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Friday, November 27, 2020

तिजोरीभर सवाल

 


बीती सदी के सबसे बड़े आविष्कारों की सूची पेंसिलीन के बिना पूरी नहीं होगी. लेकिन इस जीवन रक्षक ऐंटीबायोटिक के आविष्कारक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग (1881-1955) का यह डर भी सही साबित हुआ, ऐंटीबायोटिक के अति उपयोग के कारण जीवन पर खतरा छा जाएगा.

अच्छे से अच्छा सुधार भी अधिकतम सीमा तक प्रयोग होने के बाद जोखिम से भर जाता है, जैसे कि बैंकिंग में निजीकरण. तभी तो भारतीय उदारीकरण के इतिहास में शायद पहली बार निजीकरण के धुर समर्थक भी रिजर्व बैंक की एक समिति की इस सिफारिश से सहमत नहीं हो पा रहे हैं कि बड़े औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की छूट दी जानी चाहिए. देशी-विदेशी एजेंसियां (स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस रिपोर्ट से असहमत और सुझावों पर आशंकित हैं.

निजी कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग में उतरने पर डर क्या हैं? इनसे पहले यह समझना जरूरी है कि इस रिपोर्ट के जरिए नीति निर्माता सोच क्या रहे हैं.

भारत की बैंकिंग दुनिया के मुकाबले और देश के जीडीपी की तुलना में बहुत छोटी (70 फीसद, ग्लोबल औसत जीडीपी के बराबर या ज्यादा) है

निजी बैंकिंग सफल है, जमा और कर्ज में निजी बैंकों का हिस्सा 1995 से 2020 में तीन गुना (12.56 से 36 फीसद) बढ़ गया है

शेयर बाजार में निजी बैंकों के रिटर्न बेहतर हैं, इसलिए उन्होंने बीते पांच वर्षों में बाजार से 1.15 लाख करोड़ रु. जुटाए हैं जबकि सरकारी बैंक केवल 70,000 करोड़ रु. जुटा सके.

रिजर्व बैंक की समिति बैंकिंग बाजार में निजीकरण को तेज करने के हक में है लेकिन यह ज्यादा से ज्यादा बचतों को निजी बैंकों तक पहुंचाए बिना संभव नहीं है. इसलिए निजी क्षेत्र को नए बैंकिंग लाइसेंस की सिफारिश की गई है. बचत बाजार में सरकारी बैंक करीब 60 फीसद हिस्सा लिए बैठे हैं. चालू खाता और बचत खाता (कासा) बचतें बीते दस साल में क्रमश: 8.7 फीसद और 13.9 फीसद गति से बढ़ी हैं.

अलबत्ता बचतों का प्रस्तावित कंपनीकरण जोखिम भरा है. बैंकों में निजी क्षेत्र की सक्रियता और दूसरे कारोबारों के निजीकरण में फर्क है. अचरज नहीं कि रिजर्व बैंक की जिस समिति ने यह सिफारिश की है, उसमें चार में तीन सदस्य इस सुझाव के पूरी तरह खिलाफ थे.

बड़ी कंपनियां कारोबार के लिए बैंकों से कर्ज लेती हैं. इसलिए उन्हें सीधे बैंकिंग में उतरने से रोका जाता है. रघुराम राजन और विरल आचार्य (रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर व डिप्टी गवर्नर) मानते हैं, बेहद सतर्क नियामक भी कॉर्पोरेट बैंकों को इस बात से नहीं रोक सकते कि वे बचत का इस्तेमाल अपनी कंपनियों को कर्ज देने में नहीं करेंगे. इसी वजह से 2013 में लाइसेंस नियम उदार होने के बावजूद किसी बड़े कॉर्पोरेट को बैंकिंग लाइसेंस नहीं मिला. केवल दो लाइसेंस (बंधन और आइडीएफसी) मंजूर हुए.

येस बैंक ने जिस तरह आंख बंद कर कर्ज बांटे और डुबाए या लक्ष्मी विलास बैंक के लिए उबारने के सिंगापुर के डीबीएस को बेचना पड़ा, उसके बाद तो मौजूदा निजी बैंकों के कामकाज और रिजर्व बैंक की निगरानी ही सवालों के घेरे में है.

देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस बदहाल है तो उन्हें बैंकिंग में प्रवेश क्यों?

यह कवायद सरकारी बैंकों के निजीकरण की भूमिका हो सकती है जिन्हें खरीदने के लिए बाजार में नए निजी बैंक चाहिए क्योंकि मौजूदा प्राइवेट बैंक इतने सक्षम नहीं हैं. विदेशी बैंकों को बुलाने पर स्वदेशी गुब्बारा फूट जाएगा. यही वजह है कि बड़े औद्योगिक घरानों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को बैंकिंग लाइसेंस देने, वर्तमान निजी बैंकों पर प्रवर्तकों का नियंत्रण बढ़ाने और पेमेंट बैंक को समग्र बैंक में बदलने की सिफारिश की गई है.

इन सिफारिशों का संकेत है कि सरकारी बैंकों की संख्या घटेगी. लेकिन सरकार आम बचत को बैंकों के जरिए कंपनियां में पहुंचाने और आर्थिक ताकत को कुछ हाथों में केंद्रित क्यों करना चाहती है? सरकारी बैंकों के शेयर जनता को बेचे जाएं और उन्हें पेशेवर ढंग से चलाया जाए, इसमें क्या हर्ज है?

अर्थव्यवस्थाओं का इतिहास बताता है कि यदि अतीत और वर्तमान को सही ढंग से न समझा जाए तो अच्छे से अच्छा सुधार या प्रयोग भविष्य को तबाह कर देता है. सोना आज भी संकट में चमकता है, विश्व के बैंक आज भी सोने के भंडार रखते हैं लेकिन अब कोई विंस्टन चर्चिल वाली गलती नहीं करता. विश्व युद्ध के बाद 1925 में वित्त मंत्री के तौर पर चर्चिल ने पाउंड को सोने से बदलने की छूट (गोल्ड स्टैंडर्ड) दे दी. ब्रिटेन का सोना फ्रांस जाने लगा. इस बीच 1929 की महामंदी आई और ब्रिटेन की रीढ़ टूट गई. 1931 में यह फैसला वापस लिया गया.

बाबा तुलसी सिखा गए हैं कि ग्रह, दवा, पानी, कपड़ा और वायु संयोग और दुर्योग के आधार पर अच्छे या बुरे बनते हैं. भारतीय बैंकिंग का ताजा अतीत तिजोरीभर नसीहतों के साथ इशारा कर रहा है कि बड़े धोखे हैं इस राह में.

Tuesday, June 28, 2016

रघुराम राजन और मध्‍य वर्ग


क्‍या रघुराम राजन मौद्रिक नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
घुराम राजन क्या भारतीय मध्य वर्ग का बैंकर बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या वे ऐसी मौद्रिक नीति बनाने की  कोशिश में लगे थे जो बहुसंख्यक मध्य वर्ग की जरूरतों को तवज्जो देती हो? क्या लोकलुभावन और संवेदनशील दिखने वाली सरकार, दरअसल कर्ज लेने वालों के प्रति अतिरिक्त उदार हो चली है या फिर राजन कुछ ज्यादा ही जनवादी हो गए थे? क्या राजन मुट्ठीभर कर्ज लेने वालों के बजाए लाखों बैंक जमाकर्ताओं और उपभोक्ताओं का प्रवक्ता बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या बड़े बैंक कर्जदारों और उन्हें बचाने वाले बैंकरों के प्रति राजन की निर्ममता उन्हें ऐसा केंद्रीय बैंकर बना रही थी जो भारत में उद्योग-नेता गठजोड़ के माफिक नहीं था?
अब तक हमने मौद्रिक नीति पर बहुसंख्यकों के मतलब वाली बहस कभी नहीं की है. हमारी चर्चाएं कर्ज की आपूर्ति और ब्याज दरों में कमी-बेशी से बाहर कभी नहीं निकलतीं, जो सीमित लोगों की चिंता है. भारतीय बैंकिंग और मौद्रिक नीति के प्रभाव को व्यापक दायरे में देखने के बाद महसूस होता है कि शायद राजन इस नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
राजन के पूर्ववर्ती गवर्नर सुब्बा राव इस बात पर अचरज में थे कि उनके बाल तो कम हो रहे हैं लेकिन बाल कटाने की लागत बढ़ती जाती है. राजन ने महंगाई की उलझन को पकडऩे की कोशिश की, जो औसत भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुसीबत है. महंगाई नियंत्रण किसी भी केंद्रीय बैंक का पहला कर्तव्य है. इस काम के लिए ब्याज दरों में कमी-बेशी के जरिए मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है ताकि बाजार में कम चीजों के पीछे ज्यादा रुपया न दौड़े और कीमतें यानी महंगाई काबू में रहे. 
राजन से पहले तक ब्याज दरें तय करने के लिए थोक महंगाई को आधार बनाया जाता था और जीडीपी ग्रोथ की जरूरत को लक्ष्य किया जाता था. यह फॉर्मूला उस महंगाई को रोकता ही नहीं था, जो हमारी जेब काटती है. राजन ने ब्याज दरें तय करने के फॉर्मूले को खुदरा महंगाई से जोड़ दिया, जो ज्यादा पारदर्शी और स्थायी था. इसे वित्तीय बाजार ने भी स्वीकार किया.
फॉर्मूला बदलने के साथ रिजर्व बैंक ने सरकार को बाध्य किया कि ब्याज दरों में कमी के लिए उपभोक्ता महंगाई को कम किया जाए. कर्ज पर ब्याज दरें कम होने का सबसे ज्यादा फायदा सरकार को होता है जो बैंकों से सबसे ज्यादा कर्ज लेती है. यह नीति सरकार को फालतू के खर्च घटाकर कर्ज कार्यक्रम (राजकोषीय घाटे) को सीमित रखने पर भी बाध्य करती थी जो बाजार में कर्ज की मांग को प्रभावित करता है. पिछले तीन साल के आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता महंगाई भी घटी और सरकार ने घाटे पर भी काबू किया.
राजन ने अपने एक भाषण में महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को समझाने के लिए दोसे का उदाहरण दिया था. मतलब यह कि महंगाई बढ़ती रहे और ब्याज दरें कम की जाएं तो पेंशनर और जमाकर्ताओं के लिए दोसे खरीदने की क्षमता सीमित होती चली जाती है. यह उदाहरण उन्हें पहला ऐसा केंद्रीय बैंकर बनाता है जो बैंकिंग ढांचे में जमाकर्ताओं के हितों को कर्ज लेने वालों के बराबर तरजीह दे रहे थे. जाहिर है कि बैंक में जमा रखने वाले लोगों की संक्चया कर्ज लेने वालों के मुकाबले बहुत बड़ी है. जमा ही बैंकिंग का आधार है.
राजन जमाकर्ताओं को सकारात्मक रिटर्न (महंगाई दर-जमा ब्याज दर) देने के हिमायती थे. उन्होंने सुझाया था कि सरकार को अपने एक साल के कर्जों पर महंगाई दर से दो फीसदी ज्यादा ब्याज देना चाहिए ताकि जमा पर ब्याज दरें तर्कसंगत रहें. यह राय वित्त मंत्रालय को नहीं भाई, जिसने इसी मार्च में छोटी बचतों पर ब्याज दरें कम की हैं. उल्लेखनीय है कि राजन के गवर्नर बनने के कुछ माह बाद जनवरी 2014 से जमा पर रियल टर्म रिटर्न सकारात्मक हो गए थे.
हम भले ही बैंकों के मामले में कर्ज और ब्याज से आगे कुछ न सोचते हों लेकिन भारत में बैंकिंग की हकीकत में बिल्कुल फर्क है. यहां 45 फीसदी वयस्क आबादी के पास बैंक खाते नहीं हैं यानी कि वह बैंकिंग के दायरे से बाहर हैं. केवल 6.4 फीसदी वयस्क ऐसे हैं जिन्होंने किसी वित्तीय संस्थान से कर्ज लिया है. (वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिनडेक्स डाटाबेस 2014) इनमें भी उपभोक्ता कर्ज लेने वालों की संख्या और उनके कर्जों के आकार बहुत सीमित है.
दरअसल, भारत में कर्ज का वास्तविक संसार बड़े उद्योगों का है. ब्याज दरों में चैथाई फीसदी की कटौती से आम उपभोक्ता की मासिक किस्त कुछ सौ रुपए घटती है लेकिन कर्ज के सबसे बड़े ग्राहकों यानी उद्योगों और सरकार के लिए यह कमी करोड़ों रु. का मामला है. रिजर्व बैंक के आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि पिछले साल 31 मार्च तक सरकारी बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज का एक-तिहाई हिस्सा केवल 30 कर्जदारों के नाम था. पांच प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 4.87 लाख करोड़ रु. के कर्ज सिर्फ 44 कर्जदारों के खाते में दर्ज हैं और यह सभी औसत 5,000 करोड़ रु. के ऊपर के कर्जदार हैं. इस कर्ज की वसूली के बिना बैंकों की लागत घटना और कर्ज सस्ता होना नामुमकिन है. समझना मुश्किल नहीं है कि राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने बड़े कर्जदारों से वसूली और बैंकों की सफाई का जो अभियान चलाया, वह किसे परेशान कर रहा होगा.
राजन के विरोधी उन्हें अमेरिका से प्रभावित बताते हैं लेकिन अमेरिका में उपभोग के लिए भी कर्ज लिया जाता है, वहां महंगाई कोई मुद्दा नहीं है और वहां सस्ता कर्ज ही सब कुछ है. इसके उलट भारत की बैंकिंग जमाकर्ताओं की है, जिनके लिए बैंक बैलेंस पर रिटर्न और महंगाई सबसे बड़ी चिंता है.
राजन की मौद्रिक कोशिशों को भारत के बैंकिंग परिदृश्य के संदर्भ में देखने के बाद यह सवाल पीछा नहीं छोड़ता कि क्या रघुराम राजन मध्य वर्ग के हितों को मौद्रिक नीति का स्थायी कारक बनाना चाहते थे जबकि उन्हें हटाने की मुहिम छेडऩे वाले कुछ और ही चाह रहे थे?
ध्यान रहे कि केंद्र सरकार मौद्रिक नीति को तय करने के नए पैमाने जारी करने वाली है. यदि वह जमाकर्ताओं से ज्यादा कर्ज लेने वालों के पक्ष में हुए तो हमारे कई संदेह सही साबित हो सकते हैं.

Tuesday, November 10, 2015

बेचारे बैंक


बैंकों की बदहाली के लिए अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं हैमोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सप्ताह जब चरमराते बैंकों के कंधे पर सोना के बदले ब्याज देने की स्कीम लाद रहे थे और स्कीम की सफलता को लेकर बैंकिंग उद्योग में बुनियादी शक-शुबहों की चर्चा चल रही थी, तब हेनरी फोर्ड याद आ गए जिन्होंने कहा था कि आम लोग अगर यह जान जाएं कि बैंक कैसे काम करते हैं तो बगावत हो जाएगी. दरअसल, इस कहावत का जिक्रहाल में ही एक विदेशी निवेशक ने भारतीय बैंकिंग के संदर्भ में किया था. हम मोदी सरकार में आर्थिक सुधारों पर चर्चा कर रहे थे इसी दौरान निवेशक ने कहा कि अगर निवेशक भारतीय बैंकों की ताजा हालत की अनदेखी न करें तो शेयर बाजार में बगावत हो जाएगी. ग्लोबल बैंकिंग के ताजे खौफनाक तजुर्बों की रोशनी में वह निवेशक न केवल भारतीय बैकों के बुरे हाल को लेकर परेशान था बल्कि इस बात पर झुंझला रहा था कि कोई सरकार इतनी बेफिक्र कैसे हो सकती है कि जब उसके बैंक भारी बकाया कर्जों और किस्म-किस्म के घोटालों के जखीरे पर बैठे हों तब बैंकों में सुधार की बजाए वह उनके लोकलुभावन इस्तेमाल के नए तरीके तलाश रही है. 
चुनाव के दौरान बीजेपी जब आर्थिक सुधारों की तीसरी पीढ़ी लागू करने का वादा कर रही थी तब यही अनुमान था कि बैंक सुधार सरकार की सबसे पहली वरीयता पर होंगे क्योंकि यह लंबे अर्से से लंबित हैं. इस बीच पिछले पांच वर्षों की मंदी के कारण बैंकों के कर्ज की उगाही बड़े पैमाने पर अधर में लटक गई है. बैंकों का सरकार नियंत्रित तंत्र गहरी अपारदर्शिता से भर गया है जिसका नतीजा किस्म-किस्म के घोटालों के तौर पर सामने आया. भारतीय बैंकिंग सिर्फ संकट में ही नहीं है बल्कि ग्लोबल पैमानों पर आधुनिक होने के लिए बैंकों का पुनर्गठन, सुधार, निजीकरण और इनमें सरकारी दखल की समाप्ति अनिवार्य हो गई है ताकि इन्हें उत्पादक निवेश के वित्त पोषण के लायक बनाया जा सके.
इन अपेक्षाओं की रोशनी में बैंकों को लेकर मोदी सरकार की नीतियां निराश करती हैं. पिछले सोलह माह में मोदी सरकार ने परेशानहाल बैंकों का कुछ इस तरह इस्तेमाल शुरू कर दिया है, जिसे देखकर अस्सी के दशक के हालात याद आ जाते हैं. बैंकों की हालत, क्षमता और अपेक्षाओं को समझे बिना सरकार ने अपने लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. मिसाल के तौर पर जनधन को ही लें. बैंकिंग के स्वाभाविक और लाभप्रद विस्तार के लिए बैंकों को सक्षम बनाने की जरूरत थी लेकिन जनधन जैसी स्कीम उस समय आई जब बैंकों के पास कर्ज के ग्राहक नहीं हैं और जमा की ग्रोथ 51 साल के सबसे निचले स्तर पर है. जनधन ने बैंकों की लागत में इजाफा कर दिया और ऐसे खातों का अंबार लगा दिया जिनमें कोई संचालन नहीं होता. महंगाई और मंदी के कारण बैंक बचत घट रही हैं और सरकार के पास भी फिलहाल इन खातों के जरिए देने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए जनधन बैंकों के लिए बोझ जैसी ही है. ठीक यही हाल जन सुरक्षा बीमा बांटने का हुआ, जहां बैंकों ने बढ़ती लागत और वित्तीय दिक्कतों के कारण बहुत बढ़-चढ़कर भाग नहीं लिया.
गोल्ड मॉनेटाइजेशन स्कीम को देखकर ही बैंकों ने हाथ खड़़े कर दिए हैं. सोने के कारोबार से जुड़े जोखिम और मुनाफों पर दबाव के कारण सोना रखने पर बैंक अच्छा ब्याज नहीं दे सकते. रिजर्व बैंक की अधिसूचना के मुताबिक, सोना जमा करने पर महज दो से ढाई फीसदी का ब्याज मिलेगा जो इस स्कीम को अनाकर्षक बनाने के लिए पर्याप्त है. मुद्रा बैंक के माध्यम से लगाए गए लोन मेले, शायद बैंकों के इस्तेमाल की पराकाष्ठा हैं. सरकार ने इसके जरिए बगैर जमानत के छोटे कर्ज बांटने का अभियान चलाने की कोशिश की है लेकिन बैंक इस हालत में हैं ही नहीं कि वे इस तरह की रेवडिय़ा बांट सकें.
ये स्कीमें सत्तर-अस्सी के दशक की याद दिलाती हैं जब सरकारें बैंकों का इस्तेमाल लोकलुभावन राजनीति में करती थीं और उसे सामाजिक बैंकिंग कहा जाता था. दरअसल, भारतीय बैंकों की ताजा हकीकत तो कंपनियों-बैंकों का गठजोड़ यानी क्रोनी बैंकिंग है जो सामाजिक बैंकिंग की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है. बैंकों के फंसे हुए कर्जों (एनपीए) का सबसे बदसूरत चेहरा यह है कि बैंकों का अधिकांश बकाया कर्ज आम लोगों, छोटे उद्यमियों, उपभोक्ताओं के पास नहीं बल्कि चुनिंदा उद्योगों के पास है. क्रेडिट सुइस की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय बैंकों की तरफ से दिया गया 17 फीसदी कर्ज मुश्किल में है. यह आंकड़ा रिजर्व बैंक के शुरुआती आकलन (11 फीसदी) से बड़ा है. रिपोर्ट कहती हैं कि भारत के दस बड़े औद्योगिक समूह 113 अरब डॉलर का कर्ज लिए बैठे हैं. यह कर्ज बैंकों की सक्षमता का गला घोंट कर उन्हें ऊंची ब्याज दर रखने पर मजबूर किए हुए है जबकि देश का शेष क्षेत्रउत्पादक, निवेश या उपभोग के लिए बैंक कर्ज के लिए तरस रहा है.
बैंकिंग को लेकर सरकार से दो बड़ी अपेक्षाएं थीं. एक: क्रोनी बैंकिंग पर सख्ती होगी और बैंकों के एनपीए कम किये जाएंगे ताकि कर्ज सस्ता करने का रास्ता बन सके. दो: बैंकों में सरकार अपना हिस्सा घटाएगी, निजीकरण करेगी और दखल समाप्त करेगी, क्योंकि ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज बुनियादी जरूरत है. ग्रोथ का ताजा इतिहास तेज विकास और सस्ते कर्ज के बीच रिश्ते का सबसे ठोस प्रमाण है. 2005 से 2011 की 7 से 8 फीसदी की विकास दर दरअसल सस्ते और बड़ी मात्रा में बैंक कर्ज की देन थी. बाद के वर्षों में ब्याज दरें, कर्ज का प्रवाह घटा और ग्रोथ भी बैठ गई.
सरकार को अच्छी तरह यह पता है कि बैंकों के पुनर्गठन के बिना सस्ते कर्ज की वापसी नामुमकिन है. इसके बावजूद बैंकों का नया और बेधड़क लोकलुभावन इस्तेमाल निराश करता है. सिर्फ यही नहीं, क्रोनी बैंकिंग को बदलने और बैंकों को फंसे कर्ज से निजात दिलाने के लिए करदाताओं के पैसे यानी बजट से बैंकों को 700 अरब रुपए की पूंजी मिलने जा रही है. एक बड़ा संकट बैंकों की दहलीज पर है और अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं है, मोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.