अज्ञातवास से लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष
राहुल गांधी के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र हमेशा से रॉकेट विज्ञान
की तरह अबूझ रहा है.
यह अध्यादेश पूरी तरह बकवास है. इसे
फाड़कर फेंक देना चाहिए!!" सितंबर 2013 को दिल्ली के प्रेस क्लब की प्रेस
वार्ता में अचानक पहुंचे राहुल गांधी की यह मुद्रा नई ही नहीं, विस्मयकारी भी थी. संसद में चुप्पी, पार्टी फोरम पर सन्नाटा, और सक्रियता तथा निष्क्रियता के बीच
हमेशा असमंजस बनाकर रखने वाले राहुल, अपनी सरकार के एक अध्यादेश को इस अंदाज में कचरे का डिब्बा दिखाएंगे, इसका अनुमान किसी को नहीं था. कांग्रेस
की सूरत देखने लायक थी. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट
के आदेश पर अमल रोकने के मकसद से बना था. 10 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व
कानून की धारा-8 को अवैध करार देते हुए फैसला सुनाया
था कि अगर किसी सांसद या विधायक को अदालत अभियुक्त घोषित कर देती है तो उसकी
सदस्यता तत्काल खत्म हो जाएगी. पूरी सियासत बचाव में आगे आ गई. अदालती आदेश पर अमल
रोकने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक अध्यादेश गढ़ा और सर्वदलीय बैठक के हवाले
से दावा किया कि सभी दल इस पर सहमत हैं. राजनैतिक सहमतियां प्रत्यक्ष रूप से दिख
भी रहीं थीं. अलबत्ता राहुल ने सरकार और पार्टी के नजरिये से अलग जाते हुए सिर्फ
यही नहीं कहा कि कांग्रेस और बीजेपी इस पर राजनीति कर रही हैं बल्कि उनकी टिप्पणी
थी कि "हमें यह बेवकूफी रोकनी होगी. भ्रष्टाचार से लड़ना है तो छोटे-छोटे
समझौते नहीं चलेंगे." बताने की जरूरत नहीं कि
राहुल गांधी के विरोध के बाद अध्यादेश कचरे के डिब्बे में चला गया.
इस प्रसंग का जिक्र यहां राहुल गांधी
के राजनैतिक साहस या सूझ की याद दिलाने के लिए नहीं हो रहा है. मामला दरअसल इसका
उलटा है. राहुल गांधी भारतीय राजनीति में अपने लिए एक नई श्रेणी गढ़ रहे हैं. भारत
के लोगों ने साहसी और लंबी लड़ाई लड़ने वाले नेता देखे हैं. बिखरकर फिर खड़ी होने
वाली कांग्रेस देखी है. दो सीटों से पूर्ण बहुमत तक पहुंचने वाली संघर्षशील बीजेपी
देखी है. बार-बार बनने वाला तीसरा मोर्चा देखा है. सब कुछ गंवाने के बाद दिल्ली की
सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी देखी है लेकिन राहुल गांधी अनोखे नेता हैं
जिन्हें मौके चूकने में महारत हासिल है. राहुल रहस्यमय अज्ञातवास से लौटकर अगले
सप्ताह जब कांग्रेस की सियासत में सक्रिय होंगे तो जोखिम उनके लिए नहीं बल्कि
पार्टी के लिए है, क्योंकि
उसके इस परिवारी नेता के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र, हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ
रहा है.
कांग्रेस अगर यह समझने की कोशिश करे कि
2013 में अध्यादेश को कचरे के डिब्बे के
सुपुर्द कराने वाली घटना, राहुल
की एक छोटी धारदार प्रस्तुति बनकर क्यों रह गई तो उसे शायद अपने इस राजकुमार से
बचने में मदद मिलेगी. अपराधी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश उस वक्त की घटना है जब
देश में भ्रष्टाचार को लेकर जन और न्यायिक सक्रियता अपने चरम पर थी. इसी दौरान
अदालत ने राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर सख्ती की, जिसे रोकने के लिए सभी दल एकजुट हो गए.
पारंपरिक सियासत की जमात से राहुल गांधी लीक तोड़कर आगे आए. सत्तारूढ़ दल के सबसे
ताकतवर नेता का सरकार के विरोध में आना अप्रत्याशित था, लेकिन इससे भी ज्यादा विस्मयकारी यह था
कि राहुल फिर नेपथ्य में गुम हो गए, जबकि
यहां से उनकी सियासत का नया रास्ता खुल सकता था.
इस बात से इत्तेफाक करना पड़ेगा कि
राहुल गांधी राजनैतिक समझ रखते हैं लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि सियासत और समय
के नाजुक रिश्ते की उन्हें कतई समझ नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जनांदोलन अंततः
कांग्रेस की शर्मनाक हार और बीजेपी की अभूतपूर्व जीत की वजह बना, वह दरअसल राहुल गांधी के लिए अवसर बन
सकता था. लोकपाल बनाने की जवाबदेही केंद्र सरकार की थी. सभी राजनैतिक दल लगभग
हाशिये पर थे और एक जनांदोलन सरकार से सीधे बात कर रहा था. इस मौके पर अगर राहुल
गांधी ने ठीक वैसे ही तुर्शी दिखाई होती जैसी 2013 के सितंबर में अपराधी नेताओं के बचाव
में आ रहे अध्यादेश के खिलाफ थी तो देश की राजनैतिक तस्वीर यकीनन काफी अलग होती.
यह अवसर चूकने में राहुल की विशेषज्ञता का ही उदाहरण है कि जिस नए भूमि अधिग्रहण
कानून पर उन्होंने अपनी सरकार पर दबाव बनाया था, उसे लेकर जब मोदी सरकार को घेरने का
मौका आया तो कांग्रेस राजकुमार किसी अनुष्ठान में लीन हो गए.
ब्रिटेन के महान प्रधानमंत्रियों में
एक (1868 से 1894 तक चार बार प्रधानमंत्री) विलियम
एवार्ट ग्लैडस्टोन को राजनीति में फिलॉसफी ऑफ राइट टाइमिंग का प्रणेता माना जाता
है. प्रसिद्ध लिबरल नेता और अद्भुत वक्ता ग्लैडस्टोन, कंजर्वेटिव नेता बेंजामिन डिजरेली के
प्रतिस्पर्धी थे. दुनिया भर के नेताओं ने उनसे यही सीखा है कि सही मौके पर सटीक
सियासत सफल बनाती है. अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी, डेविड कैमरुन, बराक ओबामा से लेकर नरेंद्र मोदी तक
सभी राजनैतिक सफलताओं में ग्लैडस्टोन का दर्शन देखा जा सकता है. अलबत्ता राहुल
गांधी के राजनैतिक ककहरे की किताब से वह पाठ ही हटा दिया गया था, जो सही मौके पर सटीक सियासत सिखाता है.
पहली बार कांग्रेस महासचिव बनने के बाद
राहुल ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कहा था कि सफलता मौके पर निर्भर करती है, सफल वही हुए हैं जिन्हें मौके मिले
हैं. अलबत्ता राहुल की राजनीति मौका मिलने के बाद
भी असफल होने का तरीका सिखाती है. कांग्रेस को राहुल से डरना चाहिए क्योंकि उनका
यह राजकुमार मौके चूकने का उस्ताद है और ''राहुल काल'' के दौरान कांग्रेस ने भी सुधरने, बदलने और आगे बढ़ने के तमाम मौके गंवाए
हैं. फिर भी अज्ञातवास से लौटे राहुल को कांग्रेस सिर आंखों पर ही बिठाएगी क्योंकि
यह पार्टी परिवारवाद के अभिशाप को अपना परम सौभाग्य मानती है. अलबत्ता पार्टी में किसी को राहुल गांधी से यह जरूर पूछना चाहिए कि म्यांमार
में विपश्यना के दौरान क्या किसी ने उन्हें गौतम बुद्ध का यह सूत्र बताया था कि ''आपका यह सोचना ही सबसे बड़ी समस्या है
कि आपके पास काफी समय है.'' कांग्रेस और राहुल के पास अब सचमुच बिल्कुल समय नहीं है.