Showing posts with label freedom of speech. Show all posts
Showing posts with label freedom of speech. Show all posts

Sunday, February 17, 2019

पारदर्शिता का वसंत



दुनिया अपनी लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?  

राजनीति पर या बाजार पर?

वक्त बदल रहा है. सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का नया सिपहसालार है.

दो ताजा घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.

एकदंभ से भरी सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.

दुनिया में बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.

दोदेश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों? 

संसद को ट्विटर का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.

तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...

1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं. विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू होंगे.

2. व्हाट्सऐप थोक में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी ने 120 करोड़ रु. खर्च कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.

3. ट्विटर अपने शेयर की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा खर्च कर रहा है.

4. गूगल भी फेसबुक और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.

गफलत में रहने की जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?

क्योंकि अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद हुआ समझिए.

एक झटके में ही नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?

तकनीक मूलत: मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे. 

स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस सोशल वसंत का!

Sunday, August 12, 2018

सवाल हैं तो आस है


 
गूगल 2004 में जब अपना पहला पब्लिक इश्यू (पूंजी बाजार से धन जुटाना) लाया था तब मार्क जकरबर्गफेसमैश (फेसबुक का पूर्वज) बनाने पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का गुस्सा झेल रहे थेक्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी के डेटाबेस से छात्रों की जानकारियां निकाल ली थीं. इंटरनेट, गूगल के जन्म (1998) से करीब दस साल पहले शुरू हुआ. मोबाइल तो और भी पहले आया1970 के दशक की शुरुआत में.

आज दुनिया की कुल 7.5 अरब आबादी में (55 फीसदी लोग शहरी) करीब 4.21 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और 5.13 अरब लोगों के पास मोबाइल है. (स्रोतः आइटीयूग्लोबल वेब इंडेक्स)

पांच अरब लोगों तक पहुंचने में मोबाइल को 48 साल और इंटरनेट को चार अरब लोगों से जुडऩे में 28 साल लगेलेकिन सोशल नेटवर्क केवल एक दशक में 3.19 अरब लोगों तक पहुंच गए.

सोशल नेटवर्क के फैलने की रफ्तारइंटरनेट पर खोज की दीवानगी से ज्यादा तेज क्यों थी?

क्या लोग खोजने से कहीं ज्यादा पूछनेबताने के मौके चाहते थेयानी संवाद के?

सोशल नेटवर्कों की अद्भुत रफ्तार का रहस्यइक्कीसवीं सदी के समाजराजनीतिअर्थशास्त्र की बनावट में छिपा है. इंटरनेट की दुनिया यकीनन प्रिंटिंग प्रेस वाली दुनिया से कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक हो गई थीफिर भी यह संवाद लोकतंत्र के जन्म (16-17वीं सदी) से आज तक एकतरफा ही तो था. 
सोशल नेटवर्क दोतरफा और सीधे संवाद की सुविधा लेकर आए थे. और लोकतंत्र पूरा हो गया. लोग अब सीधे उनसे सवाल पूछ सकते थे जो जिम्मेदार थे. वे जवाब न भी दें लेकिन लोगों के सवाल सबको पता चल सकते हैं.

प्रश्न पूछने की आजादी बड़ी आजादी क्यों है?

संवैधानिक लोकतंत्रों के गठन में इसका जवाब छिपा है. संसदीय लोकतंत्र आज भी इस बात पर रश्क करता है कि उसके नुमाइंदे अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल कर सकते हैं. 

इक्कीसवीं सदी में लोकतंत्र के एक से अधिक मॉडल विकसित हो चुके हैं. लेकिन इनके तहत आजादियों में गहरा फर्क है. रूस हो या सिंगापुरचुनाव सब जगह होते हैं लेकिन सरकार से सवाल पूछने की वैसी आजादी नहीं है जो ब्रिटेनअमेरिका या भारत में है. इसलिए अचरज नहीं कि जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेभाषाएं आड़े नहीं आईं और उन देशों ने इन्हें सबसे तेजी से अपनाया जिनमें लोकतंत्र नगण्य या सीमित था. अरब मुल्कों में प्रिंटिंग प्रेस सबसे बाद में पहुंची लेकिन फेसबुक ट्विटर ने वहां क्रांति करा दी. चीन सोशल नेटवर्क का विस्तार तो रोक नहीं सका लेकिन अरब जगत से नसीहत लेकर उसने सरकारी सोशल नेटवर्क बना दिए.

संसदीय लोकतंत्र के संविधान सरकार को चैन से न बैठने देने के लिए बने हैं. सत्ता हमेशा टी बैग की तरह सवालों के खौलते पानी में उबाली जाती है. चुनाव लडऩे से पहले हलफनामेसंसद में लंबे प्रश्न कालसंसदीय समितियांऑडिटर्सऑडिटर्स की रिपोर्ट पर संसदीय समितियांविशेष जांच समितियांहर कानून को अदालत में चुनौती देने की छूटसवाल पूछती अदालतेंविपक्षमीडिया...इन सबसे गुजरते हुए टी बैग (सरकार) को बदलने या फेंकने (चुनाव) की बारी आ जाती है.

भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों को देखकर एक बारगी लगेगा कि लोग सरकार पर भरोसा ही नहीं करते! लोग सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यानी कि जो सवाल कानून बनाते समय नुमांइदे नहीं पूछ पातेउन्हें लोगों की ओर से अदालतें पूछती हैं.

लोकतंत्र में प्रश्नों का यह चिरंतन आयोजन केवल सरकारों के लिए ही बुना गया है. वजह यह कि लोग पूरे होशो-हवास में कुछ लोगों को खुद पर शासन करने की छूट देते हैं और अपनी बचतें व टैक्स उन्हें सौंप देते हैं. सरकारें सवालों से भागती हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उन्हें रह-रह कर सवालों से बेधती रहती हैं. 

इक्कीसवीं सदी में अब चुनाव की आजादी ही लोकतंत्र नहीं हैचुने हुए को सवालों में कसते रहने की आजादी अब सबसे बड़ी लोकशाही है इसलिए जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेलोगों ने समूह में सवाल पूछने प्रारंभ कर दिए.

प्रश्नों का तंत्र अब पूरी तरह लोकतांत्रिक हो रहा है. क्यों केवल पत्रकार ही कठोर सवाल पूछेंलोकतंत्रों में अब ऐसी संस्कृति विकसित करने का मौका आ गया है जब प्रत्येक व्यक्ति को सरकार से कठोर से कठोर प्रश्न पूछने को प्रेरित किया जाए.

सत्ता का यह भ्रम प्रतिक्षण टूटते रहना चाहिए कि जो उत्सुक या जिज्ञासु हैंवे मूर्ख नहीं हैं. और कई बार सवालजवाबों से कहीं ज्यादा मूल्यवान होते हैं.



Monday, July 23, 2018

झूठ के बुरे दिन



ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्‍म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.

व्‍हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्‍शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.

रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्‍म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.

यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.

क्‍यों?

जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्‍कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''

नीत्‍शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.

नीत्‍शे से लेकर आज तक सच-झूठ काजो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्‍वास पर चलना होता है.

फेसबुकव्‍हाट्सऐपट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचारप्रचारव्‍यवहारभावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.

कंपनियां अपने उत्‍पाद वापस लेती हैंमाफी मांगती हैंमुकदमे झेलती हैंसजा भोगती हैंयहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्‍योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधरसियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही हैजिन्‍हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्‍त किया जाता है.

झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्‍यों निकल पड़ी हैंइसलिए क्‍योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्‍वास के लिए खतरा है.

सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्‍यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्‍बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्‍लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.

बेधड़क सवाल-जवाबइनकार-इकरारसमूह में सोचने की स्‍वाधीनताऔर सबसे जुडऩे का रास्‍ता यानी कि अभिव्‍यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुकट्विटरव्‍हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.

सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्‍वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्ककुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?

झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीकअल्‍गोरिद्म (कंप्‍यूटर का दिमाग) बदलनेझूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापनप्रयोगकर्ताओं की रुचिव्‍यवहारराजनैतिक झुकावआदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.

फिर भीकोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्‍वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्‍तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए

सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्‍यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के सा‍थ अपने राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.

तकनीक बुनियादी रूप से मूल्‍य निरपेक्ष (वैल्‍यू न्‍यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्‍तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्‍हें लोगों पर इस्‍तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्‍तेमाल के नियम तय करेगा.

बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!

राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.

सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्‍छी होती हैं.



Tuesday, July 3, 2018

मंदी में आजादी


आर्थिक मंदी से क्या लोकतांत्रिक आजादियों पर खतरा मंडराने लगता है?

क्या ताकत बढ़ाने की दीवानी सरकारों को आर्थिक मुसीबतें रास आती हैं?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुक्त बाजार को सिकुड़ने से बचाना क्यों जरूरी है?

लोकशाही में आजादियों से जुड़े ये सबसे टटके और नुकीले सवाल हैं. बीते बीसेक बरस में लोकशाही का नया अर्थशास्त्र बना है जिसकी मदद से मुक्त बाजार ने आर्थिक स्वाधीनता को संवार करसरकारों को माई बाप होने से रोक दिया है.

खुली अर्थव्यवस्था के साथ सरकारों पर जनता की निर्भरता कम होती चली गईइसलिए नेता अब उन मौकों की तलाश में हैं जिनके सहारे आजादियों की सीमित किया जा सके.

क्या आर्थिक मंदी लोकतंत्र की दुश्मन है?

फ्रीडम हाउस (लोकतंत्रों की प्रामाणिकता को आंकने वाली सबसे प्रतिष्ठित संस्था) की रिपोर्ट "फ्रीडम इन द वर्ल्ड लोकशाही का ख्यात सूचकांक है. 2018 की रिपोर्ट के मुताबिकलोकतंत्र पिछले कई दशकों के सबसे गहरे संकट से मुकाबिल है. 2107 में 75 लोकतंत्रों (देशों) में राजनैतिक अधिकारप्रेस की आजादीअल्पसंख्यकों के हक और कानून का राज कमजोर हुए.

लोकतंत्र की आजादियों में लगातार गिरावट का यह 12वां साल है. "फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' बताती है कि 12 साल में 112 देशों में लोकतंत्र दुर्बल हुआ. तानाशाही वाले देशों की तादाद 43 से बढ़कर 48 हो गई.

लोकतंत्रों के बुरे दिनों ने 2008 के बाद से जोर पकड़ा. ठीक इसी साल दुनिया में मंदी शुरू हुई थी जो अब तक जारी है. 1990 के बाद पूरी दुनिया में लोकतंत्रों की सूरत और सीरत बेहतर हुई थी. अचरज नहीं कि ठीक इसी समय दुनिया के कई देशों में आर्थिक उदारीकरण प्रारंभ हुआ था और ग्लोबल विकास को पंख लग गए थे.

यानी कि तेज आर्थिक विकास की छाया में स्वाधीनताएं खूब फली-फूलीं.

आर्थिक संकट से किसे फायदा?

आर्थिक उदारीकण और लोकतंत्र के रिश्ते दिलचस्प हैं. जहां भी बाजार मुक्त हुआ और उद्यमिता को आजादी मिलीवहां सरकारों को अपनी ताकत गंवानी पड़ीइसलिए मंदी जैसे ही बाजार को सिकोड़ती है और निजी उद्यमिता को सीमित करती हैसरकारों को ताकत बढ़ाने के मौके मिल जाते हैं. ताजा तजुर्बे बताते हैं कि जो देश मंदी से बुरी तरह घिरे रहे हैंवहां लोकतंत्र की ताकत घटी है.

सरकारें मंदी की मदद से दो तरह से ताकत बढ़ाती हैः

एकः मंदी के दौरान सरकार अपने खजाने से मुक्त बाजार में दखल देती है और सबसे बड़ी निवेशक बन जाती है. भारत में 1991 से पहले तक सरकार ही अर्थव्यवस्था की सूत्रधार थी.

दोः आर्थिक चुनौतियों के चलते बाजार में रोजगारों में कमी होती है और सरकारें लोगों की जिंदगी-जीविका में गहरा दखल देने लगती हैं.

तो क्या हर नेता को एक मंदी चाहिए जिससे वह दानवीर और ताकतवर हो सके?

लाचार बाजार तो अभिव्यक्ति बेजार!

विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े एक पुराने मित्र किस्सा सुनाते थे कि 2001 से 2005 के दौरान अखबारों और टीवी के पास सस्ते सरकारी विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होती थी. बाजार से मिल रहे विज्ञापन सरकारों के लिए जगह ही नहीं छोड़ते थे. मंदी की स्थिति में सरकार सबसे बड़ी विज्ञापक व प्रचारक हो जाती है और आजादी को सिकुडऩा पड़ता है.

"फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' ने 2013 में बताया था कि ग्लोबल मंदी के बाद यूरोपीय देशों में प्रेस की स्वाधीनता कमजोर पड़ी. खासतौर पर यूरोपीय समुदाय के मुल्कों में प्रेस की आजादी के मामले में जिनका रिकॉर्ड बेजोड़ रहा है

प्रसंगवशकांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1973 के तेल संकट से उपजी महंगाईबेकारीहड़तालें और उसके विरोध में पूरे देश में फूट पड़े आंदोलन थेजिसने राजनैतिक माहौल बिगाड़ दिया. यानी कि इमर्जेंसी के पीछे मंदी और महंगाई थी!

वैसेअब अगर आजादियां पूरी तरह सरकार की पाबंद नहीं हैं तो सरकारें भी आजादियों का उतना बेशर्म अपहरण नहीं करतीं जैसा कि 1975 के भारतीय आपातकाल में हुआ.

आजादियों को मुक्त बाजार और तेज आर्थिक प्रगति चाहिए क्योंकि चतुर सरकारों ने लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता के अपहरण के सूक्ष्म तरीके विकसित कर लिये हैं. यकीनन मुक्त बाजार निरापद नहीं है लेकिन उसे संभलाने के लिए हमारे पास सरकार है. सरकारों की निरंकुशता को कौन संभालेगाइसके लिए तो उन्हें छोटा ही रखना जरूरी है.

Sunday, April 1, 2018

सबसे ज़हरीली जोड़ी


फ्रिट्ज (नोबेल 1918) केमिस्ट्री का दीवाना था. वह यहूदी से ईसाई बन गया और शोध से बड़ी ख्याति अर्जित की. बीएएसएफ तब जर्मनी की सबसे बड़ी केमिकल (आज दुनिया की सबसे बड़ी) कंपनी थी. उसे नाइट्रोजन का मॉलीक्यूल तोडऩे वाली तकनीक की तलाश थी ताकि अमोनिया उर्वरक बनाकर खेती की उपज बढ़ाई जा सके. हेबर ने 1909 में फॉर्मूला खोज लिया. उसने कार्ल बॉश के साथ मिलकर अमोनिया फर्नेस तैयार की और मशहूर हेबर-बॉश पद्धति पर आधारित पहला उर्वरक संयंत्र ओप्पूक में 1913 से शुरू हो गया.

अगले ही साल बड़ी लड़ाई छिड़ गई. जर्मनी के पास गोला-बारूद की कमी थी. टीएनटी विस्फोटक बनाने के लिए नाइट्रेट का आयात मुश्किल था. सरकार के निर्देश पर हेबर-बॉश की फैक्ट्रियां खाद की जगह बम बनाने लगीं. यप्रेस की दूसरी लड़ाई (1915) में फ्रेंच और सहयोगी सेना पर नाइट्रोजन बम का इस्तेमाल हुआ. हेबरजिसकी बदौलत जर्मनी चार साल तक जंग में टिक सका थावह नाजियों के नस्लवादी कानून का शिकार होकर (1934) ट्रिबलेस्की मे तंगहाली में मरा.

हेबर-बॉश पद्धति से बने उर्वरकों के कारण ही उपज बढ़ीजिससे आज दुनिया की तीन अरब आबादी का पेट भर रहा है.

फेसबुक की डेटा चोरी में हेबर के आविष्कार का अक्स नजर आ सकता है. अभिव्यक्ति और संवाद के नए जनतंत्र पर धूर्त सियासत के पंजे गडऩे लगे हैं. हमने राजनीति का अपराधी और कारोबारियों से रिश्ता देखा था लेकिन हमारी निजी जानकारियों से लैस कंपनियों और कुटिल नेताओं का गठजोड़ सर्वाधिक विस्फोटक हैजो हमारी सोच व तर्क को मारकर लोकतांत्रिक फैसलों पर नियंत्रण कर सकता है.

हर दुश्‍मन पहले से ज्‍यादा ताकतवर होता है. यह जोड़ी हमारी नई आजादी की नई दुश्‍मन है. वेब की दुनिया में हम निचाट नंगे हैं इसलिए इनकी कुटिलताओं में अनंत खतरे पैबस्‍त हैं. 

इतिहास हमें सिखाता है कि प्रत्येक बदलाव के पीछे पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं होता. हम 'जो होगा अच्छा ही होगा' के शिकार हैं. संदेह और सवाल करना छोड़ देते हैं. अनुयायी हो जाते हैं. क्या हमने कभी सोचा कि

सेवा मुफ्त तो ग्राहक बिकता हैः 2016 में जब फेसबुक भारतीय टेलीकॉम कंपनियों के साथ मुफ्त इंटरनेट सुविधा देने की कोशिश कर रहा था तो विरोध हुआ लेकिन जब रेलवे ने गूगल के साथ मुफ्त वाइ-फाइ दिया तोसेवाओं का कारोबारउत्पादों से फर्क है. कंपनियां मुफ्त सुविधाएं देकर हमारी आदतें किसी होटल या कार वाले को बेच आती हैं. राजनीति व सूचना कंपनियों को पता है कि हमारी खपत और हमारा वोटदोनों को मनमाफिक मोड़ा जा सकता है. दोनों मिलकर हमें मुफ्तखोरी की अफीम चटाते हैं. 

हमें जानना होगा कि मुफ्तखोरी का कारोबार कल्याणकारी हरगिज नहीं है.

बहुत बड़ा होने के खतरेः प्रतिस्प‍र्धा की दीवानी दुनिया को अचरज क्यों नहीं हुआ कि उसके पास दर्जनों कारफूडविमान कंपनियां हैं लेकिन अमेजनगूगल या फेसबुक इकलौते क्यों हैं. शेयर बाजार में गूगल फेसबुकएपल का संयुक्त मूल्य (कैपिटलाइजेशन) फ्रांसजर्मनीकनाडा के पूरे शेयर बाजार से ज्यादा है. हमने इन्हें इतना बड़ा कैसे होने दियाभारत में भी कई सेवाओं में कुछ कंपनियों का ही राज है.  

हमें प्रतिस्पर्धा के लिए लडऩा होगा ताकि कोई इतना बड़ा न हो सके कि हमारी आजादी ही छोटी पड़ जाए.

महानता और ताकतः राजनीति में हम महानता और ताकत के बीच अंतर करना भूल जाते हैं. सियासी ताकत के लिए लोगों को बांटना जरूरी हैजिसके लिए नेताओं को बमों से लेकर बैंक और लोगों की निजी जानकारी तक प्रत्येक ताकतवर चीज पर नियंत्रण चाहिए. हमारे निजी डेटा के लिए वे कुछ भी कर गुजरने को उत्सुक हैं. नेता आजकल यह बताते मिल जाएंगे कि आपका व्यवहार जानकर वे आपको अच्छा नागरिक बना सकते हैं. अचरज नहीं कि जापान से लेकर यूरोप तक कट्टर राजनैतिक ताकतों में सोशल नेटवर्क के प्रति गजब की दीवानगी है.

लोकतंत्र हमें यह शक्ति देता है कि हम नेताओं को यह बता सकें कि उन्हें हमारे लिए क्या करना चाहिए.

अमेरिका और एशिया में राजनीति-सोशल नेटवर्क का गठजोड़ ज्यादा विध्वंसक है. लेकिन यूरोप ने इतिहास से सीखा है कि किसी के बहुत ताकतवर होने के क्या खतरे हैं. सोशल नेटवर्क पर तैरता निजी डेटा हेबर-बॉश प्रोसेस है. इससे पहले कि राजनेता इससे बम बना लेंयूरोप के नए कानून सोशल मीडिया के लोकतंत्र को नेता-कंपनी गठजोड़ से बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं. यूरोपीय समुदाय में अगले दो माह के भीतर वहां जीडीपीआर (जनरल डेटा प्रोटेक्शन रूल्स) यानी डेटा सुरक्षा के नए नियम लागू हो जाएंगे. वित्तीय उत्पादों के साथ एकत्र होने वाली निजी सूचनाएं बेचने पर भी रोक लग गई .

हमें यह सचाई कब समझ में आएगी कि नेता पहाड़ को नदी से लड़वा सकते हैं और नदी को मछलियों से. नेताओं को दुनिया की एकता का नेटवर्क दे दीजिएवे उस पर भी युद्ध करा देंगे. राजनेताओं को नियंत्रण में रखिये इससे पहले कि वह हमें ढोर-ढंगर बनाकर हांकने लगें.