जनादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होती. कभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, नई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.
अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.
भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही 2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों से सियासी नुक्सान उठाने की बारी है. करीब दस साल (मनमोहन-मोदी) की लस्तपस्त विकास दर, ढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदी) के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.
■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी है. सरकार कोई भी हो, जब तक बड़ा सुधार नहीं होता, कम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकम) देनी होगी. अन्यथा गांवों का गुस्सा, संकट में बदल जाएगा.
■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया है. पिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ा. कंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैं. डूबती कंपनियों (जेट, आइडीबीआइ) को उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.
■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.
■ सुस्त विकास, कमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्य) का खजाना बदहाल है. केंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिरा. बैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदे, जो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.
■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगीं. करीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल है. इधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.
इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सके, बैंकों को नई पूंजी दे सके, थोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती है. संसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.
होने वाला दरअसल यह है कि
■ सब्सिडी (उर्वरक, एलपीजी, केरोसिन, अन्य स्कीमें) में कटौती होगी ताकि खर्च बच सके, क्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी है. जब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.
■ सरकारों (खासतौर पर राज्यों) को बिजली, पानी, ट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके.
■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगी, जिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.
■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगी. जीएसटी की दरें बढ़ सकती है, सेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स बढे़गा.
भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह है, ताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसून, तेल की कीमतें यानी महंगाई) खपत पर ही भारी पड़ेंगे. इसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.
1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी है. एक- अर्थव्यवस्था को उबारना; और दो- बड़े और लंबित सुधार लागू करना. तत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगी. जिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.
लोगों का चुनाव पूरा हो रहा है. अब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती है—कठोर सुधार या खोखली सियासत. अब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.