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Sunday, May 20, 2018

नायाब नाकामी


 कथा सूत्र 
  • जीडीपी में 22 फीसदी का हिस्सा रखने वाला भारत का विशाल खुदरा व्यापार यानी रिटेल, खेती के बाद सबसे बड़ा रोजगार है. इसका आधुनिकीकरण तत्काल 5.6 करोड़ और 2022 तक करीब 173 करोड़ रोजगार दे सकता है 
  •  खुदरा बाजार 948 अरब डॉलर (केपीएमजी) का है जो पांच साल में 15 फीसदी की गति से बढ़ा है. इस बाजार में संगठित विक्रेताओं का हिस्सा केवल 8 फीसदी है
  •  भारत में ऑनलाइन रिटेल यानी ई-कॉमर्स का बाजार 38.5 अरब डॉलर का है
  •  संगठित या मल्टी  ब्रांड रिटेल (जैसे बिग बाजार) में वॉलमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कंपनियों को आने की छूट नहीं है. लेकिन ई-कॉमर्स में 100 फीसदी विदेशी पूंजी की अनुमति है. इसी रास्ते से वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट को खरीद लिया. इतनी पूंजी लगाकर ई-कॉमर्स कंपनियां भी अपने गोदाम या वितरण नेटवर्क (रोजगार बढ़ाने वाले काम) नहीं बना सकतीं, उन्हें बस मार्केटप्लेस बनाने यानी ग्राहकों को विक्रेताओं से जोडऩे की छूट है

और
  • ·      अमेरिकी वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट (सिंगापुर) को खरीदने में जो 16 अरब डॉलर लगाए हैं उनमें करीब 14 अरब डॉलर जापान, अमेरिका, चीन और दक्षिण अफ्रीका की कंपनियों को मिलेंगे, क्रिलपकार्ट में जिनका हिस्सा वॉलमार्ट ने खरीदा है. यह निवेश भारत नहीं आएगा. 

अब कहानी...

वे दिन तेज ग्रोथ के थे. 2006 जनवरी की एक ठंडी शाम उस समय गरमा उठी जब उद्योग विभाग ने (सिंगल ब्रांड) रिटेल में विदेशी निवेश का ऐलान किया. इससे पहले खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का जिक्र कुफ्र था. इस बयान के अगले ही साल, 2007 में ही वॉलमार्ट भारती (एयरटेल) के साथ भारत आ गई. वॉलमार्ट को देखकर कार्फू और टेस्को जैसे ग्लोबल रिटेलर भी आ पहुंचे.

2010 में मल्टी ब्रांड रिटेल खोलने की पहल हुई और विभिन्न शर्तों के साथ 2012 में 51 फीसदी विदेशी निवेश खुला तो लेकिन संघ परिवार और भाजपा ने इस कदर आंदोलन खड़ा किया कि रिटेल में विदेशी निवेश जहां का तहां थम गया. वॉलमार्ट ने करीब एक दर्जन शहरों में थोक बिक्री के मेगा स्टोर भी खोले लेकिन विदेशियों के लिए मल्टी ब्रांड रिटेल पर राजनीति से ऊबकर वॉलमार्ट ने 2013 में भारती के साथ अपना उपक्रम खत्म कर दिया.

इस हड़बोंग के बीच देसी कंपनियों को संगठित रिटेल में फायदा दिखने लगा था. सुभिक्षा, स्पेंसर (आरपीजी), रिलायंस, मोर (बिरला), इजी डे (भारती), ट्रेंट (टाटा), बिग बाजार (फ्यूचर) जैसे देसी रिटेलर्स सामने आए और अनुमान लगाया गया कि 2010 से 2015 के बीच संगठित रिटेल 21 फीसदी की गति से बढऩे की उम्मीद जड़ पकडऩे लगी. लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, नई तकनीक और बुनियादी ढांचे के लिए इनके पास पूंजी की कमी थी इसलिए 2015 आते आते तमाम स्टोर बंद हो गए.



इसी दौरान ई-कॉमर्स की आमद हुई. नए धनाढ्यों (वेंचर कैपिटल) की पूंजी पर डिस्काउंट सेल के इस धंधे ने संगठित रिटेल को तोड़ दिया. ई-कॉमर्स की क्रांति अल्पजीवी थी. परस्पर विरोधी नीतियों और नोटबंदी व जीएसटी के कारण 2017 में देसी ई-कॉमर्स भी दम तोड़ गया. 


अब फ्लिपकार्ट अधिग्रहण के बाद इस बाजार में दो विदेशी कंपनियोंअमेजन और वॉलमार्ट  का राज होगा

आज रिटेल के उदारीकरण के 12 साल बाद ...
  • ·      खुदरा यानी रिटेल कारोबार का आधुनिकीकरण खेती, खाद्य प्रसंस्करण, निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग, वित्तीय सेवाओं को एक साथ गति दे सकता था और प्रति 200 वर्ग फुट पर एक रोजगार के औसत वाला यह क्षेत्र हर तरह के रोजगारों का इंजन बन सकता था लेकिन इसमें विदेशी निवेश रोक दिया गया.

  • ·     मुक्त बाजार में पूंजी अपना रास्ता तलाश ही लेती है. वॉलमार्ट जिस पूंजी से रिटेल का बुनियादी ढांचा बनाकर रोजगार दे सकती थी उसके जरिए उसने पिछले दरवाजे से ई-कॉमर्स में प्रवेश कर लिया. अब वह उपभोक्ताओं को सामान बेचेगी, जिसके लिए उसे विदेशी निवेश नियमों के तहत रोका गया था. ई-कॉमर्स से बनने वाले अधिकतम नए रोजगार केवल कूरियर लाने वालों के होंगे.

  • ·     भारत के लोगों की खपत में 61 फीसद हिस्सा खाद्य उत्पादों का है. रोजगार और उपभोक्ता सुविधाएं बढ़ाने के लिए इनके उत्पादन और वितरण का आधुनिकीकरण होना था लेकिन यह पिछड़ा ही रह गया है.


यह केवल भाजपा परिवार की रूढि़वादी जिद थी जिसके चलते विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता और नए रोजगारों की रोशनी नहीं मिल सकी. लेकिन विदेशी पूंजी तो आ ही गई. अब इस बाजार के एक हिस्से (ई-कॉमर्स) पर विदेशी कंपनियां काबिज हो गईं हैं जबकि दूसरे बड़े हिस्से में पुराने ढर्रे का कारोबार चल रहा है. इन दोनों के बीच खड़े उपभोक्ता और बेरोजगार सरकार को बिसूर रहे हैं. 

सरकार अब भी मल्टी ब्रांड रिटेल के उदारीकरण के जरिए अवसरों की बर्बादी बचा सकती है लेकिन हम क्यों करेंगे? हम तो मौके गंवाने में महारथी हैं.  


Monday, May 18, 2015

रिटेल का शेर


यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकीजो बुनियादी ढांचेखेतीरोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है.
बीजेपी क्या भारतीय बाजार के सबसे बड़े उदारीकरण को रोकने की जिद छोड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुदरा कारोबार के शेर को जगाने की हिम्मत जुटा चुके हैं, जो 125 करोड़ उपभोक्ताओं व 600 अरब डॉलर के कारोबार की ताकत से लैस है और जहां विदेशी व निजी निवेश के बाद पूरी अर्थव्यवस्था में बहुआयामी ग्रोथ का इंजन चालू हो सकता है. अगर खुदरा कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले पर नई सरकार की सहमति और बीजेपी व उसके सहयोगी दलों के राज्यों की मंजूरी दिखावा नहीं है तो फिर इसे मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ का सबसे साहसी तोहफा माना जाना चाहिए.
यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकी, जो बुनियादी ढांचे, खेती, रोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है. रिटेल का उदारीकरण होकर भी नहीं हो सका. पिछली सरकार ने सितंबर 2012 में मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश खोल तो दिया लेकिन बीजेपी के जबरदस्त विरोध के बाद, निवेशकों को इजाजत देने का विकल्प राज्यों पर छोड़ दिया गया था. सियासत इस कदर हो चुकी थी कि किसी राज्य ने आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं दिखाई.
खुदरा कारोबार में एफडीआइ पर सरकार का यू-टर्न ताजा है क्योंकि इसी अप्रैल में, वाणिज्य व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने लोकसभा को बताया था कि मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की नीति पर अमल पर कोई फैसला नहीं हुआ है. यह पहलू बदल शायद भूमि अधिग्रहण पर मिली नसीहतों से उपजा है. मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि विपक्ष में रहते एक सख्त भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत, बीजेपी की गलती थी. ठीक ऐसी ही गलती रिटेल में एफडीआइ के विरोध के जरिए हुई थी जिसे अब ठीक करने का वक्त है.
खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने का निर्णय ठीक उन्हीं चुनौतियों की देन था जिनसे अब मोदी सरकार मुकाबिल है. मंदी व बेकारी से परेशान यूपीए सरकार खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश लाना चाहती थी ताकि ग्रोथ का जरिया खुल सके. यह एक क्रांतिकारी उदारीकरण था. इसलिए ग्लोबल छवि भी चमकने वाली थी. मोदी सरकार पिछले एक साल में रोजगारों की एकमुश्त आपूर्ति बढ़ाने या बड़े सुधारों का कौल नहीं दिखा सकी. अलबत्ता अब मौका सामने है. उद्योग मंत्रालय के ताजा दस्तावेज के मुताबिक बीजेपी, उसके सहयोगी दलों व कांग्रेस को मिलाकर राजस्थान, महाराष्ट्र कर्नाटक, आंध्र प्रदेश समेत 12 राज्य खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने पर राजी हैं. समर्थन की ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं बनी थी. यह विदेशी रिटेल कंपनियों को बुलाने का साहस दिखाने का सबसे अच्छा अवसर है.
भारत की उपभोग खपत ही अर्थव्यवस्था का इंजन है जिसके बूते 2004 से 2009 के बीच सबसे तेज ग्रोथ आई थी. रिटेल बाजार के पीछे खेती है, बीच में उद्योग हैं और आगे उपभोक्ता. उपभोग खर्च ही मांग, रोजगार, आय में बढ़त, खर्च व खपत का चक्र तैयार करता है, जो रिटेल की बुनियाद है. रिटेल भारत में रोजगारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है जिसमें चार करोड़ लोग लगे हैं. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय मानता है कि 2022 तक इस क्षेत्र में करीब 5.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा. यह आकलन इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से आने वाली ग्रोथ की संभावना पर आधारित नहीं है. बोस्टन कंसल्टिंग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का खुदरा कारोबार 2020 तक एक खरब डॉलर का हो जाएगा, जो आज 600 अरब डॉलर पर है. खुदरा कारोबार का आधुनिकीकरण, नौकरियों का सबसे बड़ा जरिया हो सकता क्योंकि सप्लाई चेन से लेकर स्टोर तक संगठित रिटेल में सबसे ज्यादा रोजगार बनते हैं. पारंपरिक रिटेल में विदेशी निवेश पर असमंजस के बीच ई-रिटेल के कारण असंगतियां बढ़ रही हैं. ई-रिटेल में टैक्स, निवेश, गुणवत्ता, पारदर्शिता के सवाल तो अपनी जगह हैं ही. इससे डिलीवरी मैन से ज्यादा बेहतर रोजगार भी नहीं निकले हैं.

 रिटेल में नया निवेश, कंस्ट्रक्शन की मांग को वापस लौटा सकता है जो इस समय गहरी मंदी में है और खेती के बाद रोजगारों और मांग का दूसरा बड़ा जरिया है. रिटेल उपभोक्ता उत्पाद उद्योगों के लिए नया बाजार और दसियों तरह की सेवाएं लेकर आता है जो कि मेक इन इंडिया का हिस्सा है. रिटेल का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य व ग्रॉसरी का है जो कि प्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ता है. आधुनिक रिटेल, किसानों और लघु उद्योगों के लिए एक बड़ा बाजार होगा.
 रिटेल को लेकर कुछ नए तथ्य तस्दीक करते हैं कि सरकार इसके सहारे ग्रोथ के इंजन में ईंधन भर सकती है. जीडीपी की नई गणना के मुताबिक, आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार पांच फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी पहुंचने के पीछे विशाल थोक व खुदरा कारोबार की ग्रोथ है. इस कारोबार के समग्र आकार को जीडीपी गणना का पुराना आंकड़ा पकड़ नहीं पाता था. पुराने पैमाने के तहत थोक व रिटेल कारोबार का, जीडीपी में योगदान नापने के लिए एनएसएसओ के रोजगार सर्वे का इस्तेमाल होता था लेकिन नए फॉर्मूले में सेल टैक्स के आंकड़े को आधार बनाया गया तो पता चला कि थोक व खुदरा कारोबार न केवल अर्थव्यवस्था का 20 फीसदी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ्तार जीडीपी की दोगुनी है.
   भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों के विरोध में राहुल-सोनिया के भाषणों को, खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ अरुण जेटली के भाषण के साथ सुनना बेहतर होगा. इससे यह एहसास हो जाएगा कि भारत की राजनीति चुनाव से चुनाव तक का मौकापरस्त खेल है और कांग्रेस-बीजेपी नीतिगत दूरदर्शिता में बेहद दरिद्र हैं. अलबत्ता फैसले बदलना साहसी राजनीति का प्रमाण भी है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर नई सोच का साहस दिखा रहे हैं तो उन्हें भूमि अधिग्रहण के साथ 125 करोड़ लोगों के विशाल खुदरा बाजार के उदारीकण की हिम्मत भी दिखानी चाहिए जो केवल बीजेपी की दकियानूसी सियासत के कारण आगे नहीं बढ़ सका. उनका यह साहस अर्थव्यवस्था की सूरत और सीरत, दोनों बदल सकता है.


Monday, November 4, 2013

खर्च की अमावस



 भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया।

स दीवाली अधिकांश भारतीय जब गणेश लक्ष्‍मी को गुहार रहे थे ठीक उस समय दुनिया की तमाम कंपनियां और निवेशक भारतीयों की खर्च लक्ष्‍मी को मनाने में जुटे थे। इस दीप पर्व पर भारतीय उपभोक्‍ताओं ने जितनी बार जेब टटोल कर खरीद रोकी या असली शॉपिंग को विंडो शॉपिंग में बदल दिया, उतनी बार निवेशकों के दिमाग में यह पटाखा बजा कि आखिर भारतीयों की खरीदारी दिया बाती, गणेश लक्ष्‍मी, खील बताशे से आगे क्‍यों नहीं बढ़ी ? कारपोरेट और निवेश की दुनिया में इस सवाल की गूंज उस धूम धड़ाके से ज्‍यादा जोरदार है जो दीवाली के ऐन पहले शेयरों में रिकार्ड तेजी बन कर नमूदार हुआ था। यह पिछले एक दशक की पहली ऐसी दीपावली थी जब भारतीयों ने सबसे कम खर्च किया। भारी महंगाई व घटती कमाई के कारण भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया। 
शेयरों में तेजी की ताजा फुलझड़ी तो विेदेशी पूंजी के तात्‍कालिक प्रवाह और भारत में बुरी तरह गिर चुकी शेयरों की कीमत से मिलकर बनी थी जो दीवाली साथ खतम हो गई।  इसलिए पटाखों का धुआं और शेयरों में तेजी की धमक बैठते ही निवेशक वापस भारत में उपभोग खर्च कम होने के सच से

Monday, December 3, 2012

महाबहस का मौका


  ह महाबहस का वक्‍त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्‍यों कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा समृद्ध व्‍यापारिक अतीत, नए उपभोक्‍ता और खुलेपन की चुनौ‍तियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतां‍त्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित बहुराष्‍ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो उपभोक्‍ताओं के हित ज्‍यादा जरुरी हैं या लाखों व्‍यापारियों के? देश के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्‍यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार बाजार के गुलजार होने की उम्‍मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्‍पर्धी तर्कों की सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्‍या फैसला देगी यह देखना भी महत्‍वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत 
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं जिसमें सियासत भारत के मध्‍य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्‍यवर्ग जो पिछले दो दशक में उभरा और तकनीक व उपभोक्‍ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च से सींचने वाले इस नए इं‍डिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्‍यों की जानकारी देश के नेताओं से कहीं ज्‍यादा है। यह उपभोक्‍ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्‍य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं में सबसे दिलचस्पी

Monday, November 28, 2011

रिटेल के फूल-कांटे

ह नामुराद खुदरा कारोबार है ही ऐसा। इसका उदारीकरण हमेशा, हाथ पर फूल और कांटे एक साथ धर देता है। रिटेल का विदेशीकरण एक तरफ से ललचाता है तो दूसरी तरफ से यह जालिम कील भी चुभाता है। यानी, रहा भी न जाए और सहा भी न जाए। वैसे खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ने पर हैरत कैसी, संगठित मल्‍टी ब्रांड रिटेल भारत में दस साल पुराना हो चुका है, जिसमें आंशिक विदेशी निवेश भी हो चुका है। रिटेल में वाल मार्ट आदि की आमद (मल्‍टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश) के ताजे फैसले का असर अंदाजने के लिए हमारे पास पर्याप्‍त तथ्‍य भी हैं जो रिटेल के उदारीकरण की बहस को गाढा और रोचक बनाते हैं। इसलिए अचरज तो इस फैसले की टाइमिंग पर होना चाहिए कि विरोधों की बारिश के बीच सरकार ने रिटेल की पतंग उड़ाने का जोखिम उठाया है। भारत में संगठित रिटेल का आंकड़ाशुदा अतीत, अगर विरोध के तर्कों की धार कमजोर करता है तो रिटेल से महंगाई घटने की सरकारी सूझ को भी सवालों में घेरता है। दरअसल संगठित रिटेल के खिलाफ खौफ का कारोबार जितना आसान है, इसके फायदों का हिसाब किताब भी उतना ही सहज है...जाकी रही भावना जैसी।
रोजगार का कारोबार
भारत में संगठित खुदरा यानी ऑर्गनाइज्‍ड रिटेल के पास अब एक पूरे दशक का इतिहास है, ढेरों अध्‍ययन, सर्वेक्षण व रिपोर्टें (इक्रीयर 2008, केपीएमजी 2009, एडीबी 2010, नाबार्ड 2011 आदि) मौजूद हैं, इसलिए बहस को तर्कों के सर पैर दिये जा सकते हैं। ग्रोथ और रोजगार के मामले में भारतीय संगठित रिटेल की कहानी दमदार है। भारत का (संगठित व असंगठित) खुदरा कारोबार यकीनन बहुत बड़ा है। 2008-09 में कुल खुदरा बाजार  17,594 अरब रुपये का था जो 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना की रफतार से बढ़ रहा है, जो 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा। नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है जिसमें 2000 फिट के छोटे स्‍टोर ( सुभिक्षा मॉडल) से लेकर 25000 फिट तक के मल्‍टी ब्रांड हाइपरमार्केट (बिग बाजार, स्‍पेंसर, इजी डे) आदि आते हैं। खुदरा कारोबार में तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल इस अरबों के बाजार के पिछले एक दशक में केवल पांच