करोड़ों बेरोजगार युवाओं और मध्य वर्ग को
अपने प्रचार से बांध पाना मोदी के लिए दूसरे साल की सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है.
छब्बीस मई 2016 शायद नरेंद्र मोदी के
आकलन के लिए ज्यादा उपयुक्त तारीख
होगी. इसलिए नहीं कि उस दिन सरकार दो साल पूरे करेगी बल्कि इसलिए कि उस दिन तक
यह तय हो जाएगा कि मोदी ने भारत के मध्य वर्ग और युवा को ठोस ढंग से क्या सौंपा है जो बीजेपी की
पालकी की अपने कंधे पर यहां तक लाया है? मोदी सरकार की सबसे बड़ी
गफलत यह नहीं है कि वह पहले ही साल में किसानों व गांवों से कट गई. गांव न तो बीजेपी
के राजनैतिक गणित का हिस्सा थे और न ही मोदी का चुनाव अभियान गांवों पर केंद्रित था. मोदी
के लिए ज्यादा बड़ी चिंता
युवा व मध्य वर्ग की अपेक्षाएं हैं जिन्होंने उनकी राजनीति को नया आयाम दिया है और पहले वर्ष में
मोदी इनके लिए कुछ नहीं कर सके.
रोजगार और महंगाई, भारतीय गवर्नेंस की सबसे घिसी हुई बहसे हैं लेकिन इन्हीं दोनों मामलों में मोदी से लीक तोड़ने की सबसे ज्यादा उम्मीदें भी हैं क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश में पांच साल की महंगाई और 2008 के बाद उभरी नई बेकारी भिदी हुई थी. मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर भाषणों को सुनते और विज्ञापनों को पढ़ते हुए, अगर मुतमईन करने वाले सबसे कम तर्क आपको इन्हीं दो मुद्दों पर मिले तो चौंकिएगा नहीं.
याद कीजिए पिछले साल की गर्मियों में मोदी की चुनावी रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़. कैसे भूल सकते हैं आप पड़ोस के परिवारों में मोदी के समर्थन की उत्तेजक बहसें? यह बीजेपी का पारंपरिक वोटर नहीं था. यह समाजवादी व उदारवादी प्रयोगों के तजुर्बों से लैस मध्य वर्ग था जो मोदी के संदेश को गांवों व निचले तबकों तक ले गया. यकीनन, एक साल में मोदी से जादू की उम्मीद किसी को नहीं थी लेकिन लगभग हर दूसरे दिन बोलते सुने गए और बच्चों से लेकर ड्रग ऐडिक्ट तक से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की रोजगारों पर चुप्पी अप्रत्याशित थी. मोदी का मौन उनकी नौकरियों पर सरकार की निष्क्रियता की देन था.
दरअसल, स्थायी, अस्थायी, निजी, सरकारी व स्वरोजगार, सभी आयामों पर 2015 में रोजगारों का हाल 2014 से बुरा हो गया. लेबर ब्यूरो ने इसी अप्रैल में बताया कि प्रमुख आठ उद्योगों में रोजगार सृजन की दर तिमाही के न्यूनतम स्तर पर है. फसल की बर्बादी और रोजगार कार्यक्रम रुकने से गांव और बुरे हाल में हैं. सफलताओं के गुणगान में सरकार स्किल डेवलपमेंट का सुर ऊंचा करेगी लेकिन स्किल वाले महकमे के मुताबिक, सबसे ज्यादा रोजगार (6 करोड़ सालाना) भवन निर्माण, रिटेल और ट्रांसपोर्ट से निकलते हैं. इन क्षेत्रों में मंदी नापने के लिए आपको आर्थिक विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं है. रियल एस्टेट गर्त में है, रिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती और ट्रांसपोर्ट की मांग इन दोनों पर निर्भर है. दरअसल, दूसरे मिशन इंतजार कर सकते थे अलबत्ता रोजगारों के लिए नई सूझ से लैस मिशन की ही अपेक्षा थी. अब जबकि मॉनसून डरा रहा है और ग्लोबल एजेंसियां भारत की ग्रोथ के लक्ष्य घटाने वाली हैं तो मोदी के लिए, अगले एक साल के दौरान करोड़ों बेरोजगार युवाओं को अपने प्रचार से बांध पाना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
हाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतें जब अपने कंटीले स्तर पर लौट आईं और मौसम की मार के बाद जरूरी चीजों के दाम नई ऊंचाई छूने लगे तो मध्य व निचले वर्ग को सिर्फ यही महसूस नहीं हुआ कि किस्मत की मेहरबानी खत्म हो गई बल्कि इससे ज्यादा गहरा एहसास यह था कि इस सरकार के पास भी जिंदगी जीने की लागत को कम करने की कोई सूझ नहीं है. महंगाई से निबटने के मोदी मॉडल की चर्चा याद है? चुनाव के दौरान इस पर काफी संवाद हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मांग की बजाए आपूर्ति के रास्ते महंगाई को थामने के विचार हवा में तैर रहे थे. कीमतों में तेजी रोकने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड को सरकार ने अपनी 'ताकतवर' सूझ कहा था. अलबत्ता जुलाई 2014 में घोषित यह फंड मई, 2015 में बन पाया और वह भी केवल 500 करोड़ रु. के कोष के साथ, जो फिलहाल आलू-प्याज की महंगाई से आगे सोच नहीं पा रहा है. सत्ता में आने के बाद नई सरकार ने, महंगाई रोकने के लिए राज्यों को मंडी कानून खत्म करने का फरमान जारी किया था जिसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया. व्यापारियों की नाराजगी कौन मोल ले?
महंगाई सर पर टंगी हो और मांग कम हो तो कीमतों की आग में टैक्सों का पेट्रोल नहीं छिड़का जाना चाहिए. लेकिन सरकार का दूसरा बजट एक्साइज और सर्विस टैक्स के नए चाबुकों से लैस था. कच्चा तेल 100 डॉलर पार नहीं गया है लेकिन भारत में पेट्रो उत्पाद महंगाई से फिर जलने लगे हैं तो इसके लिए बजट जिम्मेदार है, जिसने पेट्रो उत्पादों पर नए टैक्स थोप दिए. सरकार जब तक एक साल के जश्न से निकल कर अगले वर्ष की सोचना शुरू करेगी तब तक सर्विस टैक्स की दर में दो फीसदी की बढ़त महंगाई को नए तेवर दे चुकी होगी. रबी की फसल का नुक्सान खाद्य उत्पादों की कीमतों में फटने लगा है. अगर मॉनूसन ने धोखा दिया तो मोदी अगले साल, ठीक उन्हीं सवालों का सामना कर रहे होंगे जो वह प्रचार के दौरान कांग्रेस से पूछ रहे थे.
नारे हालांकि घिस कर असर छोड़ देते हैं, फिर भी अच्छे दिन लाने का वादा भारत के ताजा इतिहास में सबसे बड़ा राजनैतिक बयान था, मध्य वर्ग पर जिसका अभूतपूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ. मोदी इसी मध्य वर्ग के नेता हैं, जिसकी कोई भी चर्चा रोजगार व महंगाई की चिंता के बिना पूरी नहीं होती, क्योंकि देश के महज दस फीसद लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और आम लोग अपनी कमाई का 45 से 60 फीसद हिस्सा सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं. सरकार जब अपना पहला साल पूरा कर रही है तो खपत दस साल के न्यूनतम स्तर पर है, रोजगारों में बढ़ोत्तरी शून्य है और महंगाई वापस लौट रही है. मोदी सरकार का असली मूल्यांकन अब शुरू हो रहा है, पहला साल तो केवल तैयारियों के लिए था.
रोजगार और महंगाई, भारतीय गवर्नेंस की सबसे घिसी हुई बहसे हैं लेकिन इन्हीं दोनों मामलों में मोदी से लीक तोड़ने की सबसे ज्यादा उम्मीदें भी हैं क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश में पांच साल की महंगाई और 2008 के बाद उभरी नई बेकारी भिदी हुई थी. मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर भाषणों को सुनते और विज्ञापनों को पढ़ते हुए, अगर मुतमईन करने वाले सबसे कम तर्क आपको इन्हीं दो मुद्दों पर मिले तो चौंकिएगा नहीं.
याद कीजिए पिछले साल की गर्मियों में मोदी की चुनावी रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़. कैसे भूल सकते हैं आप पड़ोस के परिवारों में मोदी के समर्थन की उत्तेजक बहसें? यह बीजेपी का पारंपरिक वोटर नहीं था. यह समाजवादी व उदारवादी प्रयोगों के तजुर्बों से लैस मध्य वर्ग था जो मोदी के संदेश को गांवों व निचले तबकों तक ले गया. यकीनन, एक साल में मोदी से जादू की उम्मीद किसी को नहीं थी लेकिन लगभग हर दूसरे दिन बोलते सुने गए और बच्चों से लेकर ड्रग ऐडिक्ट तक से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की रोजगारों पर चुप्पी अप्रत्याशित थी. मोदी का मौन उनकी नौकरियों पर सरकार की निष्क्रियता की देन था.
दरअसल, स्थायी, अस्थायी, निजी, सरकारी व स्वरोजगार, सभी आयामों पर 2015 में रोजगारों का हाल 2014 से बुरा हो गया. लेबर ब्यूरो ने इसी अप्रैल में बताया कि प्रमुख आठ उद्योगों में रोजगार सृजन की दर तिमाही के न्यूनतम स्तर पर है. फसल की बर्बादी और रोजगार कार्यक्रम रुकने से गांव और बुरे हाल में हैं. सफलताओं के गुणगान में सरकार स्किल डेवलपमेंट का सुर ऊंचा करेगी लेकिन स्किल वाले महकमे के मुताबिक, सबसे ज्यादा रोजगार (6 करोड़ सालाना) भवन निर्माण, रिटेल और ट्रांसपोर्ट से निकलते हैं. इन क्षेत्रों में मंदी नापने के लिए आपको आर्थिक विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं है. रियल एस्टेट गर्त में है, रिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती और ट्रांसपोर्ट की मांग इन दोनों पर निर्भर है. दरअसल, दूसरे मिशन इंतजार कर सकते थे अलबत्ता रोजगारों के लिए नई सूझ से लैस मिशन की ही अपेक्षा थी. अब जबकि मॉनसून डरा रहा है और ग्लोबल एजेंसियां भारत की ग्रोथ के लक्ष्य घटाने वाली हैं तो मोदी के लिए, अगले एक साल के दौरान करोड़ों बेरोजगार युवाओं को अपने प्रचार से बांध पाना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
हाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतें जब अपने कंटीले स्तर पर लौट आईं और मौसम की मार के बाद जरूरी चीजों के दाम नई ऊंचाई छूने लगे तो मध्य व निचले वर्ग को सिर्फ यही महसूस नहीं हुआ कि किस्मत की मेहरबानी खत्म हो गई बल्कि इससे ज्यादा गहरा एहसास यह था कि इस सरकार के पास भी जिंदगी जीने की लागत को कम करने की कोई सूझ नहीं है. महंगाई से निबटने के मोदी मॉडल की चर्चा याद है? चुनाव के दौरान इस पर काफी संवाद हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मांग की बजाए आपूर्ति के रास्ते महंगाई को थामने के विचार हवा में तैर रहे थे. कीमतों में तेजी रोकने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड को सरकार ने अपनी 'ताकतवर' सूझ कहा था. अलबत्ता जुलाई 2014 में घोषित यह फंड मई, 2015 में बन पाया और वह भी केवल 500 करोड़ रु. के कोष के साथ, जो फिलहाल आलू-प्याज की महंगाई से आगे सोच नहीं पा रहा है. सत्ता में आने के बाद नई सरकार ने, महंगाई रोकने के लिए राज्यों को मंडी कानून खत्म करने का फरमान जारी किया था जिसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया. व्यापारियों की नाराजगी कौन मोल ले?
महंगाई सर पर टंगी हो और मांग कम हो तो कीमतों की आग में टैक्सों का पेट्रोल नहीं छिड़का जाना चाहिए. लेकिन सरकार का दूसरा बजट एक्साइज और सर्विस टैक्स के नए चाबुकों से लैस था. कच्चा तेल 100 डॉलर पार नहीं गया है लेकिन भारत में पेट्रो उत्पाद महंगाई से फिर जलने लगे हैं तो इसके लिए बजट जिम्मेदार है, जिसने पेट्रो उत्पादों पर नए टैक्स थोप दिए. सरकार जब तक एक साल के जश्न से निकल कर अगले वर्ष की सोचना शुरू करेगी तब तक सर्विस टैक्स की दर में दो फीसदी की बढ़त महंगाई को नए तेवर दे चुकी होगी. रबी की फसल का नुक्सान खाद्य उत्पादों की कीमतों में फटने लगा है. अगर मॉनूसन ने धोखा दिया तो मोदी अगले साल, ठीक उन्हीं सवालों का सामना कर रहे होंगे जो वह प्रचार के दौरान कांग्रेस से पूछ रहे थे.
नारे हालांकि घिस कर असर छोड़ देते हैं, फिर भी अच्छे दिन लाने का वादा भारत के ताजा इतिहास में सबसे बड़ा राजनैतिक बयान था, मध्य वर्ग पर जिसका अभूतपूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ. मोदी इसी मध्य वर्ग के नेता हैं, जिसकी कोई भी चर्चा रोजगार व महंगाई की चिंता के बिना पूरी नहीं होती, क्योंकि देश के महज दस फीसद लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और आम लोग अपनी कमाई का 45 से 60 फीसद हिस्सा सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं. सरकार जब अपना पहला साल पूरा कर रही है तो खपत दस साल के न्यूनतम स्तर पर है, रोजगारों में बढ़ोत्तरी शून्य है और महंगाई वापस लौट रही है. मोदी सरकार का असली मूल्यांकन अब शुरू हो रहा है, पहला साल तो केवल तैयारियों के लिए था.