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Tuesday, March 27, 2018

कमजोर करने वाली 'ताकत'


सरकार
नवंबर 2014: ''सरकार नियामकों की व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी. वित्तीय क्षेत्र कानूनी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की महत्वपूर्ण सिफारिशें सरकार के पास हैंइनमें कई सुझावों को हम लागू करेंगे.''—वित्त मंत्री अरुण जेटलीमुंबई स्टॉक एक्सचेंज
फरवरी 2018: ''रेगुलेटरों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. भारत में नेताओं की जवाबदेही है लेकिन नियामकों की नहीं.''—अरुण जेटलीपीएनबी घोटाले के बाद

नियामक
मार्च 2018: ''घाटालों से हम भी क्षुब्ध हैं लेकिन बैंकों की मालिक सरकार हैहमारे पास अधिकार सीमित हैं. '' उर्जित पटेल गवर्नररिजर्व बैंक
''बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो और वित्त मंत्रालय के बीच संवाद ही नहीं हुआ. हम वित्त मंत्री के साथ बैठक का इंतजार करते रहे''—विनोद रायबैंकिंग बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष. (यह ब्यूरो बैंकों में प्रशासनिक सुधारों की राय देने के लिए बना था जो सिफारिशें सरकार को सौंप कर खत्म हो गया है.)

किसकी गफलत   

घोटालों के बाद सरकारें नियामकों या नौकरशाहों के पीछे ही छिप जाती हैं. लेकिन गौर कीजिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि पटेल की नियुक्ति या बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो का गठन इसी सरकार ने किया था. वे नियामक हैं इसलिए उन्होंने सरकार के सामने आईना रख दिया.

बैंकों में घोटालों के प्रेत को नियामकों की गफलत ने दावत नहीं दी. 2014 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का एक मुकम्मल एजेंडा सरकार की मेज पर मौजूद था. कांग्रेस के हाथ-पैर कीचड़ में भले ही लिथड़े थे लेकिन 2011 में उसे इस बात का एहसास हो गया था कि वित्तीय सेवाओं को नए नियामकों व कानूनों की जरूरत है. जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा के नेतृत्व में एक आयोग (एफएसएलआरसी) बनाया गया. उसकी रिपोर्ट 22 मार्च, 2103 को सरकार के पास पहुंच गई. 2014 में नई सरकार को इसे लागू करना था. वित्त मंत्री ने 2014 में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के कार्यक्रम में इसी को लागू करने की कसम खाई थी.

एफएसएलआरसी ने सुझाया कि
- एक चूक से पूरे सिस्टम में संकट को रोकने (नीरव मोदी प्रकरण में पीएनबी के फ्रॉड से कई बैंक चपेट में आ गए) के लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ऐंड डेवलपमेंट काउंसिल का गठन
- वित्तीय उपभोक्ताओं को न्याय देने के लिए फाइनेंशियल रेड्रेसल एजेंसी
वित्तीय अनुबंधोंसंपत्तिमूल्यांकन और बाजारों के लिए नए कानून
- जमाकर्ताओं की सुरक्षा के लिए नया ढांचा 

विभिन्न वित्तीय पेशेवरों के लिए नियामक बनाने के लिए प्रस्ताव भी सरकार के पास थे. पिछले चार साल में केवल बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो बना जिसके लिए वित्त मंत्री के पास समय नहीं था. इसलिए वह बगैर कुछ किए रुखसत हो गया. चार्टर्ड अकाउंटेंट्स नियामक की सुध नीरव मोदी घोटाले के बाद आई. अगर यह बन पाया तो भी एक साल लग जाएगा.

दकियानूस गवर्नेंस

हम भले राजनेताओं को गजब का चालाक समझते हों लेकिन दरअसल वे आज भी 'मेरा वचन ही है मेरा शासन' वाली गवर्नेंस के शिकार हैंयानी कि पूरी ताकत कुछ हाथों में. आज जटिल और वैविध्यवपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह की सरकार बेहद जोखिम भरी है. अब सुरक्षित गवर्नेंस के लिए स्वंतत्र नियामकों की पूरी फौज चाहिए. इन्हें नकारने वाली सरकार राजनैतिक नुक्सान के साथ अर्थव्यवस्था में मुसीबत को भी न्योता देती हैं. 

मोदी सरकार किसी क्रांतिकारी सुधार को जमीन पर नहीं उतार सकी तो इसकी बड़ी वजह यह है कि निवेशक उस कारोबार में कभी नहीं उतरना चाहते जहां सरकार भी धंधे का हिस्सा है. इसीलिए रेलवेकोयला जैसे प्रमुख क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामक नहीं बने. वहां सरकार नियामक भी है और कारोबारी भी.

पिछले चार साल में न नए नियामक बनाए गए और न ही पुराने नियामकों को ताकत मिलीइसलिए घोटालों ने घर कर लिया. हालत यह है कि लोकपाल बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा लताड़ और अवमानना के खतरे के बावजूद सरकार इस पर दाएं-बाएं कर रही है.

राजनेता ताकत बटोरने की आदत के शिकार हैं. पिछले चार साल में केंद्र और राज्यदोनों जगह शीर्ष नेतृत्व ने अधिकतर शक्तियां समेट लीं और सिर्फ चुनावी जीत को सब कुछ ठीक होने की गारंटी मान लिया गया. ताकतवर नेता अक्सर यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्र नियामक सरकार का सुरक्षा चक्र हैं. उन्हें रोककर या तोड़कर वे सिर्फ अपने और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं. पिछले चार साल में यह जोखिम कई गुना बढ़ गया है.

घोटाले कहीं गए नहीं थे वे तो नए रहनुमाओं इंतजार कर रहे थे.

Monday, March 5, 2018

अंधेरे में मत रहिए

आपका बैंक क्या आपको यह बताता है कि उसने आपकी बचत या जमा किस उठाईगीर कारोबारी को भेंट कर दी?

लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता हैस्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?

भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?

कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कईफर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?

इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर हैक्यों?

आइएदो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.

देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला

बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरेकोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.

फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया. 

अब दूसरा घोटाला देखिए.

रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में. 

हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.  

पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती. 

लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.

भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलतावह क्या और कैसे कर रही है?

बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.

इलाज क्या है

- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है
75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.


बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बादसेबी ने जनता से पूंजी जुटानेबेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.

Saturday, February 24, 2018

शक करने का हक


भारत के इतिहास का सबसे बड़ा बैंक घोटाला क्यों हुआ?

क्योंकि हमने सवाल पूछने बंद कर दिए,

हमें शक करते रहना चाहिए था, सरकार के कामकाज पर,

रातोरात विशाल हो जाती कंपनियों पर,

बैंक कर्ज पर चल रहे कारोबारों पर

और सबसे ज्यादा सवाल हमें करने चाहिए थे उन घोटालों की जांच पर जो अदालतों में दम तोड़ गईं. 

हर वित्तीय घोटाला पिछले की तुलना में ज्यादा सफाई और बेहयाई से किया जाता है. 

और निगहबान पिछले की तुलना में और ज्यादा नाकारा पाए जाते हैं.

इस घोटाले का किस्सा बस इतना है कि नीरव और मेहुल ने की तरह बैंकों के बीच लेन-देन और छोटी अवधि के कर्ज का इस्तेमाल किया, विदेश में विदेशी मुद्रा में भुगतान ले लिया और चंपत हो गए. हर्षद मेहता और केतन पारेख ने भी इसी रास्‍ते का इस्‍तेमाल किया था.

हमें नहीं पता कि सरकार इनका क्‍या कर पायेगी लेकिन इस लूट को रोकना हरगिज संभव है अगर हम सरकारों पर रीझना छोड़ दें.

रोशनी की मांग
इस घोटाले में एफआइआर के 15 दिन बाद कोहराम क्यों मचा. दरअसल, जब पीएनबी ने इस मामले की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को दी तब पता चला कि हुआ क्या है. कारोबारियों को जनता की अदालत में लाया जाना चाहिए. 50 करोड़ रु. से ऊपर की प्रत्येक कंपनी के लिए जनता को भागीदारी देने और शेयर बाजार में सूचीकरण की शर्त जरूरी है. भारत में दस हजार करोड़ रु. तक के कारोबार वाली कंपनियां हैं, जो बैंकों से कर्ज लेती हैं और कंपनी विभाग के पास एक सालाना रिटर्न भरकर छुट्टी पा जाती हैं. हमें पता नहीं, वे क्या कर रही हैं और कब चंपत हो जाएंगी. इस पारदर्शिता से आम लोगों के लिए निवेश के अवसर भी बढ़ेंगे.

कर्ज चाहिए तो पूंजी दिखाइए
यदि प्रवर्तक अपनी पूंजी पर जोखिम नहीं लेता तो फिर डिपॉजिटर की बचत पर जोखिम क्यों कर्ज पर कारोबार के (डेट फाइनेंस) के नियम बदलना जरूरी है. अब उन कंपनियों की जरूरत है जो पारदर्शिता के साथ जनता से पूंजी लेकर कारोबार करती हैं या फिर प्रवर्तक अपनी पूंजी लगाते हैं. 

गड्ढे और भी हैं
हम बकाया बैंक कर्ज (एनपीए) के पहाड़ को बिसूर रहे थे और नीरव-मेहुल छोटी अवधि के बायर्स क्रेडिट (90-180-360 दिन) के कर्ज के जरिए 11,000 करोड़ रु. (या 20,000 करोड़ रु.) ले उड़े, जिसका इस्तेमाल आयातक, वर्किंग कैपिटल के लिए करते हैं.

उधार में कारोबार, सप्लाई चेन की कमजोरी और खराब कैश फ्लो की वजह से भारतीय कंपनियां सक्रिय कारोबारी (वर्किंग) पूंजी को लेकर हमेशा दबाव में रहती हैं. जब भारत की बड़ी कंपनियों को अपने संचालन  को सहज बनाने के लिए सालाना चार खरब रु. (अर्न्स्ट ऐंड यंग—2016) की अतिरिक्त वर्किंग कैपिटल चाहिए तो छोटी फर्मों की क्या हालत होगी.

बैंकों से छोटी अवधि के कर्ज की प्रणाली में बदलाव चाहिए. गैर जमानती कर्ज सीमित होने के बाद कंपनियां अपने संचालन को चुस्त करने पर बाध्य होंगी. जमाकर्ताओं के पैसे पर धंधा घुमाना बंद करना पड़ेगा. 

राजनैतिक चंदे की गंदगी
हीरा कारोबारियों की राजनैतिक हनक से कौन वाकिफ नहीं है. जो हुक्काम के साथ डिनर करते हैं वही चंदा भी देते हैं, वे ही बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार भी हैं. अगर देश को यह पता चल जाए कि कौन-सी कंपनी किस पार्टी को कितना चंदा देती है, तो बहुत बड़ी पारदर्शिता आ जाएगी, जिसमें सियासी रसूख के जरिए बैकों की लूट भी शामिल है.

ध्‍यान रहे कि मेहुल चोकसी का कारोबारी रिकार्ड कतई इस लायक नहीं था कि उन्‍हें या उनके भांजे पर पंजाब नेशनल बैंक इस कदर दुलार उड़ेलता, हां यह बात जरुर है कि उनका राजनीतिक रसूख उन्‍हें हर स्‍याह सफेद की सुविधा देता था.   

बड़े बैंक चाहिए
सिर्फ एक बड़ी धोखाधड़ी से देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक घुटनों पर आ गया. इस घोटाले की राशि पीएनबी के मुनाफे की दस गुनी है. बैंक को हाल में सरकार से जितनी पूंजी मिली थी, उसका दोगुना यह दोनों लूट ले गए. अर्थव्यवस्था का आकार बढऩे के साथ देश को बड़े बैंक चाहिए ताकि इस तरह के झटके झेल सकें.

भ्रष्टाचार चेहरा देखकर या भाषणों से नहीं रुकता. संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानून, अदालत, ऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. पिछले चार साल में न तो संस्थाएं मजबूत और विकसित हुईं और न नए कानून, नियम बनाए या बदले गए.

भ्रष्टाचार जब तक बंद था तब तक आनंद था, अब खुल रहा है तो खिल रहा है.

बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था में भरोसे का आखिरी केंद्र हैं. इसमें रखा पैसा हमारी बचत का है, सरकार का नहीं. अगर यह लूट खत्म करनी है, तो पारदर्शिता के नए प्रावधान चाहिए. सरकारें तब तक पारदर्शिता नहीं बढ़ाएंगी जब तक हम उनके कामकाज पर गहरा शक नहीं करेंगे. हमें उनसे वही सवाल बार-बार पूछने होंगे जिनके जवाब वे कभी नहीं देना चाहतीं.