दुनिया अपनी
लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?
राजनीति पर या
बाजार पर?
वक्त बदल रहा है.
सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि
मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का
नया सिपहसालार है.
दो ताजा
घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले
चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.
एक—दंभ से भरी
सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक
नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर
लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता
है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का
आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.
दुनिया में
बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की
जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.
दो—देश की सबसे बड़ी
पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया
है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते
ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों?
संसद को ट्विटर
का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया
में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि
सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.
तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और
ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद
की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत
जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...
1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और
यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं.
विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा
होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में
ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह
से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू
होंगे.
2. व्हाट्सऐप थोक
में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों
को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी
ने 120 करोड़ रु. खर्च
कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.
3. ट्विटर अपने शेयर
की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक
विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा
खर्च कर रहा है.
4. गूगल भी फेसबुक
और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का
प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.
गफलत में रहने की
जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि
मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में
कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?
क्योंकि अभिव्यक्ति
के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई
थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए
इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार
अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद
हुआ समझिए.
एक झटके में ही
नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव
आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?
तकनीक मूलत:
मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद
सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है
ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे.
स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस
सोशल वसंत का!