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Tuesday, June 6, 2017

हकीकत से इनकार

बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.

रकार की तीसरी सालगिरह पर गायराजनीति के केंद्र में स्थापित हो गई और रोजगारों की फिक्र सियासी व गवर्नेंस चर्चाओं से बाहर हो गई.
ठीक कहते हैं भाजपा के हाकिमसरकार सबको रोजगार नहीं दे सकती. वैसे मांगा भी किसने था? सरकार ने कभी ऐसा कहा भी नहीं. श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने तो सिर्फ यह बताया था कि हर साल एक करोड़ रोजगारों के सृजन की कोशिश होगी ाकि ताकि2020 तक पांच करोड़ लोगों को रोजी मिल सके. जाहिर है, हर साल एक करोड़ नए लोग रोजगारों की कतार में आ जाते हैं.
राजनीति का तो पता नहीं लेकिन रोजगारों को लेकर हाकिमों की यह 'साफगोई' जले पर जहर जैसी हैः
1. लेबर ब्यूरो बता रहा है कि कपड़ाचमड़ारत्न-आभूषणधातुऑटोमोबाइलट्रांसपोर्ट,सूचना तकनीक और हैंडलूम इन आठ प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार सृजन सात साल के सबसे निचले स्तर पर है.
2. नए रोजगारों की उम्मीद बनकर उभरे ई-कॉमर्स और स्टार्ट-अप बेकारी का कब्रिस्तान हैं.
3. आइटी दिग्गज कंपनियों की ताजा घोषणाओं के मुताबिकसूचना तकनीक क्षेत्र10,000 नौकरियां काट चुका है और दो लाख रोजगार खतरे में हैं.
4. नोटबंदी के बाद इस साल की चैथी तिमाही में आर्थिक विकास दर घटकर6.1 फीसदी (पिछली तिमाही में सात फीसदी) रह गई है जो नोटबंदी के चलते  असंगठित क्षेत्र में करीब चार लाख अस्थायी/स्थायी रोजगार खत्म होने की आशंकाओं को आधार देती है.
बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.
आखिर निवेशउद्योगीकरणशिक्षाकौशलसूचना तकनीकसामाजिक विकासइन सभी नीतियों के केंद्र में रोजगारों के अलावा और क्या है?
दरअसल, 2014 में नई सरकार अगर कोई एक मिशन शुरू कर सकती थी तो वह'सबके लिए रोजगार' होना चाहिए थाजो न केवल युवा जनादेश की उम्मीदों के माफिक होता बल्कि भारत के पूरे आर्थिक नियोजन को नए ढांचे में ढालने के लिए भी अनिवार्य था. हकीकत यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के बाकी क्षेत्र साफ-सफाई,तेल-पानी और ओवरहॉलिंग मांग रहे थेकेवल रोजगार ही एक ऐसा क्षेत्र है जो कई अनपेक्षित जटिलताओं से रू-ब-रू था और जिसे मिशन बनाने की जरूरत थी.
रोजगारों के ग्लोबल परिदृश्य की वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम की एक ताजा रिपोर्ट कुछ कीमती सूत्र सौंपती है जिनकी रोशनी में लगता है कि एक गंभीर सरकार रोजगारों से मुंह फेरने से पहले बहुत कुछ कर सकती हैः
1. इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माणउपभोक्ता सामानऊर्जावित्तीय सेवाएंस्वास्‍थ्यसूचना तकनीकमीडिया और मनोरंजनमोबिलिटीपेशेवर सेवाएं और कृषिदस प्रमुख क्षेत्र हैं जहां अधिकांश संगठित और असंगठित रोजगार बनने हैं.
2. काम के नए तरीकेनगरीकरणमोबाइल इंटरनेटबिग डाटानया मध्य वर्गइंटरनेट ऑफ थिंग्स  (इंटरनेट से जुड़े उत्पाद)शेयरिंग इकोनॉमीरोबोटिक्स  और आधुनिक ट्रांसपोर्टएडवांस मैन्युफैक्चरिंगथ्री-डी प्रिंटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वह प्रमुख ताकतें हैं जो ऊपर के दस क्षेत्रों में रोजगारों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित कर रही हैं.
मसलनकाम करने के तरीकों के बदलाव से सबसे ज्यादा असर प्रोफेशनल सेवाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रोजगारों पर पड़ा है तो मोबाइल इंटरनेटस्वास्थ्यसूचना तकनीक और मीडिया में रोजगारों की सीरत बदल रहा है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्समोबिलिटी में रोजगारों के लिए गेम चेंजर हैं.
3. रोजगार की रणनीतियां अब हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग होंगीजिन्हें निवेशशिक्षा,उद्योग की नीतियों का आधार होना चाहिए.
4. भविष्य के रोजगारों का दारोमदार पुनप्रशिक्षणमैनेजमेंट के तरीकों में बदलाव,कामकाज के लचीले नियमबहुरोजगार पर होगा जिसके लिए शिक्षा की पूरी प्रणाली बदलेगी.
5. सरकारों को वस्तुतः साफ-सफाई से लेकर अंतरिक्ष तक प्रत्येक नीति के केंद्र में रोजगारों को रखना     होगा तब जाकर बेरोजगारी की चुनौतियों का कुछ समाधान मिलेगा.
क्‍या आपको महसूस नहीं होता कि यह सब तो हो सकता था फिर भी तीन साल में रोजगारों पर नीतिगत चर्चा तो छोडि़ये कहीं कोई सुई भी गिरी !
सरकार शायद इसे लेकर ज्यादा फिक्रमंद है कि हमें क्या नहीं खाना चाहिए बजाए इसके कि हमें खाने के लिए कमाना कैसे चाहिए.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि अर्थशास्त्री जीडीपी की अमूर्त गणना छोड़कर रोजगारों की गिनती को विकास मापने का आधार बना रहे हैं. यहां तो सरकार जल्द ही आपको यह बताने वाली है कि रोजगारों में कोई कमी नहीं हुई है. दरअसलउलटा-सीधा खाने के कारण बेकारी को लेकर हमारी समझ ही प्रदूषित हो गई है!

Monday, January 9, 2017

नींव का निर्माण फिर


नोटबंदी ने सरकार की तीन सबसे महत्‍वाकांक्षी कोशिशों को सबसे ज्‍यादा नुकसान पहुंचाया है 


रोनाल्ड  रीगन कहते थे सरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन पर सब्सिडी दे देती हैं. हैरत है कि नोटबंदी के 50 दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बड़े साहसी अभियान को महज सब्सिडी और स्कीमों पर उतार लाए. सरकार को यह एहसास हो चला है कि नियंत्रण चाहे जितने आदर्श उद्देश्यों की टकसाल से निकले हों लेकिन खुलीचलती और विकसित होती अर्थव्यवस्था में उनका इस्तेमाल विस्फोटक हो सकता है. इसलिए दिल्ली का निजाम अब नोटबंदी के दर्द को भुलाकर पुनर्निर्माण की तरफ देखना चाहता है.
इस जोखिम ने पिछले ढाई साल में सरकार की कई महत्वाकांक्षी कोशिशों के धुर्रे बिखेर दिए हैं. नोटबंदी के जरिए काले धन को निकालने की कवायद इनकम टैक्स के हाथों में सिमटने के बाद देश तीन चिंताजनक आर्थिक नतीजों से मुकाबिल है.
एकऔद्योगिक उत्पादन बुरी तरह खेत रहा है. सबसे ज्यादा नुक्सान छोटे-मझोले उद्योगों को हुआ हैजहां सबसे ज्यादा रोजगार थे.
दोलोगों का उपभोग खर्च घट गया है जो कि जीडीपी में 66 फीसदी का हिस्सेदार है.
तीननोटबंदी के दौरान बैंकों पर भरोसा डगमगाया है. पैसे निकालने और जमा करने की उलझनों व बाद में जांच-पड़ताल का डर इसकी बड़ी वजह है. बैंकों को डर है कि नकद निकासी की सीमा हटने के बाद बड़े पैमाने पर लोग पैसा निकाल सकते हैं.
पिछले ढाई साल में मोदी सरकार तीन आर्थिक मकसदों को साधने की कोशिश करती दिखी है. पहला है प्रोडक्शन यानी (औद्योगिक) उत्पादनदूसरा खपत यानी मांग और तीसरा इन्क्लूजन यानी वित्तीय तंत्र में बड़ी पैमाने पर लोगों पर भागीदारी. मेक इन इंडियास्टार्ट अप और जनधन स्कीमें इन्हीं मकसदों से निकलीं जिनका लक्ष्य निजी निवेशज्यादा उत्पादनग्रोथरोजगार और आय में वृद्धि है.
अफसोस!  नोटबंदी ने इन तीनों को ज्यादा नुक्सान पहुंचाया है.
मेक इन इंडिया
नोटबंदी के कारण भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. मेक इन इंडिया को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार लाने वाला निजी निवेश बढ़ाने के मकसद से शुरू किया गया था. भारत के जीडीपी में निवेश का हिस्सा लगभग 30 फीसदी है जिसमें अधिकांश निवेश निजी क्षेत्र का है. पिछले दो साल में तमाम कोशिशों के बावजूद मांग में कमी और कर्ज के बोझ के कारण उद्योगों ने नए निवेश का जोखिम नहीं लिया. नोटबंदी के बाद उत्पादन और मांग में भारी कमी को देखते हुए अगले कई महीनों के लिए निवेश का उत्साह लगभग खत्म हो जाने वाला है.
नोटबंदी ने छोटे उद्योगों को सबसे ज्यादा बदहाल किया है. अत्यंत छोटी उत्पादन व ट्रेडिंग इकाइयां 95 फीसदी रोजगार का आधार हैं. जीडीपी गणना के नए फॉर्मूले के मुताबिक छोटे उद्योग जीडीपी में 37 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. निर्यात में इनका हिस्सा लगभग 45 फीसदी है. वैसे भी भारत के छोटे उद्योग अब केवल 6,000 छोटे उत्पादों तक सीमित हैं जो सामान्य तकनीक पर आधारित हैं. नोटबंदी के बाद बहुत-सी इकाइयां ठप हो गईंजिन्हें  पुनः संचालित करना मुश्किल है और इनके बिना मेक इन इंडिया की दोबारा सक्रियता व रोजगार की वापसी असंभव है.
स्टार्ट अप
नोटबंदी से खपत बुरी तरह टूट गई है जो 60 फीसदी आर्थिक ग्रोथ का आधार है और भारत में निवेश का सबसे बड़ा आकर्षण है. उपभोक्ता उत्पादवाहनपैक्ड  फूड की मांग में तेज गिरावट के आंकड़े इसका प्रमाण हैं. दरअसलपूरी स्टार्ट अप क्रांति इस उपभोग खपत पर निर्भर थी. ज्यादातर यूनीकार्न (एक अरब डॉलर से अधिक वैल्यूएशन वाले) स्टार्ट अप लोगों के शॉपिंग उपभोग पर आधारित हैं.
नोटबंदी से उपजी अनिश्चितता के कारण खर्च करने का उत्साह भी सीमित हो गया है. जब तक नकदी की आपूर्ति सामान्य नहीं होती और असमंजस खत्म नहीं होताउपभोग खर्च के लौटने की गुंजाइश कम है. यही वजह है कि रोजगार का सबसे ज्यादा नुक्सान स्टार्ट अप में हुआ है जहां पिछले दो साल में नौकरियां बनती दिख रही थीं.
जन धन
जन धन योजना नोटबंदी की अप्रत्याशित शिकार है. जद्दोजहद के बाद बैंकिंग की मुख्य धारा में आए सैकड़ों लोग अब आयकर और जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं. बैंकिंग में इनका विश्वास दोबारा जमाना मुश्किल होगा. फाइनेंशियल इन्क्लूजन की उलझन सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती. भारत की बैंकिंग मूलतः डिपॉजिट केंद्रित है. नोटबंदी के बाद बैंकों में डिपॉजिट का अंबार है और कर्ज सस्ता करने के लिए बैंक जमा की दर घटा रहे हैं. बैंकों के सबसे बड़े ग्राहकों यानी जमाकर्ताओं को अपने रिटर्न की कुर्बानी देनी पड़ रही है जिससे बैंकों में डिपॉजिट का आकर्षण घटता जाएगा. यदि सरकार नोटबंदी का बुरा असर जल्दी खत्म करना चाहती है तो उसे
  • छोटे और मझोलेे उद्योगों  के लिए कर्ज से राहत और इंस्पेक्टर राज हटाने वाली समग्र नीति 
  • खपत बढ़ाने के लिए जीएसटी में टैक्स की दर बेहद कम रखनी होगी.
  • वित्तीय समावेशन के लिए बैंकों में डिपॉजिट को आकर्षक बनाए रखना होगा. 

सरकारें नियंत्रण बढ़ाना चाहती हैं जबकि सभ्यता का इतिहास बताता है कि दुनिया में कोई बड़ी उपलब्धि नौकरशाही के जरिए नहीं आई. मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि आइंस्टीन ने किसी ब्यूरोक्रेट के कहने से थ्योरी नहीं बनाई थी और न ही किसी सरकारी बाबू ने हेनरी फोर्ड को ऑटोमोबाइल क्रांति के लिए कहा था.
नोटबंदी ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है और आर्थिक आजादियों को सीमित कर दिया है जबकि विकासआय व रोजगार बढ़ाने का रास्ता छोटी सरकार और बड़े कारोबार से ही निकलेगासरकार जितनी जल्दी यह हकीकत स्वीकार कर लेउसी में अर्थव्यवस्था की भलाई है. 

Wednesday, February 24, 2016

तीस बनाम सत्तर




थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है.

स्सी के दशक वाली रीगनॉमिक्स के पुरोधा और ट्रिकल डाउन थ्योरी के प्रवर्तक आज के भारत में आ जाएं तो उन्हें शायद एक नई थ्योरी की ईजाद करनी होगी जिसे ट्रिकल अप थ्योरी कहेंगे. ट्रिकल डाउन थ्योरी वाले कहते थे कि समाज के ऊपरी तबके यानी उद्योग-कारोबार को रियायतें देकर मांग बढ़ाई जा सकती है जो निचले तबके तक रोजगार व कमाई पहुंचाएगी. लेकिन इस सिद्धांत के पुरोधाओं को आज के भारत में यह साबित करने में कतई दिक्कत नहीं होगी कि कभी-कभी किसी देश की इकोनॉमी में ग्रोथ ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर चल देती है, जहां एक विशाल अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इसके सबसे बड़े हिस्सों को छोड़कर मुट्ठी भर धंधों में सिमट जाती है भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक थ्री स्पीड इकोनॉमी है, जिसमें तेज ग्रोथ अर्थव्यवस्था के ऊपरी 30 फीसदी हिस्से में रह गई है, जहां ई- कॉमर्स, ट्रैवेल, स्टॉक मार्केट आदि है. उद्योगों वाला दूसरा 30 फीसदी हिस्सा इकाई की ग्रोथ में है और खेती, भवन निर्माण आदि का तीसरा हिस्सा तो पूरी तरह नकारात्मक ग्रोथ में है. यह परिदृश्य देश में पहली बार देखा गया है. जो एक जगह ग्रोथ बनाए रखने, दूसरी जगह बढ़ाने और तीसरी जगह ग्रोथ वापस लाने की बेहद पेचीदा चुनौती लेकर पेश हुआ है. इस चुनौती की रोशनी में 2016 का बजट बड़ा संवेदनशील हो जाता है.
तीन अलग-अलग रफ्तारों वाली अर्थव्यवस्था के इस माहौल को समझना जरूरी है क्योंकि इस परिदृश्य पर अगले एक-दो साल की ग्रोथ, निवेश और रोजगारों का बड़ा दारोमदार है. मुंबई की रिसर्च फर्म एम्बिट कैपिटल का ताजा अध्ययन थ्री स्पीड इकोनॉमी को गहराई से समझने में हमारी मदद करता है. यह अध्ययन जीडीपी में योगदान करने वाले विभिन्न हिस्सों के ग्रोथ के आंकड़ों पर आधारित है. अर्थव्यवस्था में सबसे तेज दौडऩे वाले तीन क्षेत्रों में तेज रफ्तार वाला पहला हिस्सा वह है जिसमें परिवहन (खास तौर पर एविऐशन), होटल, कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, ई-कॉमर्स और कारोबारी सेवाएं आती हैं. दो अंकों की गति से दौड़ रहे इस क्षेत्र का जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सा है. गौर तलब है कि भले ही भवन निर्माण उद्योग में मंदी हो लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी बिक रही है. ठीक इसी तरह उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में मंदी के बावजूद ई-कॉमर्स में सक्रियता है. इस तेज दौडऩे वाली अर्थव्यवस्था में वेंचर कैपिटल और पीई फंड के जरिए निवेश आया है. इसके अलावा ऊंची आय वाले निवेशक भी इसमें सक्रिय हैं. इस हिस्से में जल्दी मंदी की उम्मीद भी नहीं है.
मझोली गति वाला दूसरा हिस्सा भी जीडीपी में 30 फीसदी का हिस्सेदार है. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि इसमें वाणिज्यिक वाहन यानी ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्टरिंग, आवासीय भवन निर्माण और खनन क्षेत्र आते हैं. इस क्षेत्र में इकाई की गति से मरियल ग्रोथ दर्ज हो रही है. यहां कर्ज में दबी कंपनियां बैलेंसशीट रिसेसशन से जूझ रही हैं, जिसमें कर्ज के कारण नया कॉर्पोरेट निवेश नहीं हो पाता. इसलिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के कुछ हिस्सों में मामूली ग्रोथ दिखती है. जैसे पिछली दो तिमाहियों में बंदरगाह परिवहन और रेलवे माल भाड़े की ढुलाई में स्थिरता है जबकि कोयला व बिजली में गिरावट दर्ज की गई है.
शून्य या नकारात्मक ग्रोथ वाला तीसरा हिस्सा खेती, समग्र भवन व इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, प्रशासनिक सेवाएं व बैंकिंग है. इन सबका जीडीपी में हिस्सा 40 फीसदी है. सरकारी खर्च, सीमेंट, स्टील आदि की मांग व उत्पादन और आय व रोजगारों में वृद्धि के आंकड़े साबित करते हैं कि इन चार क्षेत्रों में हालत सबसे बुरी है. तीन फसलों की बर्बादी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के चलते ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर 2013-15 के 13.7 फीसदी से घटकर अब -5.5 फीसदी पर आ गई है. बैंकों की हालत बुरी है, मुनाफे गोता खा रहे हैं और कर्ज की मांग पूरी तरह खत्म हो चुकी है. दूसरी तरफ सरकारी खर्च में कटौती के कारण बुनियादी ढांचा निवेश न बढऩे से सीमेंट स्टील की मांग नहीं बढ़ी है. गैर बिके मकानों की भीड़ और प्रॉपर्टी मूल्यों में तेज गिरावट बताती है कि रियल एस्टेट में निवेश का बुलबुला फूट गया है. 
थ्री स्पीड इकोनॉमी ने गवर्नेंस और नीतिगत स्तर पर दो तरह की असंगतियां पैदा की हैं. इसने सरकार को भ्रमित कर दिया है. पिछले दो बजट इसी असमंजस में बीत गए कि दौड़ते को और दौड़ाया जाए, फिर उसके सहारे मंदी दूर की जाए या फिर असली मंदी से सीधे मुठभेड़ की जाए. दूसरी असंगति यह है कि जीडीपी के 30 फीसदी हिस्से में चमक और 70 फीसदी में सुस्ती के कारण अर्थव्यवस्था की सूरते-हाल को बताने वाले आंकड़ों को लेकर गहरी ऊहापोह है.
थ्री स्पीड इकोनॉमी की सबसे व्यावहारिक मुश्किल यह है कि अर्थव्यवस्था के जिस 70 फीसदी हिस्से में सुस्ती या गहरी मंदी छाई है उसमें खेती, भवन निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग आते हैं जो रोजगारों का सबसे बड़े स्रोत हैं. सिर्फ 30 फीसदी अर्थव्यवस्था की चमक 'सूट-बूट की सरकार' जैसी राजनैतिक बहसों को ताकत दे रही और आर्थिक गवर्नेंस को दकियानूसी सब्सिडीवाद की तरफ धकेल रही है जो और बड़ी समस्या है.
इस तीन रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था के बाद हमें जीडीपी को खेती, उद्योग, सेवा क्षेत्रों में बांटकर देखना बंद करना चाहिए और उन मिलियन इकोनॉमीज को देखना होगा जो इन तीन बड़े हिस्सों में भीतर छिपी हैं और मंदी, ग्रोथ व रोजगार में नायक व प्रतिनायक की भूमिका निभा रही हैं.
थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है. यकीनन इस तरह की आर्थिक चुनौतियों के इलाज एकमुश्त बजटीय रामबाण में नहीं बल्कि छोटे-छोटे उपायों में छिपे हैं जो सरकार से मैक्रो मैनेजमेंट छोड़कर विशेषज्ञों की तरह क्षेत्र विशेष के इलाज की अपेक्षा रखते हैं. अरुण जेटली, हाल के इतिहास में पहले वित्त मंत्री होंगे जो इस तरह की पेचीदा ग्रोथ गणित से मुकाबिल हैं. इस समस्या के समाधान से पहले उन्हें 2016 के बजट में यह साबित करना होगा कि सरकार समस्या को समझ भी पा रही है या नहीं. चलिए, बजट का इंतजार करते हैं.


Monday, May 13, 2013

अधिकारों के दाग



संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों देश को रोजगार व शिक्षा के बदले एक नई राजनीतिक नौकरशाही और जवाबदेही से मुक्‍त खर्च का विशाल तंत्र मिला है।

भ्रष्‍टाचार व दंभ से भरी एक लोकतांत्रिक सरकार, सिरफिरे तानाशाही राज से ज्‍यादा घातक होती है। ऐसी सरकारें उन साधनों व विकल्‍पों को दूषित कर देती हैं, जिनके प्रयोग से व्‍यवस्‍था में गुणात्‍मक बदलाव किये जा सकते हैं। यह सबसे सुरक्षित दवा के जानलेवा हो जाने जैसा है और देश लगभग इसी हाल में हैं। भारत जब रोजगार या शिक्षा के लिए संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों के सफर पर निकला था तब विश्‍व ने हमें उत्‍साह मिश्रित अचरज से देखा था। यह नए तरह का वेलफेयर स्‍टेट था जो सरकार के दायित्‍वों को, जनता के अधिकारों में बदल रहा था। अलबत्‍ता इन प्रयोगों का असली मकसद दुनिया को देर से पता चला। इनकी आड़ में देश को एक नई राजनीतिक नौकरशाही से लाद दिया गया और जवाबदेही से मुक्‍त खर्च का एक ऐसा विशाल तंत्र खड़ा किया गया जिसने बजट की लूट को वैधानिक अधिकार में बदल दिया। मनरेगा व शिक्षा के अधिकारों की भव्‍य विफलता ने सामाजिक हितलाभ के कार्यक्रम बनाने व चलाने में भारत के खोखलेपन को  दुनिया के सामने खोल दिया है और संवैधानिक गारंटियों के कीमती दर्शन को भी दागी कर दिया है। इस फजीहत की बची खुची कसर खाद्य सुरक्षा के अधिकार से पूरी होगी जिसके लिए कांग्रेस दीवानी हो रही है।
रोजगार गारंटी, शिक्षा का अधिकार और प्रस्‍तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक, जनकल्‍याण के कार्यक्रमों की सबसे नई पीढ़ी है। ग्राम व भूमिहीन रोजगार, काम के बदले अनाज, एकीकृत ग्राम विकास मिशन आदि इन स्‍कीमों के पूर्वज हैं जो साठ से नब्‍बे दशक के अंत तक आजमाये गए।  संसद से पारित कानूनों के जरिये न्‍यूनतम रोजगार, शिक्षा व राशन का अधिकार देना अभिनव प्रयोग इसलिए था क्‍यों कि असफलता की स्थि‍ति में लोग कानूनी उपचार ले सकते थे। भारत के पास इस प्रजाति के कार्यक्रमों की डिजाइन व मॉनीटरिंग को लेकर नसीहतें थोक में मौजूद थीं

Monday, December 24, 2012

मोदी का डर

गुजरात की वोटिंग मशीनें से जिस दिन चुनाव का नतीजा उगलने वालीं थीं ठीक उसके एक दिन पहले , मारुति सुजुकी ने गुजरात में 500 एकड़ जमीन का नया पट्टा मिला और मारुति ने हरियाणा में नए निवेश से तौबा कर ली। नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में जब गुजरात चुनाव प्रचार की गरमी से तप रहा था तब तमिलनाडु के कपड़ा उद्यमी गुजरात में नया ठिकाना बनाने की तैयारी में जुटे थे। अगस्त में जब कांग्रेस व भाजपा चुनाव की बिसात बिछा रहे थे तब नोएडा के उद्यमी के गुजरात सरकार को पत्र लिखकर मेहसाणा में जगह मांग रहे थे और सितंबर में जब चुनावी प्रत्‍याशियों का गुणा भाग चल रहा था तब पंजाब का फास्‍टनर उद्योग गुजरात में 1000 करोड़ रुपये का क्‍लस्‍टर बिठाने की जुगाड़ में था। ..... नरेंद्र दामोदरदास मोदी की तीसरी जीत से डरना चाहिए, अल्‍पसंख्‍यकों को नहीं बल्कि भूपिंदर सिंह हुड्डा, जयललिता, अखिलेश यादवों और प्रकाश सिंह बादलों को। नए निवेशकों का पसंद तो अलग गुजरात, अगले पांच साल में पता नहीं देश के कितने सूबों में जमे जमाये  औ़द्योगिक इलाकों को वीरान कर देगा। यदि तरक्‍की, निवेश और रोजगार ही चुनावी सफलता का नया मंत्र हैं तो  नरेंद्र मोदी अब कई राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों के सबसे बड़े सियासी दुशमन हैं।
किसकी जीत 
मोदी की तारीफों के तूफान से बाहर निकलना जरुरी है ताकि गुजरात पर आर्थिक राजनीति के नए संदर्भों की रोशनी डाली जा सके। आर्थिक विकास के समग्र राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गुजरात की सफलता दरअसल शेष भारत की गहरी विफलता है। आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दशक में औद्योगिक निवेश का जो राष्‍ट्रीय बंटवारा हुआ उसमें गुजरात को बड़ा हिस्‍सा मिला है। विकास का यह असंतुलन अंतत: उन राजयों के सामाजिक, आर्थिक ढांचे पर पर भारी पड़ा जो तरक्‍की के मुकाबले गुजरात से खेत