जीडीपी के ताजा आंकड़े देखकर, एक आंकड़ेबाज अर्थव्यवस्था में ‘वी’ (V) वाली रिकवरी पर व्यापारी से भिड़ गया जो मंदी से बुरी तरह त्रस्त था. व्यापारी बोला, 2020 जनवरी में मेरी कमाई सौ रु. थी, लॉकडाउन के बाद 20 रु. रह गई. आपके हिसाब से यह अगले साल 40 रु. हो जाएगी यानी दोगुनी बढ़त! लेकिन मेरा 60 रु. का नुक्सान कहां गया? इस तरह तो 100 रु. की कमाई पर पहुंचने में मुझे पांच साल लगेंगे.
मंदी में आर्थिक उत्पादन सिकुड़ जाने से आंकड़ों की समझ गड्डमड्ड हो जाती है. इसलिए प्रतिशत ग्रोथ के बजाए वास्तविक आंकड़े यानी उत्पादन की ठोस कीमत को पढऩा चाहिए. अगले दो साल तक भारत में जीडीपी को लेकर खासा भ्रम रहेगा. इसलिए सच समझना जरूरी है.
= कोविड से पहले 2019-20 में अर्थव्यवस्था मंदी में थी. कुल
उत्पादन का वास्तविक मूल्य (महंगाई हटाकर) 146 लाख करोड़ रु. था, जो 2020 में टूटकर 134 लाख करोड़ रु. रह गया. यह 2021-22 में बमुश्किल 149 लाख करोड़ रु. होगा.
= अगर कोविड न हुआ होता और अर्थव्यवस्था
केवल पांच फीसद की दर से बढ़ रही होती तो वित्त वर्ष 2022 में अर्थव्यवस्था का आकार 160.59 लाख करोड़ रु. होता. अब इसे हासिल
करने के लिए 2022 में करीब 20 फीसद की विकास दर चाहिए.
= आइएमएफ के मुताबिक, भारत में प्रति व्यक्ति आय को 2020 के स्तर पर लौटने में 2024 आ जाएगा.
मंदी से निकलने के जद्दोजहद के बीच
जीडीपी को लेकर जब कई भ्रम टूट ही रहे हैं तो भारत में इसकी पैमाइश के तौर तरीकों
पर भी नए सिरे से विचार करने की जरूरत है.
डेविड रोजलिंग, अपनी दिलचस्प किताब, द ग्रोथ डिल्यूजन में जीडीपी को
कुजनेत्स का राक्षस कहते हैं. जीडीपी के जनक सिमोन कुजनेत्स, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में
पढ़े थे. 1933 में राष्ट्रपति फ्रेड्रिक रूजवेल्ट ने, उन्हें नेशनल एकाउंट का बनाने का काम
सौंपा. कुजनेत्स ने सभी गतिविधियों को एक आंकड़े में समेट दिया. यही मायावी
फॉर्मूला भारत के कुल उत्पादन के मूल्य को आबादी से बांट कर मुकेश अंबानी और
दिहाड़ी मजदूर की कमाई बराबर कर देता है.
भारत में ग्रोथ की पैमाइश उत्पादन के
आधार पर होती है, लोगों
की कमाई में बढ़त से नहीं. 2015
में नेशनल एकाउंट्स में नया फॉर्मूला (ग्रॉस वैल्यू एडेड—कच्चे माल और दूसरे इनपुट निकालने के
बाद उत्पादन का मूल्य) फॉर्मूला जोड़ा गया तो वह भी सप्लाइ या आपूर्ति की तरफ से
था, मांग या खपत की तरफ से नहीं. अरविंद
सुब्रह्मण्यम (2018 तक सरकार के आर्थिक सलाहकार) ने जून 2019 में अपने एक अध्ययन में साबित किया कि
यह नया पैमाना ग्रोथ को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है.
भारत को मंदी के बीच आर्थिक प्रगति को
नापने का तरीका बदलना चाहिए, मसलन,
g राष्ट्रीय जीडीपी को उत्पादन या आपूर्ति की तरफ से मापा जा सकता है.
लेकिन राज्य (एसडीपी) और जिला विकास दर (डीडीपी) की नापजोख मांग और आय के आधार पर
होनी चाहिए. इससे स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में विकास की सही तस्वीर मिलेगी.
g राष्ट्रीय, राज्य
और जिला पर मीडियन इनकम यानी मध्यवर्ती आय (सर्वोच्च और न्यूनतम के बीच) का आकलन
जरूरी है. इससे गरीबी में कमी और मध्य वर्ग के विस्तार को मापा जाना सकता है.
g जेनुइन प्रोग्रेस, हैपीनेस, वेल बीइंग इंडेक्स जैसे पैमानों से
जिला स्तर पर सामाजिक सेवाओं की गुणवत्ता और प्रभाव को मापा जा सकता है.
भारत को लंबे वक्त तक धीमी ग्रोथ के
साथ जीना होगा. फिर भी प्रमुख जिले अगर दहाई के अंकों और राज्य 7-8 फीसद की औसत विकास दर हासिल कर पाते
हैं तो 6-7 फीसद की स्थायी राष्ट्रीय जीडीपी दर
के जरिए बड़ी आबादी की जिंदगी में क्रमश: बेहतर कर सकती है.
दरअसल, कमाई, रोजगार, जीवन स्तर और संपत्ति सही पैमाइश के
बिना जीडीपी से कुछ समझ नहीं आता. आर्थिक असमानता सूझ देने वाले इतालवी सांख्यिकीविद
कोलाराडो गिनी का फॉर्मूला (गिनी कोइफिशिएंट) बताता है कि भारत की दस फीसद आबादी
के पास 77 फीसद संपत्ति, यूं ही नहीं है.
कोविड के बीच बीती मई में चीन ने
जीडीपी को नापने का पैमाना बदल दिया. अब वह तरक्की की पैमाइश उत्पादन में बढ़ोतरी
(मूल्य के आधार पर) नहीं बल्कि रोजगार से करेगा. चीन की सरकार छह फीसद ग्रोथ नहीं
बल्कि जनता के लिए (रोजगार, बुनियादी
जीविका, स्वस्थ प्रतिस्पर्धी बाजार, भोजन और ऊर्जा की आपूर्ति, स्थानीय सरकारों को ज्यादा ताकत) जैसी
गारंटियां सुनिश्चित करने वाली है.
मंदी जाने तक जीडीपी के आंकड़े हमें
हैरान रखेंगे. इनमें एक तरफ कंपनियों के मुनाफे बढ़ते नजर आएंगे और दूसरी तरफ
बेकारी और गरीबी. जब भारत में तेज ग्रोथ वाले वर्षों (2012 से 2018) में भी बेकारी बढ़ी और ग्रामीण व नगरीय
कमाई कम हुई तो अब तो घोर मंदी है. इसलिए जीडीपी के आंकड़ों को अपनी कमाई, खपत और बचत से नापना बेहतर है ताकि
खुशफहमी में जोखिम लेने से बचा जा सके.