुनिंदा देशों में है जिसने सबसे कम समय में सबसे तेजी से खुद को दुनिया से जोड़कर विदेशी निवेश और तकनीक, का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है. लेकिन खौफ का असर कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था विदेश नीति के मामले में सबसे प्रशंसित सरकार के नेतृत्व में 16 एशियाई देशों के व्यापार समूह आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) को पीठ दिखाकर बाहर निकल आई.

दुनिया से जुड़कर भारत को क्या मिला, यह जानने के लिए नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया से मिला जा सकता है जो यह लिखते (ताजा किताबफ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटी) हैं कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसद का इजाफा हुआ है. इसीचमत्कारसे भारत में गरीबी घटी है.

व्यापार वार्ताओं की जटिल सौदेबाजी एक पहलू है और देश को डराना दूसरा पहलू. सौदेबाजी में चूक पर चर्चा से पहले हमें यह समझना होगा कि बंद दरवाजों से किसे फायदा होने वाला है? डब्ल्यूटीओ, व्यापार समझौतों और विदेशी निवेश के उदारीकरण का तजुर्बा हमें बताता है कि संरक्षणवाद के जुलूसों के आगे किसान या छोटे कारोबारी होते हैं और पीछे होती हैं बड़े देशी उद्योगों की लामबंदी क्योंकि प्रतिस्पर्धा उनके एकाधिकार पर सबसे बड़ा खतरा है.

आरसीईपी से जुडे़ डर को तथ्यों के आईने में उतारना जरूरी हैः

·       डब्ल्यूटीओ से लेकर आरसीईपी तक उदारीकरण का विरोध किसानों के कंधे पर बैठकर हुआ है लेकिन 1995 से 2016 के बीच (डब्ल्यूटीओ, कृषि मंत्रालय, रिजर्व बैंक के आंकड़े) दुनिया के कृषि निर्यात में भारत का हिस्सा 0.49 फीसद (डब्ल्यूटीओ से पहले) से बढ़कर 2.2 फीसद हो गया

·       आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान भारत के सबसे सफल एफटीए (आर्थिक समीक्षा 2015-16) हैं. इन समझौतों के बाद, इन देशों से व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में 25 फीसद से ज्यादा इजाफा हुआ. यह गैर एफटीए देशों के साथ निर्यात वृद्धि का दोगुना है

·       विश्व व्यापार में सामान के निर्यात के साथ पूंजी (निवेश) और तकनीक की आवाजाही भी शामिल है. पिछले दो दशक में इसका (विदेशी निवेश) सबसे ज्यादा फायदा भारत को हुआ है

·       आरसीईपी से डराने वाले लोग जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग के गिरते हिस्से की नजीर देते हैं. लेकिन ढाई दशक का तजुर्बा बताता है कि जहां विदेशी पूंजी या प्रतिस्पर्धा आई वहीं से निर्यात बढ़ा और मैन्युफैक्चरिंग (ऑटोमोबाइल, केमिकल्स, फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिक मशीनरी) आधुनिक हुई है. उदारीकण से उद्योग प्रतिस्पर्धात्मक हुए हैं कि उसे रोकने से. छोटे मझोले उद्योगों में कमजोरी नितांत स्वेदशी कारणों से है.

फिर भी हम आरसीईपी के कूचे से बाहर इसलिए निकले क्योंकि

एक, एकाधिकारवादी उद्योग, हमेशा विदेशी प्रतिस्पर्धा का विरोध करते हैं. इसको लेकर वही उद्योग (तांबा, एल्युमिनियम, डेयरी) डरे थे जो या तो आधुनिक नहीं हैं या जहां कुछ कंपनियों का एकाधिकार है. भारत की इस पीठ दिखाऊ कूटनीति का फायदा उन्हें होने वाला है.

जैसे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है लेकिन एक बड़ी आबादी कुपोषण की शि‍कार है. . भारत में दूध की खपत (2012 से 16 के बीच) सालाना केवल 1.6 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी.  दूध की महंगाई रिकार्ड तोड़ती है. कोआपरेटिव संस्थाओं का एकाधि‍कार में संचालित भारत का डेयरी उद्योग पिछड़ा है. यदि दूध की कीमतें कम होती हैं तो हर्ज क्या ? सनद रहे कि उपभोक्ताओं के लिए दूध की बढ़ी कीमत का फायदा किसानों को नहीं मिलता. उन्हें दूध फेंक कर आंदोलन करना पड़ता है.

दो, व्यापार वार्ताएं गहरी कूटनीतिक सौदेबाजी मांगती हैं. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी पूरी ताकत के साथ इसमें उतरी ही नहीं. मोदी सरकार की विदेश व्यापार नीति शुरू से संरक्षणवाद (अरविंद सुब्रह्मण्यम और पानगड़िया के चर्चित बयान) की जकड़ में है.  आरसीईपी पर सरकार के भीतर गहरे अंतरविरोध थे.

बीते दिसंबर के अंत में सरकार ने संसद को (वाणिज्य मंत्रालय की विज्ञप्ति- 1 जनवरी, 2019) आरसीईपी की खूबियां गिनाते हुए बताया था कि इससे देश के छोटे और मंझोले कारोबारियों को फायदा होगा. लेकिन बाद में घरेलू लामबंदी काम कर गई. वाजपेयी सरकार ने डब्ल्यूटीओ वार्ताओं के दौरान देशी उद्योगों और स्वदेशी की दकियानूसी जुगलबंदी को साहस और सूझबूझ के साथ आईना दिखाया था. यकीनन, आरसीईपी डब्ल्यूटीओ से कठिन सौदेबाजी नहीं थी जिसके तहत भारत ने पूरी दुनिया के लिए अपना बाजार खोला है.

आरसीईपी में शामिल हर अर्थव्यवस्था को चीन से उतना ही डर लग रहा है जितना कि डब्ल्यूटीओ में यूरोप और अमेरिका से विकासशील देशों को था. भारत छोटी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं का नेतृत्व कर चीन का प्रभुत्व रोक सकता था लेकिन पिछले छह साल के कथित विश्व विजयी कूटनीतिक अभियानों के बाद हमने पड़ोस का फलता-फूलता बाजार चीन के हवाले कर दिया.

नए व्यापार समझौते अपने पूर्वजों से सबक लेते हैं. आरसीईपी में कमजोरी यूरोपीय समुदाय कनाडा से एफटीए वार्ताओं में भारत के पक्ष को कमजोर करेगी.

चीन जब अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभाल रहा है तो भारत के लिए उड़ान भरने का मौका है. बड़ा निर्यातक बने बिना दुनिया का कोई भी देश लंबे समय तक 8 फीसद की विकास दर हासिल नहीं कर सका. सतत ग्लोबलाइजेशन के बिना 9 फीसद की विकास दर असंभव है. और इसके बिना पांच ट्रिलियन डॉलर का ख्वाब भूल जाना चाहिए.

व्यापार समझौतों से निकलने के नुक्सान ठोस होते हैं और फायदे अमूर्त. मुक्त व्यापार से फायदों का पूरा इतिहास हमारे सामने है संरक्षणवाद से नुक्सानों की गिनती शुरू होती है अब....