यह
इतिहास बनते देखने का वक्त है, जो आर या पार के मौके पर
बनता है। दोहरी मंदी और वित्तीय संकटों की अभूतपूर्व त्रासदी में खौलते अटलांटिक
के दोनों किनारों में ऐतिहासिक फैसले शुरु हो गए हैं। यूरोप और अमेरिका में ग्रोथ
को वापस लाने की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है। जिसकी कमान सरकारों के नहीं
बल्कि प्रमुख देशों के केंद्रीय बैंकों के हाथ है। अमेरिकी फेड रिजर्व और यूरोपीय
केंद्रीय बैंक अब मंदी और संकट से मुकाबले के आखिरी दांव लगा रहे हैं। केंद्रीय
बैंकों के नोट छापाखाने ओवरटाइम में काम करेंगे। मंदी को बहाने के लिए बाजार में
अकूत पूंजी पूंजी छोड़ी जाएगी। यह एक नया और अनदेखा रास्ता है जिसमें कौन से मोड
और मंजिले आएंगी, कोई नहीं जानता। क्या पता मंदी भाग जाए
या फिर यह भी सकता है कि सस्ते डॉलर यूरो दुनिया
भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बाजार में पहुंच कर नई धमाचौकड़ी मचाने लगें।
या ग्लोबल महंगाई नई ऊंचाई छूने लगे। .... खतरे भरपूर हैं क्यों कि इतने बड़े जोखिम भी रोज रोज नहीं
लिये जाते।
पूंजी का पाइप
बीते
15 सितंबर
को दुनिया के बाजारों में लीमैन ब्रदर्स की तबाही की चौथी बरसी अलग ढंग से मनाई
गई। फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके ने अमेरिका के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा
जोखिम लेते हुए बाजार में हर माह 40 अरब डॉलर झोंकने का फैसला किया, यानी क्वांटीटिव
ईजिंग का तीसरा दौर। तो दूसरी तरफ यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने कर्ज संकट में ढहते
यूरोपीय देशों के बांड खरीदने का ऐलान कर दिया। बैंक ऑफ जापान ने भी
बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया। इन खबरों से शेयर बाजार जी उठे और यूरोप और
अमेरिका के बांड निवेशकों के चेहरे खिल गए।
अमेरिका
को मंदी से उबारने के लिए शुरु हुआ फेड रिजर्व का आपरेशन ट्विस्ट कई मामलों में
अनोखा और क्रांतिकारी है। पहला मौका है जब