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Sunday, May 20, 2018

नायाब नाकामी


 कथा सूत्र 
  • जीडीपी में 22 फीसदी का हिस्सा रखने वाला भारत का विशाल खुदरा व्यापार यानी रिटेल, खेती के बाद सबसे बड़ा रोजगार है. इसका आधुनिकीकरण तत्काल 5.6 करोड़ और 2022 तक करीब 173 करोड़ रोजगार दे सकता है 
  •  खुदरा बाजार 948 अरब डॉलर (केपीएमजी) का है जो पांच साल में 15 फीसदी की गति से बढ़ा है. इस बाजार में संगठित विक्रेताओं का हिस्सा केवल 8 फीसदी है
  •  भारत में ऑनलाइन रिटेल यानी ई-कॉमर्स का बाजार 38.5 अरब डॉलर का है
  •  संगठित या मल्टी  ब्रांड रिटेल (जैसे बिग बाजार) में वॉलमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कंपनियों को आने की छूट नहीं है. लेकिन ई-कॉमर्स में 100 फीसदी विदेशी पूंजी की अनुमति है. इसी रास्ते से वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट को खरीद लिया. इतनी पूंजी लगाकर ई-कॉमर्स कंपनियां भी अपने गोदाम या वितरण नेटवर्क (रोजगार बढ़ाने वाले काम) नहीं बना सकतीं, उन्हें बस मार्केटप्लेस बनाने यानी ग्राहकों को विक्रेताओं से जोडऩे की छूट है

और
  • ·      अमेरिकी वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट (सिंगापुर) को खरीदने में जो 16 अरब डॉलर लगाए हैं उनमें करीब 14 अरब डॉलर जापान, अमेरिका, चीन और दक्षिण अफ्रीका की कंपनियों को मिलेंगे, क्रिलपकार्ट में जिनका हिस्सा वॉलमार्ट ने खरीदा है. यह निवेश भारत नहीं आएगा. 

अब कहानी...

वे दिन तेज ग्रोथ के थे. 2006 जनवरी की एक ठंडी शाम उस समय गरमा उठी जब उद्योग विभाग ने (सिंगल ब्रांड) रिटेल में विदेशी निवेश का ऐलान किया. इससे पहले खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का जिक्र कुफ्र था. इस बयान के अगले ही साल, 2007 में ही वॉलमार्ट भारती (एयरटेल) के साथ भारत आ गई. वॉलमार्ट को देखकर कार्फू और टेस्को जैसे ग्लोबल रिटेलर भी आ पहुंचे.

2010 में मल्टी ब्रांड रिटेल खोलने की पहल हुई और विभिन्न शर्तों के साथ 2012 में 51 फीसदी विदेशी निवेश खुला तो लेकिन संघ परिवार और भाजपा ने इस कदर आंदोलन खड़ा किया कि रिटेल में विदेशी निवेश जहां का तहां थम गया. वॉलमार्ट ने करीब एक दर्जन शहरों में थोक बिक्री के मेगा स्टोर भी खोले लेकिन विदेशियों के लिए मल्टी ब्रांड रिटेल पर राजनीति से ऊबकर वॉलमार्ट ने 2013 में भारती के साथ अपना उपक्रम खत्म कर दिया.

इस हड़बोंग के बीच देसी कंपनियों को संगठित रिटेल में फायदा दिखने लगा था. सुभिक्षा, स्पेंसर (आरपीजी), रिलायंस, मोर (बिरला), इजी डे (भारती), ट्रेंट (टाटा), बिग बाजार (फ्यूचर) जैसे देसी रिटेलर्स सामने आए और अनुमान लगाया गया कि 2010 से 2015 के बीच संगठित रिटेल 21 फीसदी की गति से बढऩे की उम्मीद जड़ पकडऩे लगी. लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, नई तकनीक और बुनियादी ढांचे के लिए इनके पास पूंजी की कमी थी इसलिए 2015 आते आते तमाम स्टोर बंद हो गए.



इसी दौरान ई-कॉमर्स की आमद हुई. नए धनाढ्यों (वेंचर कैपिटल) की पूंजी पर डिस्काउंट सेल के इस धंधे ने संगठित रिटेल को तोड़ दिया. ई-कॉमर्स की क्रांति अल्पजीवी थी. परस्पर विरोधी नीतियों और नोटबंदी व जीएसटी के कारण 2017 में देसी ई-कॉमर्स भी दम तोड़ गया. 


अब फ्लिपकार्ट अधिग्रहण के बाद इस बाजार में दो विदेशी कंपनियोंअमेजन और वॉलमार्ट  का राज होगा

आज रिटेल के उदारीकरण के 12 साल बाद ...
  • ·      खुदरा यानी रिटेल कारोबार का आधुनिकीकरण खेती, खाद्य प्रसंस्करण, निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग, वित्तीय सेवाओं को एक साथ गति दे सकता था और प्रति 200 वर्ग फुट पर एक रोजगार के औसत वाला यह क्षेत्र हर तरह के रोजगारों का इंजन बन सकता था लेकिन इसमें विदेशी निवेश रोक दिया गया.

  • ·     मुक्त बाजार में पूंजी अपना रास्ता तलाश ही लेती है. वॉलमार्ट जिस पूंजी से रिटेल का बुनियादी ढांचा बनाकर रोजगार दे सकती थी उसके जरिए उसने पिछले दरवाजे से ई-कॉमर्स में प्रवेश कर लिया. अब वह उपभोक्ताओं को सामान बेचेगी, जिसके लिए उसे विदेशी निवेश नियमों के तहत रोका गया था. ई-कॉमर्स से बनने वाले अधिकतम नए रोजगार केवल कूरियर लाने वालों के होंगे.

  • ·     भारत के लोगों की खपत में 61 फीसद हिस्सा खाद्य उत्पादों का है. रोजगार और उपभोक्ता सुविधाएं बढ़ाने के लिए इनके उत्पादन और वितरण का आधुनिकीकरण होना था लेकिन यह पिछड़ा ही रह गया है.


यह केवल भाजपा परिवार की रूढि़वादी जिद थी जिसके चलते विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता और नए रोजगारों की रोशनी नहीं मिल सकी. लेकिन विदेशी पूंजी तो आ ही गई. अब इस बाजार के एक हिस्से (ई-कॉमर्स) पर विदेशी कंपनियां काबिज हो गईं हैं जबकि दूसरे बड़े हिस्से में पुराने ढर्रे का कारोबार चल रहा है. इन दोनों के बीच खड़े उपभोक्ता और बेरोजगार सरकार को बिसूर रहे हैं. 

सरकार अब भी मल्टी ब्रांड रिटेल के उदारीकरण के जरिए अवसरों की बर्बादी बचा सकती है लेकिन हम क्यों करेंगे? हम तो मौके गंवाने में महारथी हैं.  


Wednesday, July 27, 2016

अधूरे सुधारों का अजायबघर



भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. 

शुरुआत अच्छी हो तो समझ लीजिए कि आधा रास्ता पार. कहावत ठीक है बशर्ते इसे भारत के आर्थिक सुधारों से न जोड़ा जाए. भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. उदारीकरण की रजत जयंती पर बेशक हमें फख्र होना चाहिए कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा मुल्कों में है जिसने ढाई दशक में अभूतपूर्व और अद्भुत उपलब्धियां हासिल की हैंजो बढ़ी हुई आयसेवाओंतकनीकोंउत्पादोंसुविधाओं की शक्ल में हमारे आसपास बिखरी हैं और इन सुधारों की कामयाबी की गारंटी देती हैं. लेकिन इसके बावजूद आर्थिक सुधारों की बड़ी त्रासदी इनका अधूरापन हैजो अगर नहीं होता तो हमारे फायदे शायद कई गुना ज्यादा होते और असंगतियां कई गुना कम.
सबसे नए उदारीकरण से शुरू करते हैं. इसी जून में मोदी सरकार ने महत्वाकांक्षी और दूरगामी उड्डयन (एविएशन) नीति जारी की और इसके ठीक बाद विमानन क्षेत्र में विदेशी निवेश के नियम भी उदार किए गए. यह दोनों ही फैसले आधुनिकता और साहस के पैमानों पर उत्साहवर्धक थेक्योंकि नई नीति के तहत सरकार ने भारतीय विमानन कंपनियों के लिए विदेशी उड़ानों के दकियानूसी नियमों को बदल दिया था और दूसरी तरफ विदेशी विमान कंपनियों के लिए बाजार खोलने की हिम्मत दिखाई थी. लेकिन इसके बाद भी यह सुधार अधूरा ही रह गया.
नई उड्डयन नीति का अधूरापन इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में विमानन क्षेत्र का उदारीकरण 1990 में प्रारंभ हुआ. 1994 की ओपन स्काई नीति और विमान सेवा में सरकारी कंपनियों (एयर इंडिया) के एकाधिकार की समाप्ति के बाद तेजी आई लेकिन 26 साल के तजुर्बों के बावजूद नई विमानन नीति में इस क्षेत्र के समग्र उदारीकरण की हिम्मत नजर नहीं आई. कई नीतियों के सफर के बावजूद विमानन क्षेत्र को अभी कुछ और नीतियों का इंतजार करना होगा.
ऊर्जा और बिजली क्षेत्र असंगतियों का शानदार नमूना है. निजी कंपनियों को बिजली उत्पादन की इजाजत 1992 में (इंडिपेंडेंट पॉवर प्रोड्यूसर्स नीति) और उत्पादक इस्तेमाल (कैप्टिव) के लिए कोयला निकालने की छूट 1993 में मिल गई थी. नब्बे के दशक में राज्य बिजली बोर्डों के पुनर्गठन और 2000 के दशक में नए बिजली कानून सहित कई कदमों के बावजूद बिजली सुधार पूरे नहीं हुए. इसी दौरान सरकार ने कोयला क्षेत्र में विदेशी निवेश की गति तेज की और कैप्टिव खदानों का आवंटन-घोटाले-पुनर्आवंटन हुए.
ऊर्जा नीतियों में तमाम फेरबदल के बावजूद बिजली और ऊर्जा सुधार अधूरे उलझे और पेचीदा रहे. सरकार ने उत्पादन का निजीकरण तो किया लेकिन बिजली वितरण अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण में रहा. सरकारें बिजली दरें तय करने की राजनीति छोडऩा नहीं चाहती थींइसलिए बिजली क्षेत्र में नियामक खुलकर काम नहीं कर सके. दूसरी तरफ बिजली उत्पादन में निजी निवेश के बावजूद सरकार ने कोयला खनन अपने नियंत्रण में रखा. इन अजीब असंगतियों के चलते भारत का ऊर्जा क्षेत्र विवादोंघोटालों और घाटों का पुलिंदा बन गया. 1990 में बिजली बोर्ड घाटे में थे और राज्यों के बिजली वितरण निगम आज भी घाटे में हैंजिन्हें पिछले 25 साल में तीन पैकेज मिल चुके हैं. तीसरा पैकेज उदय हैजो मोदी सरकार लेकर आई है. बिजली का उत्पादन व आपूर्ति बढ़ी है लेकिन कोयला व बिजली वितरण के क्षेत्र में अधूरे सुधारों के कारण असंगतियां और ज्यादा बढ़ गई हैं.
दूरसंचार सुधारों का किस्सा भी जानना जरूरी हैजो लगभग हर दूसरे साल किसी नीतिगत बदलाव के बावजूद आज तक नतीजे पर नहीं पहुंच सके. 1993 में मोबाइल सेवा की शुरुआत से लेकर, 1995 में कंपनियों को लाइसेंस फीस से माफीटीआरएआइ का गठनसीडीएमए सेवा, 2जी लाइसेंसविदेशी निवेश का उदारीकरण, 3जी सेवा, 2जी घोटालानए स्पेक्ट्रम आवंटन और 4जी तक दूरसंचार सुधारों का इतिहास रोमांच से भरा हुआ है.
इस उदारीकरण का मकसद बाजार में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा लाना और उपभोक्ताओं को आधुनिक व सस्ती सेवा देना था लेकिन दूरसंचार सुधारों को सही क्रम नहीं दिया जा सका. सुधारों के अधूरेपन व तदर्थवाद का नतीजा है कि स्पेक्ट्रम घोटालों के बावजूद सरकारें पारदर्शी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति नहीं बना सकीं. टीआरएआइ एक सफल व पारदर्शी नियामक बनने में असफल रहाइसलिए 2जी से 4जी तक आते-आते बाजार में प्रतिस्पर्धा (ऑपरेटरों की संक्चया घटी) सीमित रह गई. सेवा की गुणवत्ता बिगड़ी है और सेवा दरें महंगी हो गई हैं.
खुदरा कारोबार के उदारीकरण को चौथे उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं जिसकी शुरुआत 1997 में कैश ऐंड कैरी में शत प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ हुई थी. 2000 के दशक में सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी और मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआइ खोला गया लेकिन सियासी ऊहापोह के कारण सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो सके. इस बीच सरकार ने हाल में ही ई-कॉमर्स और फूड रिटेल में शत प्रतिशत विदेशी निवेश खोल दिया. कागजों पर पूरा रिटेल क्षेत्र विदेशी निवेश के लिए खुला हैलेकिन प्रक्रियागत उलझनों व राजनैतिक असमंजस के चलते निवेश नदारद है.
अधूरेअनगढ़ और असंगत सुधारों के कारणन चाहते हुए भी भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था बन गई है जिसमें खुलेपन के फायदे चुनिंदा हाथों तक सीमित हैं और बाजार का स्वस्थ और समानतावादी विस्तार कहीं पीछे छूट गया. इस खुले बाजार में अवसर बांटने वाली ताकत के तौर पर सरकार आज भी मौजूद है जबकि अवसर लेने की होड़ में लगी कंपनियां कार्टेलनेताओं से गठजोड़ और भ्रष्टाचार से इस उदारीकरण को आए दिन दागी करती हैं.

ब्रिटिश कवि जॉन कीट्स कहते थे कि अच्छी शुरुआत से आधा काम खत्म नहीं होता. दरअसल जब तक आधा रास्ता न मिल जाए तक अच्छी शुरुआत का दावा ही नहीं करना चाहिए. आर्थिक सुधारों ने भारत को बड़ी नेमतें बख्शी हैं लेकिन सुधारों के तलवे में अधूरेपन का एक बड़ा कांटा चुभा है जो एक स्वस्थ देश को हमेशा लंगड़ा कर चलने पर मजबूर करता है. काश हम यह कांटा निकाल सकते!   

Monday, May 18, 2015

रिटेल का शेर


यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकीजो बुनियादी ढांचेखेतीरोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है.
बीजेपी क्या भारतीय बाजार के सबसे बड़े उदारीकरण को रोकने की जिद छोड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुदरा कारोबार के शेर को जगाने की हिम्मत जुटा चुके हैं, जो 125 करोड़ उपभोक्ताओं व 600 अरब डॉलर के कारोबार की ताकत से लैस है और जहां विदेशी व निजी निवेश के बाद पूरी अर्थव्यवस्था में बहुआयामी ग्रोथ का इंजन चालू हो सकता है. अगर खुदरा कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले पर नई सरकार की सहमति और बीजेपी व उसके सहयोगी दलों के राज्यों की मंजूरी दिखावा नहीं है तो फिर इसे मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ का सबसे साहसी तोहफा माना जाना चाहिए.
यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकी, जो बुनियादी ढांचे, खेती, रोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है. रिटेल का उदारीकरण होकर भी नहीं हो सका. पिछली सरकार ने सितंबर 2012 में मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश खोल तो दिया लेकिन बीजेपी के जबरदस्त विरोध के बाद, निवेशकों को इजाजत देने का विकल्प राज्यों पर छोड़ दिया गया था. सियासत इस कदर हो चुकी थी कि किसी राज्य ने आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं दिखाई.
खुदरा कारोबार में एफडीआइ पर सरकार का यू-टर्न ताजा है क्योंकि इसी अप्रैल में, वाणिज्य व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने लोकसभा को बताया था कि मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की नीति पर अमल पर कोई फैसला नहीं हुआ है. यह पहलू बदल शायद भूमि अधिग्रहण पर मिली नसीहतों से उपजा है. मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि विपक्ष में रहते एक सख्त भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत, बीजेपी की गलती थी. ठीक ऐसी ही गलती रिटेल में एफडीआइ के विरोध के जरिए हुई थी जिसे अब ठीक करने का वक्त है.
खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने का निर्णय ठीक उन्हीं चुनौतियों की देन था जिनसे अब मोदी सरकार मुकाबिल है. मंदी व बेकारी से परेशान यूपीए सरकार खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश लाना चाहती थी ताकि ग्रोथ का जरिया खुल सके. यह एक क्रांतिकारी उदारीकरण था. इसलिए ग्लोबल छवि भी चमकने वाली थी. मोदी सरकार पिछले एक साल में रोजगारों की एकमुश्त आपूर्ति बढ़ाने या बड़े सुधारों का कौल नहीं दिखा सकी. अलबत्ता अब मौका सामने है. उद्योग मंत्रालय के ताजा दस्तावेज के मुताबिक बीजेपी, उसके सहयोगी दलों व कांग्रेस को मिलाकर राजस्थान, महाराष्ट्र कर्नाटक, आंध्र प्रदेश समेत 12 राज्य खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने पर राजी हैं. समर्थन की ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं बनी थी. यह विदेशी रिटेल कंपनियों को बुलाने का साहस दिखाने का सबसे अच्छा अवसर है.
भारत की उपभोग खपत ही अर्थव्यवस्था का इंजन है जिसके बूते 2004 से 2009 के बीच सबसे तेज ग्रोथ आई थी. रिटेल बाजार के पीछे खेती है, बीच में उद्योग हैं और आगे उपभोक्ता. उपभोग खर्च ही मांग, रोजगार, आय में बढ़त, खर्च व खपत का चक्र तैयार करता है, जो रिटेल की बुनियाद है. रिटेल भारत में रोजगारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है जिसमें चार करोड़ लोग लगे हैं. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय मानता है कि 2022 तक इस क्षेत्र में करीब 5.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा. यह आकलन इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से आने वाली ग्रोथ की संभावना पर आधारित नहीं है. बोस्टन कंसल्टिंग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का खुदरा कारोबार 2020 तक एक खरब डॉलर का हो जाएगा, जो आज 600 अरब डॉलर पर है. खुदरा कारोबार का आधुनिकीकरण, नौकरियों का सबसे बड़ा जरिया हो सकता क्योंकि सप्लाई चेन से लेकर स्टोर तक संगठित रिटेल में सबसे ज्यादा रोजगार बनते हैं. पारंपरिक रिटेल में विदेशी निवेश पर असमंजस के बीच ई-रिटेल के कारण असंगतियां बढ़ रही हैं. ई-रिटेल में टैक्स, निवेश, गुणवत्ता, पारदर्शिता के सवाल तो अपनी जगह हैं ही. इससे डिलीवरी मैन से ज्यादा बेहतर रोजगार भी नहीं निकले हैं.

 रिटेल में नया निवेश, कंस्ट्रक्शन की मांग को वापस लौटा सकता है जो इस समय गहरी मंदी में है और खेती के बाद रोजगारों और मांग का दूसरा बड़ा जरिया है. रिटेल उपभोक्ता उत्पाद उद्योगों के लिए नया बाजार और दसियों तरह की सेवाएं लेकर आता है जो कि मेक इन इंडिया का हिस्सा है. रिटेल का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य व ग्रॉसरी का है जो कि प्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ता है. आधुनिक रिटेल, किसानों और लघु उद्योगों के लिए एक बड़ा बाजार होगा.
 रिटेल को लेकर कुछ नए तथ्य तस्दीक करते हैं कि सरकार इसके सहारे ग्रोथ के इंजन में ईंधन भर सकती है. जीडीपी की नई गणना के मुताबिक, आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार पांच फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी पहुंचने के पीछे विशाल थोक व खुदरा कारोबार की ग्रोथ है. इस कारोबार के समग्र आकार को जीडीपी गणना का पुराना आंकड़ा पकड़ नहीं पाता था. पुराने पैमाने के तहत थोक व रिटेल कारोबार का, जीडीपी में योगदान नापने के लिए एनएसएसओ के रोजगार सर्वे का इस्तेमाल होता था लेकिन नए फॉर्मूले में सेल टैक्स के आंकड़े को आधार बनाया गया तो पता चला कि थोक व खुदरा कारोबार न केवल अर्थव्यवस्था का 20 फीसदी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ्तार जीडीपी की दोगुनी है.
   भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों के विरोध में राहुल-सोनिया के भाषणों को, खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ अरुण जेटली के भाषण के साथ सुनना बेहतर होगा. इससे यह एहसास हो जाएगा कि भारत की राजनीति चुनाव से चुनाव तक का मौकापरस्त खेल है और कांग्रेस-बीजेपी नीतिगत दूरदर्शिता में बेहद दरिद्र हैं. अलबत्ता फैसले बदलना साहसी राजनीति का प्रमाण भी है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर नई सोच का साहस दिखा रहे हैं तो उन्हें भूमि अधिग्रहण के साथ 125 करोड़ लोगों के विशाल खुदरा बाजार के उदारीकण की हिम्मत भी दिखानी चाहिए जो केवल बीजेपी की दकियानूसी सियासत के कारण आगे नहीं बढ़ सका. उनका यह साहस अर्थव्यवस्था की सूरत और सीरत, दोनों बदल सकता है.


Monday, March 9, 2015

साहस का हिसाब-किताब

 यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
साहसी होना ताकत व माहौल पर निर्भर नहीं होता इसके लिए नीयत और मंशा ज्यादा जरूरी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस राजनैतिक साहस के साथ कश्मीर में 'परिवारवादी' और अलगाववादी लोगों (सज्जाद लोन) के साथ सरकार बना ली, वही हिम्मत बजट में नजर क्यों नहीं आई? कश्मीर में बीजेपी के राजनैतिक दर्शन से इतर जाने का फैसला जिस इच्छा शक्ति से निकला था, क्रांतिकारी सुधारों भरे बजट के लिए ठीक ऐसे ही संकल्प की दरकार थी. मोदी सरकार के नौ माह बीतने और बेहद महत्वपूर्ण बजटों (रेल व आम बजट) के औसत होने के बाद अब यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार गवर्नेंस में कोई बड़ा परिवर्तन करने की नीयत रखती भी है या बिग आइडिया की पुकार और बदलाव के कौल केवल चुनावी जबानी जमा खर्च थे? उपभोक्ताओं, किसानों, रोजगार तलाशते युवाओं से लेकर कंपनियां और विदेशी रेटिंग एजेंसियां (फिच, स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस बजट के असर को लेकर मुतमईन नहीं हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
रेलवे व आम बजट में क्या मिला, यह सबको पता है. मगर यह जानना बेहतर होगा कि ऐेसा क्या हो सकता था जो इन्हें 1991 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी बजटों में बदल देता. बीजेपी ने जिस ठसक के साथ झारखंड में दल बदल के जरिए सरकार बना ली, लगभग उसी तरह के राजनैतिक साहस के आधार पर सुरेश प्रभु यह ऐलान कर सकते थे कि रेलवे अब सिर्फ  रेल चलाएगी. रेल नीर की बोतलें भरना, पहिए-स्लीपर बनाना, इंजन-डिब्बे गढ़ना रेलवे का काम नहीं है. इन कारखानों में सरकार का हिस्सा बेचकर मिले संसाधनों को रेल नेटवर्क  में लगाया जा सकता था. यह रेलवे का मेक इन इंडिया हो सकता था. रेलवे को इस तरह के बिग आइडिया की ही जरूरत थी जो एकमुश्त बदलाव की राह खोलता. अब अगर एक साल बाद भी रेलवे जस की तस रहे तो चौंकिएगा नहीं, क्योंकि रेल नेटवर्क  के लिए पांच साल में 8.5 लाख करोड़ रु. कहां से आएंगे, यह खुद 'प्रभु' भी नहीं बता सकते.
जिस जिद के साथ भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक करवट बदली गई, ठीक वैसा ही साहस खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश खोलने के फैसले पर क्यों नहीं दिखाया जा सकता? सरकार के भीतर यह सबको मालूम है कि 2018 तक करीब 950 अरब डॉलर पर पहुंचने वाला देश का खुदरा बाजार रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हो सकता है. इस 'ट्रेड इन इंडिया' में खेती समेत तमाम क्षेत्रों के लिए संभावनाएं छिपी हैं जो कैश ट्रांसफर के साथ बढ़ने वाले उपभोक्ता खर्च के माफिक है. खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी को सिर्फ  अपने स्वदेशी कुनबे को मनाना था, जो भूमि अधिग्रहण की कंटीली राह से ज्यादा आसान होता. सरकार को कारोबार से बाहर निकलने और गवर्नेंस करने की सलाह देने वाले प्रधानमंत्री अगर एअर इंडिया, भारत संचार निगम, बीमा निगम जैसी कंपनियों के विनिवेश का ऐलान नहीं कर पाए तो यह सिर्फ  कमजोर इच्छा शक्तिका नमूना है.
बजट के आंकड़े मोदी सरकार से की गई उम्मीदों की चुगली खाते हैं. मुफ्तखोरी पर बाहें फटकारने के विपरीत बजट में गैर पेट्रो सब्सिडी का बिल जस का तस है. सरकार उन्हीं पुरानी समाजिक सुरक्षा स्कीमों पर लौट आई, जिनकी विफलता प्रामाणिक है. खर्च तो शिक्षा व स्वास्थ्य पर कम हुआ है जो आम जनता के लिए मोदी की 'मन की बातों' का ठीक उलटा है. राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण के नए मॉडल से सहमत होने के लिए साधुवाद, अलबत्ता वित्त आयोग की सिफारिशें इस बदलाव का जरिया बनी हैं जिन्हें कोई भी सरकार स्वीकार करती.   
रियायतों के बावजूद कंपनियां और विदेशी एजेंसियां अगर बजट पर मुतमईन नहीं हो पा रही हैं तो वजह यही है कि मोदी-अरुण जेटली आर्थिक सुधारों के अगले चरण का वादा करते हुए आए थे, न कि एक कामचलाऊ और कतरब्योंत वाले बजट का. मोदी-जेटली को यह याद रखना होगा कि टुकड़ों-टुकड़ों में बदलावों पर शक-शुबहे होते हैं लेकिन बड़े व एकमुश्त सुधार सरकार को साहसी साबित करते हैं. यूपीए सरकार के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या आधार स्कीमों को स्वीकारना उदारता का प्रमाण है लेकिन इनसेआगे न बढ़ पाना इस बात का प्रमाण भी है कि नई सरकार यथास्थिति को बेहतर करने से ज्यादा का साहस नहीं जुटा सकी. यही वजह है कि बजट की सामाजिक स्कीमों के अमल पर ठीक वैसे ही शक हैं जैसे कि यूपीए के साथ थे और बजट के आंकड़ों में ठीक वैसा ही लोचा है जैसा कि हमेशा से होता आया है.
चिंता यह नहीं है कि बजट औसत है बल्कि निराशा इस बात की है कि मोदी सरकार जिस नई और बड़ी सूझ का भरोसा देकर सत्ता में आई थी वह नौ माह में कहीं नहीं दिखी. पिछले साल दिसंबर में हमने इस स्तंभ में लिखा था कि सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है, क्योंकि पांच साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता. मोदी सरकार के पास अब केवल दो बजट बचे हैं. दो कीमती बजट यूं ही गुजर गए. जुलाई के बजट में सरकार का एजेंडा आना चाहिए था और इस बजट में ऐक्शन प्लान. 2016 के बजट में सुधारों का असर आंक कर संतुलन की कोशिश होती और 2017 में नए कदम उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि 2018 का बजट चुनावी होगा और 2019 का बजट नई सरकार पेश करेगी. लोगों ने मोदी सरकार से तारे तोड़ने की अपेक्षा नहीं जोड़ी थी. उम्मीद सिर्फ  यही थी कि कारोबार और जिंदगी की सूरत बदलनी चाहिए. अब चाह कर भी बहुत कुछ करने का वक्त नहीं है क्योंकि अगले दो बजट तो बस गलतियां सुधारते ही बीत जाएंगे

Monday, February 3, 2014

चुनावी सियासत के आर्थिक कौतुक

लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर जीवन स्‍तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत: एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्‍ता परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर  वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्‍याज और पत्‍थर दोनों ही खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर  भाजपा का अतीत तो वामपं‍थियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्‍यादा ही दब्‍बू व भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्‍य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह रहा था वह इन चुनावों को  भी गंभीर आर्थिक मुद्दों पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्‍त हुआ, जब भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्‍त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला तात्‍कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार आधार और डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर स्‍कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्‍कीम से जोड़कर उपभोक्‍ताओं की जिंदगी मुश्किल कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्‍ताओं ने 291 जिलों में आधार से जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर पूरी स्‍कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्‍यादा चिंतित करता है क्‍यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्‍सर अलादीन के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्‍यापक पारदर्शिता के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार को इन्‍ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर सरकारी भ्रष्‍टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्‍मीद नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी क्‍यों कि उसकी राज्‍य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्‍यों कि राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्‍वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्‍यवसथाओं का प्रसाद पा चुके लोग अब भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे को तरक्‍की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।  
देश में आर्थिक तरक्‍की राह में नए पत्थर अड़ गए हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्‍पेक्‍ट्रम जैसे  प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्‍ता कर्ज, महंगाई में कमी, केंद्र व राज्‍य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत, नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे जटिल मुद्दे  सुधारों की बहस का नया पहलू हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्‍तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी बहसें ही हल होनी हैं। राज्‍यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले इस धारा में स्‍नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।

Monday, December 10, 2012

बाजार खुलने के बाद


बाजार खुल गया है। अब सौदे शुरु होने का वक्‍त है। भारत की सियासत ने अपने सबसे बड़े कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए ऐसे अनोखे अंदाज में खोला है कि अब बाजार के भीतर नए बाजार खुलने वाले हैं। अरबों के डॉलर के खुदरा खेल में देश के मुख्‍यमंत्री सबसे बडी ताकत बन गए हैं। विदेशी पूंजी के बड़े फैसले अब राज्‍यों की राजधानियों में होंगे जहां वाल मार्ट, टेस्‍को, कार्फू जैसे ग्‍लोबल रिटेल दिग्‍गज, नीतियों को  ‘प्रभावित ’ करने की अपनी क्षमता का इम्‍तहान देंगे और नतीजे इस बात पर निर्भर होंगे कौन सा मुख्‍यमंत्री कब और कैसे प्रभावित होता है। सौदों का दूसरा बाजार खुद देशी रिटेल उद्योग होने वाला है। ताजा बहस में हाशिये पर रहे करीब 1150 अरब रुपये के देशी संगठित रिटेल उद्योग में कंपनियों व ब्रांडों की मंडी लगने वाली है जिसमें ग्‍लोबल रिटेलर कंप‍नियां ही ग्राहक होंगी।
मंजूरियों का बाजार 
खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी पर संसद की बहस का से देश का इतना तो अंदाज हो ही गया है कि ग्‍लोबल रिटेल का सौदा फूल और कांटों का मिला जुला कारोबार है। बाजार खुलने के बाद अब विदेशी पूंजी के गुण दोष की बहस बजाय इन फूल कांटों का हिसाब करना ज्‍यादा समझदारी है। विदेशी निवेश को लेकर यह शायद यह पहला फैसला है जिसमें राज्‍य सरकारें विदेशी कंपनियों की आमद तय करेंगी। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर जो फैसला संसद की दहलीज से बाहर आया है उसे भारत के नक्‍शे पर रखकर देखने के बाद रिटेल की राजनीतिक तस्‍वीर

Monday, December 3, 2012

महाबहस का मौका


  ह महाबहस का वक्‍त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्‍यों कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा समृद्ध व्‍यापारिक अतीत, नए उपभोक्‍ता और खुलेपन की चुनौ‍तियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतां‍त्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित बहुराष्‍ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो उपभोक्‍ताओं के हित ज्‍यादा जरुरी हैं या लाखों व्‍यापारियों के? देश के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्‍यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार बाजार के गुलजार होने की उम्‍मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्‍पर्धी तर्कों की सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्‍या फैसला देगी यह देखना भी महत्‍वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत 
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं जिसमें सियासत भारत के मध्‍य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्‍यवर्ग जो पिछले दो दशक में उभरा और तकनीक व उपभोक्‍ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च से सींचने वाले इस नए इं‍डिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्‍यों की जानकारी देश के नेताओं से कहीं ज्‍यादा है। यह उपभोक्‍ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्‍य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं में सबसे दिलचस्पी

Monday, October 8, 2012

सुधार, दरार और इश्तिहार



श्तिहार एक काम तो बाखूबी करते हैं। दीवार पर उनकी मौजूदगी कुछ वक्‍त के लिए दरारें छिपा लेती है। सियासत इश्तिहारों पर भले झूम जाए मगर बात जब अर्थव्‍यवस्‍था की हो तो इशितहारों में छिपी दरारें ज्‍यादा जोखिम भरी हो जाती हैं। भारत के इश्तिहारी आर्थिक सुधारों ने ग्‍लोबल निवेशकों को रिझाने के बजाय कनफ्यूज कर दिया है। सुर्खियों में चमकने वाले सुधारों के ऐलान, देश की आर्थिक सेहत के आंकड़े सामने आते ही सहम कर चुप हो जाते हैं। केलकर और दीपक पारिख जैसी समितियों की रिपोर्टें तो सरकार की सुधार  वरीयताओं की ही चुगली खाती हैं। सरकार सुधारों के पोस्‍टर से संकट की दरारों को छिपाने में लगी है। सुधार एजेंडे का भारत की ताजा आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल ही हीं दिखता, इसलिए ताजा कोशिशें भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की व्यापक तस्‍वीर को बेहतर करती नजर नहीं आती। उत्‍पादन, ग्रोथ, महंगाई, ब्‍याज दरों, निवेश, खर्च, कर्ज का उठाव, बाजार में मांग और निर्यात के आंकड़ों में उम्‍मीदों की चमक नदारद है। शेयर बाजार में तेजी और रुपये की मजबूती के बावजूद किसी ग्‍लोबल निवेश या रेटिंग एजेंसी ने भारत को लेकर अपने नजरिये में तब्‍दीली नहीं की है।
दरारों की कतार   
वित्‍त मंत्री की घोषणाओं और कैबिनेट से निकली ताजी सुधार सुर्खियों को अगर कोई केलकर समिति की रिपोर्ट में रोशनी में पढ़े तो उत्‍साह धुआं हो जाएगा। केलकर समिति तो कह रही है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था तूफान में घिरी है। कगार पर टंगी है। भारत 1991 के जैसे संकट की स्थिति में खड़ा है। चालू खाते का घाटा  जो विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है, वह जीडीपी के अनुपात में 4.3 प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी ऊंचा स्‍तर है। विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर 1991 जैसे संकट की बात अप्रैल में रिजर्व बैंक गवर्नर डी सुब्‍बाराव ने भी कही थी। ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट, भारत के भारी आयात बिल और निवेशकों के अस्थिर रुख के कारण यह दरार बहुत जोखिम भरी है। राजकोषीय संतुलन के मामले में भारत अब गया कि तब