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Monday, October 17, 2016

सफलता की विफलता


टैक्स चोरों के नजरिए से यह अब तक की सबसे अच्छी स्कीम थी लेकिन फिर भी 
अपेक्षित कामयाबी क्‍यों नहीं मिली ..... 

प्रचारी सफलताओं में लिपटी असफलताएं अक्सर उन नाकामियों से ज्यादा जोखिम भरी होती हैं जो खुली आंखों से दिख जाती हैं. जैसे काला धन घोषणा स्कीम (आईडीएस 2016) को ही लीजिए. इसकी ''सफलता" की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि कर चोरों और काले धन जमाखोरों को माफी स्कीमों की लंबी परंपरा में अब यह स्कीम आखिरी होनी चाहिए ताकि आगे ऐसी विफलताएं हाथ न लगें. 

2015 में विदेशी काले धन की स्वैच्छिक घोषणा स्कीम की भव्य नाकामी के बावजूद इस साल मार्च में जब सरकार ने देशी काले धन के लिए ऐसी ही स्कीम लाने का फैसला किया था तो यह माना गया था कि आइडीएस 2016 का दांव पूरी तैयारी के साथ लगाया जाएगाक्योंकि इस तरह की स्कीमों के धराशायी होने के पर्याप्त सबक सरकार के पास मौजूद हैं. जब खुद प्रधानमंत्री ने ''मन की बात" करते हुए इस स्कीम में आने का आह्वान किया तो कोई संदेह ही नहीं रहा कि सरकार काले धन को बाहर लाने में बड़ी कामयाबी के लिए पेशबंदी कर चुकी है.  
भरपूर रियायतों और हर तरह के जतन के बावजूद आइडीएस 2016 केवल 65,250 करोड़ रु. की घोषणाएं जुटा सकीजो 1997 में आई वीडीआइएस (कुल घोषणाएं 33,697 करोड़ रु.) का दोगुना भी नहीं है. पिछले दो दशकों में भारत की आधिकारिक अर्थव्यवस्था का आकार पांच से सात (अलग-अलग पैमानों पर) गुना बढ़ चुका है. काली अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इससे कई गुना ज्यादा होगी. राहत सिर्फ इतनी है कि 45 फीसदी टैक्स व पेनाल्टी के चलतेआइडीएस ने लगभग 30,000 करोड़ रु. का टैक्स जुटाया जो वीडीआइएस का तीन गुना है. 

ईमानदार करदाता कुढ़ते रहें लेकिन टैक्स चोरों के नजरिए से यह अब तक की सबसे अच्छी स्कीम थी. सरकार ने पिछली असफलताओं से सबक सीखा था और आइडीएस को रियायतों के आकर्षण से भरने में कोई कमी नहीं छोड़ी. चार माह के दौरान कई स्पष्टीकरणों के जरिए शक-शुबहे दूर किए गए और नई रियायतें जोड़ी गईं. 
दरअसलमौजूदा कानूनों के तहतकर चोरों के लिए सरकार इससे अधिक मुफीद स्कीम नहीं ला सकती थी. आइडीएस में अघोषित संपत्ति की घोषणा पर इनकम टैक्स व वेल्थ टैक्स के तहत जांचछापे व सर्वे से छूट दी गई. बेनामी संपत्तियों की घोषणा का रास्ता भी खुला था. फेमा के तहत जांच या कार्रवाई भी नहीं होनी थी. फेमा आपराधिक रास्तों से जुटाए गए धन को रोकता है लेकिन आइडीएस 2016 में अपराध की कमाई को साफ करने की सुविधा भी खोल दी गई. विदेशी काले धन के लिए 2015 में आई स्कीम में फेमा से रियायत नहीं दी गई थी. 
आइडीएस में अगले एक साल तक तीन किस्तों में कर चुकाने की छूट थी. संपत्ति की घोषणा पर 45 फीसदी टैक्स (पेनाल्टी सहित) की दर भी आकर्षक थी क्योंकि साफ-सुथरे होने की सुविधा लगभग बीस साल बाद मिल रही थी. सितंबर के आखिरी सप्ताह से पहले तक आइडीएस में आने वालों को पैन नंबर के जरिए अपनी पहचान बताना जरूरी था लेकिन अंतिम दिनों में यह विवादित सुविधा देते हुएपैन बताए बगैर ऑनलाइन घोषणा की छूट भी मिल गई. इन रियायतों ने आईडीएस को कर चोरों के लिए सुनहरा मौका बना दिया. 
आयकर विभाग रियायतों तक ही नहीं रुका. स्कीम के आखिरी हफ्तों के दौरान देश भर में आयकर छापेमारी और सर्वे भी किए गए. आम तौर पर आयकर विभाग ऐसी स्कीमों के दौरान छापे नहीं मारता ताकि मौके को स्वैच्छिक रखा जा सके. छापे और सर्वे का मकसद होता है उलंघनकर्ता को पकडऩा और सजा देना न कि उसे कर माफी स्कीम में भेजकर बच निकलने का मौका देना. खबरों के मुताबिकस्कीम में अधिकांश घोषणाएं छापों के दबाव से आखिरी वक्त में शामिल हुईं.  
इन अभूतपूर्व रियायतों और विजिलेंस कार्रवाई के बावजूद आइडीएस निशाने पर नहीं बैठी. काला धन घोषणा स्कीमों की कामयाबी दो पैमानों पर आंकी जाती है. पहलास्कीम में मिल रही रियायतों ने कितनी घोषणाओं को उत्साहित किया. कर चोरों को रियायतें और बच निकलने के मौके ईमानदार करदाताओं को हतोत्साहित करते हैंइसलिए यदि स्कीम में भारी अघोषित संपत्ति सामने न आए तो सरकार की साख पर गहरी चोट लगती है.
दूसरा पैमाना यह है कि किसी देश में काले धन की अर्थव्यवस्था के मुकाबले स्वैच्छिक घोषणाएं कितनी हैं. हकीकत यह है कि भारत में काला धन गोते लगा रहा है. एम्बिट रिसर्च के आकलन के मुताबिकभारत की समानांतर अर्थव्यवस्था करीब 30 लाख करोड़ रु. (460 अरब अमेरिकी डॉलर) की हो सकती है जो कि देश के जीडीपी का 20 फीसदी है और थाईलैंड व अर्जेंटीना के जीडीपी से ज्यादा है. 



इंडोनेशिया और अर्जेंटीना ने हाल में काले धन की स्वैच्छिक घोषणा स्कीमें जारी की हैं. इंडोनेशिया की नौ माह की स्कीम के पहले तीन माह में 277 अरब अमेरिकी डॉलर की घोषणाएं हुईं जबकि अर्जेंटीना ने 80 अरब डॉलर जुटाए. भारत से छोटी इन अर्थव्यवस्थाओं में आई स्वैच्छिक घोषणाओं की तुलना में आइडीएस की ''सफलता" कहीं नहीं ठहरती.  
वित्त मंत्रालय की भीतरी चर्चाओं के मुताबिकइस स्कीम में दो अघोषित लक्ष्य थे. पहला था कम से कम एक लाख करोड़ रु. की घोषणाएं और दूसराकाले धन के बड़े ठिकानों मसलन गुजरातमहाराष्ट्रकर्नाटकतमिलनाडु की बड़ी भागीदारी. दोनों ही मोर्चों पर सरकार को इतना भी नहीं मिला कि इसे आंशिक सफल कहा जा सके. 
वांचू कमेटी (1971) ने ऐसी ही स्कीमों के अध्ययन के आधार पर कहा था कि कर माफी या काला धन घोषणा के प्रयोग कभी सफल नहीं हो सकतेअलबत्ता इस तरह की कोशिशों से हर बार ईमानदार करदाता का विश्वास और कर प्रशासन का उत्साह जरूर टूट जाता है. आइडीएस को देखने के बाद हमें यह शक करने का हक बनता है कि ये स्कीमें हर दशक में कुछ खास लोगों को बच निकलने का मौका देने के लिए लाई जाती हैं. क्या मोदी सरकार हमें यह कानूनी गारंटी दे सकती है कि आईडीएस सच में आखिरी मौका साबित होगी और ईमानदार करदाताओं को चिढ़ाकर कर चोरों को बच निकलने के मौके आगे नहीं मिलेंगे? 

Tuesday, July 5, 2016

बार बार मिलने वाला आखिरी मौका

काला धन रखने वालेे सरकार पर कभी भरोसा नहीं करते लेकिन फिर भी उन्‍हें हर दशक में एक बार बच निकलने का मौका जरुर मिल जाता है

दि आप ईमानदारी से अपना टैक्स चुकाते हैं और सरकार से किसी मेहरबानी की उम्मीद नहीं रखते तो आपको इस बात पर चिढ़ जरूर होनी चाहिए कि यह कैसा आखिरी मौका है जो बार-बार आता है और जो सिर्फ टैक्स चोरों और काली कमाई वालों को ही मिलता है. बीते सप्ताह प्रधानमंत्री ने ''न की बात" में काले धन की स्वैच्छिक घोषणा की नई स्कीम को जब आखिरी मौका कहा तो वे दरअसल इतिहास को नकार रहे थे. हकीकत यह है कि नई स्कीम काले धन (घरेलू) के पाप धोकर चिंतामुक्त होने का आखिरी नहीं बल्कि एक और नया मौका है. आम करदाताओं के लिए सहूलियतें भले न बढ़ी हों लेकिन आजादी के बाद लगभग हर दशक में एक ऐसी स्कीम जरूर आई है जो कर चोरों को बच निकलने का एकमुश्त मौका देती है.

कर चोरों को माफी देने की स्कीमों के नैतिक सवाल हमेशा से बड़े रहे हैं क्योंकि यह ईमानदार करदाताओं के साथ खुला अन्याय है. इसलिए ज्यादातर देश विशेष हालात में ही ऐसी पहल करते हैं. भारत में माफी स्कीमों के दोहराव ने नैतिकता के सवालों को तो पहले ही नेस्तनाबूद कर दिया थाअब तो इनकी भव्य विफलता कर प्रशासन की साख के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन इसके बाद भी सरकारें यह जुआ खेलने से नहीं हिचकतीं.

एनडीए सरकार पिछले 65 वर्षों की दूसरी सरकार (1965 में तीन स्कीमें) है जो दो साल के भीतर कर चोरों को सजा से माफी (टैक्स चुकाने के बाद) की दो स्कीमें ला चुकी है. अचरज तब और बढ़ जाता है जब हमें यह पता हो कि 2015 में विदेश में जमा काले धन की महत्वाकांक्षी स्वैच्छिक घोषणा की स्कीम सुपर फ्लॉप रही. इसमें केवल 3,770 करोड़ रु. का काला धन घोषित हुआ और सरकार के खजाने में महज 2,262 करोड़ रु. का टैक्स आया. इसके बाद एक और स्कीम समझनीयत और नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े करती है.

कर चोरों को बार-बार मिलने वाले ''आखिरी" मौकों का इतिहास बहुत लंबा है लेकिन इससे गुजरना जरूरी है ताकि हमें काली कमाई करने वालों के प्रति अक्सर उमडऩे वाली सरकारी सहानुभूति का अंदाज हो सके और यह पता चल सके कि इन स्कीमों के डीएनए में ही खोट है.

आजादी मिले चार साल ही बीते थे जब 1951 में पहली वॉलेंटरी डिस्क्लोजर स्कीम आई. त्यागी स्कीम (तत्कालीन राजस्व और खर्च मंत्री महावीर त्यागी) के नाम से जानी गई यह खिड़की केवल 70 करोड़ रु. का काला धन और 10-11 करोड़ रु. का टैक्स जुटा सकी क्योंकि लोगों को आगे कार्रवाई न होने का भरोसा नहीं था.

1965 भारत-पाक युद्ध का वर्ष था. उस साल तीन स्कीमें आई थीं. इनमें एक सिक्स फोर्टी स्कीम थी और दूसरी ब्लैक स्कीम. दोनों की कर दर ऊंची थी इसलिए केवल 49 करोड़ रु. का टैक्स मिला. उसी साल सरकार ने काला धन जुटाने के लिए नेशनल डिफेंस गोल्ड बॉन्ड जारी किए जिसमें निवेश करने वालों का ब्यौरा गोपनीय रखा गया लेकिन बॉन्ड बहुत लोकप्रिय नहीं हुए.

इमरजेंसी की छाया में 1975 में आई स्कीम में कंपनी और व्यक्तिगत आय को घोषित करने और 25 से 60 फीसदी टैक्स देने पर सजा से माफी का प्रावधान था. स्कीम से केवल 241 करोड़ रु. का राजस्व मिला. 1978 में 1,000 रु. के नोट बंद करके काले धन को सीमित करने की कोशिश हुई. काले धन के निवेश के लिए 1981 में स्पेशल बॉन्ड जारी हुए जिसमें रिटर्न कर मुक्त था जो बहुत कामयाब नहीं हुए. काली संपत्ति की घोषणा पर 1985 में आयकर विभाग ने छूट के प्रावधान किए और 1986 में इंदिरा विकास पत्र लाए गए जो काली कमाई के निवेश का मौका देते थे. 1991 की नेशनल हाउसिंग डिपॉजिट स्कीम भी काली कमाई निकालने में नाकाम रही.

1991 की फॉरेन एक्सचेंज रेमिटेंस स्कीम और नेशनल डेवलपमेंट बॉन्ड में काले धन की घोषणा पर माफी का प्रावधान था. ये बॉन्ड अपेक्षाकृत सफल रहे लेकिन 1993 की गोल्ड  बॉन्ड स्कीम को समर्थन नहीं मिला. 1997 की वीडीआइएस अकेली स्कीम थी जो 33,697 करोड़ रु. के काले धन और 9,729 करोड़ रु. के टैक्स के साथ सबसे सफल प्रयोग थी.

इतिहास प्रमाण है कि काला धन माफी स्कीमों का डिजाइन लगभग एक-सा हैकेवल टैक्स पेनाल्टी दरों में फर्क आता रहा है. यह स्कीमें सूचनाओं की गोपनीयता के प्रति कभी भी भरोसा नहीं जगा सकींबल्कि बाद के कुछ मामलों में टैक्स की पड़ताल ने विश्वास को कमजोर ही किया. कर दरें ऊंची होने के कारण भी काला धन रखने वाले स्वैच्छिक घोषणा को लेकर उत्साहित नहीं हुए. 

इन स्कीमों के बार-बार आने से काला धन तो बाहर नहीं आया और न ही काली कमाई के कारखाने बंद हुएअलबत्ता इन स्कीमों के कारण कर प्रशासन का उत्साह और रसूख टूट गया. टैक्स सिस्टम से लेकर बाजार तक सबको यह मालूम है कि हर दशक में इस तरह का आखिरी मौका फिर आएगा. इसलिए एक बार सफाई के बादकाली कमाई जुटाने वाले अगली स्कीम का इंतजार करने लगते हैं.

1971 में वांचू कमेटी ने पिछली तीन स्कीमों के अध्ययन के आधार पर कहा था कि हमें भरोसा है कि कर माफी या काला धन घोषणा की कोई स्कीम न केवल असफल होगीबल्कि ईमानदार करदाता का विश्वास और कर प्रशासन का उत्साह टूटेगा. इसलिए भविष्य में स्कीमें नहीं आनी चाहिए. 1985 में शंकर आचार्य कमेटी ने कहा कि काला धन को सीमित करने की कोशिशों को इन स्कीमों से कोई फायदा नहीं हुआ. 

असफलता को दोहराने की एक सीमा होती है लेकिन भारत मे काले धन पर माफी की स्कीमें तो विफलताओं का धारावाहिक बन चुकी हैं. पिछले छह-सात दशकों में काले धन को बाहर लाने के लगभग सभी तरीके अपनाने और असफल होने के बाद भी जब नए मौके तैयार किए गए तो क्या यह शक नहीं होना चाहिए कि ये स्कीमें सिर्फ इसलिए लाई जाती हैं कि हर दशक में एक बार काला धन रखने वालों को बच निकलने का मौका देना जरूरी हैक्योंकि इसके अलावा तो इन स्कीमों से और कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.