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Saturday, March 2, 2019

‌चिंगारी का खेल


 
क्या हम अब भी खेल रहे हैं?
एक अनोखा खेल,
जिसमें जिताऊ दांव कभी नहीं चला जाना है ...(प्रसिद्ध फिल्म वार गेम्स से)

आप सियासत पर हैरत से अधिक और कर भी क्या सकते हैं. इस सप्ताह जबअमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और कोरियाई तानाशाह किम जोंग उस करीब छह दशक पुराने कोरियाई युद्ध को खत्म करने और परमाणु हथियारों की समग्र समाप्ति पर बात करने के लिए हनोई (वियतनाम) में जुटे थे, तब एशिया की दो परमाणु शक्तियांभारत और पाकिस्तान युद्ध के करीब पहुंच गए. 

यही वह ट्रंप हैं जो मेक्सिको सीमा पर दीवार खड़ी करने के लिए अपने देश में आर्थिक आपातकाल की नौबत ले आए और यह वही किम हैं जो दुनिया को कई बार परमाणु युद्ध के मुहाने तक पहुंचा चुके हैं. दूसरी तरफ भारत-पाकिस्तान के नेता हाल तक एक-दूसरे की शादी में शामिल होते रहे हैं.

उड़ी हमले के बाद भारत का जवाब अपवाद था. लेकिन पुलवामा की जवाबी कार्रवाई और इस पर पाकिस्तान का जवाब पूरे दक्षिण एशिया के लिए बड़ी नीतिगत करवट है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की विदेश नीति में तीन बड़े परिवर्तन किए हैं. बाजुएं फड़काने वाले माहौल से निकलकर ही हम इनके फायदे-जोखिम की थाह ले सकते हैं.

पहला: उड़ी और न ही पुलवामा सबसे बड़ी आतंकी वारदात है. लेकिन पहली बार भारत ने लगातार (दो बार) छद्म युद्ध का जवाब प्रत्यक्ष हमले से दिया है. पिछले दो साल में आतंकी रणनीति बदली है. कश्मीर से बाहर और आम लोगों पर हमलों की घटनाएं सीमित रही हैं. अब सुरक्षा बल निशाना हैं.

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध स्तरीय पलटवार में क्या हम कुछ और भी पढ़ पा रहे हैं. चीन की छाया में पाकिस्तान की सेना भारत को लंबे वार गेम में खींचने की कोशिश में सफल हो रही है जिसे हर कीमत पर टालने की कोशिश की गर्ई थी. कोई यकीन के साथ नहीं कह सकता कि पुलवामा आखिरी आतंकी हमला है तो फिर जवाब भी आखिरी नहीं...

दो: युद्धविदेश नीति की मृत्यु का ऐलान है. पाकिस्तान पर दो जवाबी कार्रवाइयां आतंक के खिलाफ लड़ाई की भारतीय नीति में निर्णायक मोड़ हैं. आतंक बेचेहरा युद्ध है. यह लड़ाई भूगोल की सीमा में नहीं लड़ी गई है. आतंक से प्रभावित दुनिया के सभी देशों ने इसे अपनी सामूहिक लड़ाई माना क्योंकि इससे घायल होने वाले दुनिया के सभी महाद्वीपों में फैले हैं. मुंबई और संसद पर हमले के बाद भी भारत जवाब देते-देते अंत में रुक गया था और कूटनीतिक अभियानों से पाकिस्तान को तोड़ा गया था.

क्या छद्म युद्ध के मुकाबले प्रत्यक्ष युद्धआतंक पर कूटनीतिक कोशिशों से ऊब का ऐलान हैक्या आतंक पर अंतरराष्ट्रीय एकजुटता से भारत को उम्मीद नहीं बची हैभारत-पाक के पलटवार पर दुनिया ने संयम की सलाह दीपीठ नहीं थपथपाई. सनद रहे कि प्रत्येक युद्ध खत्म हमेशा समझौते की मेज पर ही होता है.

तीन: पाकिस्तान की राजनीति हमेशा से भारत या कश्मीर केंद्रित रही हैभारत की नहीं. ऐसा पहली बार हो रहा है जब सुरक्षायुद्ध नीतिविदेश नीति किसी सरकार की चुनावी संभावनाओं को तय करने वाली हैं. भारतीय कूटनीति व सेना के पासपाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके (संदर्भबांग्लादेश बलूचिस्तान) हमेशा से मौजूद रहे हैं. लेकिन मोदी की मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े तोडऩे की आक्रामकता से भरा था इसलिए साल दर साल पाकिस्तान से दो टूक हिसाब करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और 2019 के चुनाव से पहले उन्हें अविश्वसनीय पड़ोसी को घरेलू राजनीति के केंद्र में लाना पड़ा है. भारत में कोई चुनावपहली बार शायद पाकिस्तान के नाम पर लड़ा जाएगा.

चीनी जनरलयुद्ध रणनीतिकार और दार्शनिक सुन त्जु ने कहा था कि चतुर योद्धा शत्रु को अपने हिसाब से चलाते हैं. उसके हिसाब से आगे नहीं बढ़ते. वक्त बताएगा दक्षिण एशिया में कौन किसे चला रहा था. फिलहाल तो फिल्म वार गेम्स का यह संवाद भारत-पाक की सियासत समझने में काम आ सकता है.

फाल्कन: तुमने कट्टा-बिंदी (टिक-टैक-टो) खेली?
जेनिफर: हां.
फाल्कन: अब नहीं खेलते?
जेनिफर: नहीं.
फाल्कन: क्यों?
जेनिफर: यह बोरिंग है. इसमें हमेशा मुकाबला बराबरी पर छूटता है.
फाल्कन: यकीननइसमें कोई नहीं जीतता लेकिन वार रूम में बैठे लोग सोचते हैं कि वे परमाणु युद्ध जीत सकते हैं.

Wednesday, April 29, 2015

नया एशियाई टाइगर !


चीन-पाक समझौते से एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा. इस नए समीकरण के बाद भारत के लिए, दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा शायद इसलिए टल रही थी क्योंकि दोनों मुल्क जिस करवट की तैयारी कर रहे थे, वह यकीनन बहुत बड़ी होने वाली थी. पाकिस्तान को अपना आर्थिक भविष्य चीन के हाथ सौंपने से पहले, अमेरिका से दूरी बनाने का साहस जुटाना था जबकि चीन को दुनिया के सबसे जोखिम भरे देश में दखल की रणनीति पर मुतमईन होना था. सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ और जिनपिंग और नवाज शरीफ के बीच समझौते के साथ ही दक्षिण एशिया की कूटनीतिक बिसात सिरे से बदल गई. भारत इस बदलाव को चाह कर भी नहीं रोक सका. अमेरिका ने रोकने में रुचि नहीं ली जबकि हाशिये पर सिमटे रूस को ज्यादा मतलब नहीं था. चीन-पाक समझौते से अब न केवल एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा बल्कि दिल्ली की सरकार को देश की सीमा से कुछ सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित काश्गर से ग्वादर तक चीनी कंपनियों की धमाचौकड़ी के लिए तैयार रहना होगा.
  46 अरब डॉलर कितने होते हैं? अगर यह सवाल पाकिस्तान से संबंधित हो तो जवाब है कि यह आंकड़ा पाकिस्तान के जीडीपी के 20 फीसदी हिस्से के बराबर है. यही वह निवेश है जिसके समझौते पर जिनपिंग और नवाज शरीफ ने दस्तखत किए हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि चीन ने पाकिस्तान की डूब चुकी अर्थव्यवस्था को न केवल गोद में उठा लिया है बल्कि यह निवेश जिस प्रोजेक्ट में हो रहा है, उसके तहत लगभग पूरा पाकिस्तान चीन के प्रभाव में होगा.
   
दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की निर्माता और 60 अरब डॉलर की संपत्तियां संभालने वाली चीन की थ्री गॉर्जेज कॉर्पोरेशन की अगुआई में जब चीन की विशाल सरकारी कंपनियां पाकिस्तान के इतिहास की बड़ी आर्थिक व निर्माण परियोजना शुरू करेंगी तो उनका शोर दिल्ली तक दस्तक देगा. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर अपने तरह की पहली परियोजना है जिसमें दो मुल्क अपनी आर्थिक संप्रभुता को साझा कर रहे हैं. काराकोरम राजमार्ग पर स्थित उत्तर-पश्चिमी चीनी शहर काश्गर को पाकिस्तान के दक्षिणी बंदरगाह ग्वादर से जोड़ने वाले 3,000 किलोमीटर के इस गलियारे में सड़कों, रेलवे, तेल-गैस पाइपलाइन, औद्योगिक पार्क का नेटवर्क बनेगा, जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी शामिल है. ग्वादर को हांगकांग की तर्ज पर फ्री ट्रेड जोन में बदला जाएगा. लाहौर, मुल्तान, गुजरांवाला, फैसलाबाद, रावलपिंडी और कराची में मेट्रो भी कॉरिडोर का हिस्सा हैं. चीन ने अपनी पांच दिग्गज सरकारी कंपनियों, थ्री गॉर्जेज, चाइना पावर इंटरनेशनल, हुआनेंग ग्रुप, आइसीबीसी कॉर्प, जोनर्जी कॉर्प को पाकिस्तान में उतार दिया है. इनके पीछे इंडस्ट्रियल ऐंड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना के संसाधनों की ताकत होगी.
   
ईरान-पाकिस्तान के बीच बनने वाली गैस पाइपलाइन को भी चीन की सरपरस्ती मिल गई है. इसका 560 मील लंबा ईरानी हिस्सा (फारस की खाड़ी में असलुया से बलूचिस्तान सीमा तक) तैयार है, अब पाकिस्तान को ग्वादर तक 485 मील पाइपलाइन बिछानी है. करीब दो अरब डॉलर की इस परियोजना की 85 फीसद लागत चीन उठाएगा. यह पाइपलाइन पाकिस्तान को 4,500 मेगावाट की बिजली क्षमता देगी जो पूरे मुल्क की बिजली कमी को खत्म कर देगी.    देश के आर्थिक व रणनीतिक भविष्य को चीन को सौंपने का फैसला यकीनन बड़ा था लेकिन शरीफ को इसमें बहुत मुश्किल नहीं हुई होगी क्योंकि अमेरिका ने 60 वर्ष के रिश्तों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी सौगात नहीं दी जो चीन ने एक बार में दे दी. शरीफ ने चीन से पाकिस्तान की किस्मत जोड़कर बहुत कुछ साध लिया है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लगभग डूब चुकी है. निवेश नदारद है और विदेशी मदद भी खत्म हो गई है. चीन परियोजनाओं के तेज क्रियान्वयन के लिए मशहूर है. पूरा कॉरिडोर अगले 15 साल में तैयार होना है जबकि चीन-ईरान पाइपलाइन तो 2017 से काम करने लगेगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान में तेज निर्माण शुरू हो जाएगा जो अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ शरीफ की सियासी मुसीबत कम करेगा. चीन से दोस्ती, शरीफ को सेना का दबदबा घटाने और आतंकवादी गतिविधियां सीमित करने में भी मदद कर सकती है. चीन के युआन अगले पांच साल में पाकिस्तान का चेहरा बदल सकते हैं.
   
आतंक की फैक्टरी, अस्थिर सरकारों और सेना के परोक्ष राज वाले एक जोखिम भरे देश में इतना बड़ा निवेश करने की हिक्वमत केवल चीन ही कर सकता था और विशेषज्ञों की मानें तो जिनपिंग ऐसा करने के लिए उत्सुक भी थे. अफगानिस्तान, ईरान व पश्चिम एशिया के खनिज समृद्ध इलाके चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का नया लक्ष्य हैं और जहां अमेरिका व रूस की रुचि खत्म हो रही है. पाकिस्तान में यह निवेश दक्षिण एशिया में भारत की रणनीति को सीमित करेगा और चीन को अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया तक मुक्त उड़ान की सुविधा देगा. इसके अलावा पाकिस्तान चीन के लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनेगा और ईरान के गैस व तेल चीन तक लाने का रास्ता भी तैयार करेगा.
   
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कूटनीतिक संकल्प सराहनीय हैं लेकिन उनकी ग्लोबल उड़ानों के नतीजे सामने आने से पहले ही चीन व पाकिस्तान ने भारतीय उपमहाद्वीप के कूटनीतिक समीकरण बदल दिए हैं. भारत के लिए दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के आर्थिक हितों को संजोने के बाद चीन ने पाकिस्तान को भी हथेली पर उठा लिया है. मोदी को अगले माह बीजिंग जाने से पहले यह तय करना होगा कि भारत इस नए चाइनीज ड्रीम के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करेगा.  कूटनीति की दुनिया में शी जिनपिंग की मुहावरेदार भाषा नई नहीं है फिर भी इस बार जब उन्होंने पाकिस्तान को भविष्य का एशियाई टाइगर (पाकिस्तान के डेली टाइम्‍स में छपा उनका लेख) कहा तो चौंकने वाले कम नहीं थे क्योंकि दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने पाकिस्तान में यह संभावना कभी नहीं देखी. चीन की दोस्ती में पाकिस्तान शेर बनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है लेकिन इस बात से इत्तेफाक करना होगा कि चीनी डीएनए के साथ पाकिस्तान की गुर्राहट और चाल जरूर बदल जाएगी.



Tuesday, January 13, 2015

संयम की नियंत्रण रेखा

भारत ग्लोबल कूटनीति में जब निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा हैतब पाकिस्तान सबसे बड़ी दुविधा बन गया है।

पाकिस्तान को लेकर मोदी का आशावाद, उनकी सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही खत्म हो जाना स्वाभाविक ही था. हैरत तो, दरअसल, उस वक्त हुई जब पाकिस्तान को लेकर मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी साबित नहीं हुए. कश्मीर के अलगाववादी नेता शब्बीर शाह और पाकिस्तानी राजदूत अब्दुल बासित के बीच मुलाकात के बाद अगस्त में दोनों मुल्कों की सचिव स्तरीय वार्ताएं न केवल रोक दी गईं बल्कि सरकार ने रिश्तों की रूल बुक यानी शिमला समझौते व लाहौर घोषणा को सामने रखते हुए सख्ती के साथ स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान ही बात करेंगे, कोई तीसरा पक्ष नहीं रहेगा. मोदी सरकार का रुख साफ था कि इस अहमक पड़ोसी को लेकर न तो कांग्रेस की परंपरा चलेगी और न वाजेपयी की. पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की नीति तय करने के बाद मोदी ग्लोबल अभियान पर निकल गए थे क्योंकि उम्मीद थी कि पाकिस्तान बदलाव को समझते हुए संतुलित रहेगा. लेकिन पिछले छह माह में पाकिस्तान के पैंतरों ने भारत को चौंकाया है. कूटनीतिक व प्रतिरक्षा नियंता लगभग मुतमईन हैं कि पाकिस्तान, भारत को लंबे वार गेम में उलझना चाहता है. पसोपेश यह है कि ऐसे में सरकार के संयम की नियंत्रण रेखा क्या होनी चाहिए? वाजपेयी या कांग्रेस की तरह प्रतिरक्षात्मक रहना कितना कारगर साबित होगा?
भारत -पाक रिश्तों के इतिहास में भाजपाई नेतृत्व वाला हिस्सा छोटा जरूर है लेकिन बेहद निर्णायक रहा है. इसकी तुलना में राजीव-बेनजीर समझौते यानी अस्सी के दशक के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में, दोतरफा रिश्तों का रसायन ठंडा ही रहा. वाजपेयी वैचारिक रूप से पाकिस्तान बनाने के सिद्धांत के विपरीत थे लेकिन पड़ोसी को लेकर उनकी सदाशयता और सकारात्मकता ने उन्हें कभी दो-टूक नहीं होने दिया, जिसका नुक्सान भी हुआ. फरवरी 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व में अमन की बस लाहौर पहुंची तो दोस्ती के गीत बजे लेकिन मई आते आते करगिल हो गया और पूरा देश पाकिस्तान के खिलाफ घृणा से भर गया. 2001 में आगरा की शिखर बैठक में दोस्ती की एक असफल कोशिश हुई लेकिन 2002 में संसद पर हमले के बाद माहौल और बिगड़ गया. वह पहला मौका था जब वाजपेयी दो-टूक हुए, भारतीय सेना सीमा की तरफ बढ़ी और मुशर्रफ ने नरम पड़ते हुए, आतंक पर रोकथाम का वादा किया जो कभी पूरा नहीं हुआ
मोदी के शपथग्रहण में नवाज शरीफ की मौजूदगी, वाजपेयी मॉडल का हिस्सा थी लेकिन जब अगस्त में दो-टूक तेवरों के साथ पाकिस्तान से वार्ता रोकी गई तो साफ हो गया कि मोदी खुद को वाजपेयी की तरह पाकिस्तान से उलझए नहीं रखेंगे. पाकिस्तान से रिश्ते, उनकी ग्लोबल डिजाइन का एक छोटा-सा हिस्सा हैं.
मोदी की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं. उन्होंने घरेलू गवर्नेंस की अनदेखी का जोखिम उठा कर खुद को विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की है. अलबत्ता उनकी कोशिशों में पड़ोसी ही बाधा बने हैं. चीन ने आंख में आंख डालकर घुसपैठ की और पाकिस्तान ने तो बारूदी मोर्चा ही खोल दिया. गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा, मोदी के नए नवेले ग्लोबल कूटनीतिक अभियान का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है और मोदी इसे हर तरह से भव्य व निरापद रखना चाहते थे. लेकिन यह आयोजन आतंक, असुरक्षा और अंदेशों का साये में आ ही गया है जो पाकिस्तान की डिजाइन का मकसद है. दरअसल, मोदी ने जब अगस्त में पाकिस्तान से वार्ताएं रोकीं थीं तब तक न तो उनकी ग्लोबल योजनाएं स्पष्ट थीं और न ही ओबामा के भारत आने का कार्यक्रम था. लेकिन अब जब भारत अपनी ग्लोबल कूटनीति में निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा है, तब विदेश और प्रतिरक्षा संवादों से गुजरते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की दो-टूक रणनीति को दुविधाओं ने घेर लिया है.
 पाकिस्तान को लेकर मोदी के तेवर उनके चुनाव अभियान के माफिक हैं, जो पिछली सरकार की पाकिस्तान नीति को लचर साबित करता था. यही वजह है कि जब पाकिस्तान की हरकतों से मोदी की सख्त छवि सवालों में घिरी, तो सीमा पर प्रतिरक्षा तंत्र ने ऐलानिया जवाबी कार्रवाई की. रक्षा और गृह मंत्रियों के बेलाग लपेट बयान भी यह बताते हैं कि रक्षा तंत्र, कांग्रेस व वाजपेयी के दौर की प्रतिरक्षात्मक रणनीति से आगे निकल आया है. अरब सागर में आग लगने के बाद डूबी नौका में आतंकी थे या नहीं, यह बात दीगर है लेकिन इसे लेकर सुरक्षा बलों ने जो सक्रियता दिखाई वह बताती है कि करगिल व 26/11 के बाद रक्षा बल किसी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं. कूटनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि अगर ओबामा की यात्रा से पहले या बाद में भी, पाकिस्तान प्रेरित बड़ा दुस्साहस होता है तो भारत के लिए फैसले की कठिन घड़ी होगी क्योंकि सीमा पर बात काफी आगे बढ़ चुकी है. 
 मोदी ने वहीं से शुरुआत की है जहां वाजपेयी ने छोड़ा था. वाजपेयी का अंतिम बड़ा निर्णय आक्रामक ही था जब संसद पर हमले के बाद सेना को सीमा की तरफ बढ़ाया गया था. वाजपेयी से मोदी तक आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है. पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी जैसी सदाशयता मोदी की, ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं के माफिक है और  घरेलू राजनीति में लोकप्रिय बने रहने के लिए इंदिरा गांधी वाला हॉट परस्यूट कारगर है.  दोनों विकल्पों के अपने नुक्सान हैं लेकिन मोदी कांग्रेस की तरह बीच में नहीं टिक सकते, क्योंकि पाकिस्तान से उनके रिश्तों की शुरुआत दो-टूक हुई है. उन्हें वाजपेयी बनना होगा या इंदिरा गांधी. 2015 में मोदी के इस चुनाव का नतीजा भी आ ही जाएगा और देश को उसके असर के लिए तैयार रहना होगा.