बीती सदी के सबसे बड़े आविष्कारों की सूची पेंसिलीन के बिना पूरी
नहीं होगी. लेकिन इस जीवन रक्षक ऐंटीबायोटिक के आविष्कारक अलेक्जेंडर
फ्लेमिंग (1881-1955) का यह डर भी सही साबित हुआ, ऐंटीबायोटिक के अति उपयोग के कारण जीवन पर खतरा छा जाएगा.
अच्छे से अच्छा सुधार भी अधिकतम सीमा तक प्रयोग होने के बाद जोखिम से भर जाता है, जैसे कि बैंकिंग में निजीकरण.
तभी तो भारतीय उदारीकरण के इतिहास में शायद पहली बार निजीकरण के धुर
समर्थक भी रिजर्व बैंक की एक समिति की इस सिफारिश से सहमत नहीं हो पा रहे हैं कि बड़े
औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की छूट दी जानी चाहिए. देशी-विदेशी एजेंसियां (स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस रिपोर्ट से असहमत और सुझावों पर आशंकित हैं.
निजी कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग में उतरने पर डर क्या
हैं? इनसे पहले यह समझना जरूरी है कि इस रिपोर्ट
के जरिए नीति निर्माता सोच क्या रहे हैं.
• भारत की बैंकिंग दुनिया
के मुकाबले और देश के जीडीपी की तुलना में बहुत छोटी (70 फीसद, ग्लोबल
औसत जीडीपी के बराबर या ज्यादा) है
• निजी बैंकिंग सफल है, जमा और कर्ज में निजी बैंकों का हिस्सा
1995 से 2020 में तीन गुना (12.56 से 36 फीसद) बढ़ गया है
• शेयर बाजार में निजी
बैंकों के रिटर्न बेहतर हैं, इसलिए
उन्होंने बीते पांच वर्षों में बाजार से 1.15 लाख करोड़ रु.
जुटाए हैं जबकि सरकारी बैंक केवल
70,000 करोड़ रु. जुटा सके.
रिजर्व बैंक की समिति बैंकिंग बाजार में निजीकरण को तेज
करने के हक में है लेकिन यह ज्यादा से ज्यादा बचतों को निजी बैंकों तक पहुंचाए बिना
संभव नहीं है. इसलिए निजी क्षेत्र
को नए बैंकिंग लाइसेंस की सिफारिश की गई है. बचत बाजार में सरकारी
बैंक करीब 60 फीसद हिस्सा लिए बैठे हैं. चालू खाता और बचत खाता (कासा) बचतें
बीते दस साल में क्रमश: 8.7 फीसद और 13.9 फीसद गति से बढ़ी हैं.
अलबत्ता बचतों का प्रस्तावित कंपनीकरण जोखिम भरा है. बैंकों
में निजी क्षेत्र की सक्रियता और दूसरे कारोबारों के निजीकरण में फर्क है. अचरज नहीं कि रिजर्व बैंक की जिस समिति ने यह सिफारिश की है, उसमें चार में तीन सदस्य इस सुझाव के पूरी तरह खिलाफ
थे.
बड़ी कंपनियां कारोबार के लिए बैंकों
से कर्ज लेती हैं.
इसलिए उन्हें सीधे बैंकिंग में उतरने से रोका जाता है. रघुराम राजन और विरल आचार्य (रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर
व डिप्टी गवर्नर) मानते हैं, बेहद सतर्क
नियामक भी कॉर्पोरेट बैंकों को इस बात से नहीं रोक सकते कि वे बचत का इस्तेमाल अपनी
कंपनियों को कर्ज देने में नहीं करेंगे. इसी वजह से
2013 में लाइसेंस नियम उदार होने के बावजूद किसी बड़े कॉर्पोरेट को बैंकिंग
लाइसेंस नहीं मिला. केवल दो लाइसेंस (बंधन
और आइडीएफसी) मंजूर हुए.
येस बैंक ने जिस तरह आंख बंद कर कर्ज बांटे और डुबाए
या लक्ष्मी विलास बैंक के लिए उबारने के सिंगापुर के डीबीएस को बेचना पड़ा, उसके बाद तो मौजूदा निजी बैंकों के कामकाज
और रिजर्व बैंक की निगरानी ही सवालों के घेरे में है.
देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस बदहाल है तो उन्हें बैंकिंग
में प्रवेश क्यों?
यह कवायद सरकारी बैंकों के निजीकरण की भूमिका हो सकती
है जिन्हें खरीदने के लिए बाजार में नए निजी बैंक चाहिए क्योंकि मौजूदा प्राइवेट बैंक
इतने सक्षम नहीं हैं. विदेशी
बैंकों को बुलाने पर स्वदेशी गुब्बारा फूट जाएगा. यही वजह है
कि बड़े औद्योगिक घरानों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी)
को बैंकिंग लाइसेंस देने, वर्तमान निजी बैंकों
पर प्रवर्तकों का नियंत्रण बढ़ाने और पेमेंट बैंक को समग्र बैंक में बदलने की सिफारिश
की गई है.
इन सिफारिशों का संकेत है कि सरकारी बैंकों की संख्या
घटेगी. लेकिन सरकार आम बचत को बैंकों के जरिए
कंपनियां में पहुंचाने और आर्थिक ताकत को कुछ हाथों में केंद्रित क्यों करना चाहती
है? सरकारी बैंकों के शेयर जनता को बेचे जाएं और उन्हें पेशेवर
ढंग से चलाया जाए, इसमें क्या हर्ज है?
अर्थव्यवस्थाओं का इतिहास बताता
है कि यदि अतीत और वर्तमान को सही ढंग से न समझा जाए तो अच्छे से अच्छा सुधार या प्रयोग
भविष्य को तबाह कर देता है.
सोना आज भी संकट में चमकता है, विश्व के बैंक आज
भी सोने के भंडार रखते हैं लेकिन अब कोई विंस्टन चर्चिल वाली गलती नहीं करता.
विश्व युद्ध के बाद 1925 में वित्त मंत्री के तौर
पर चर्चिल ने पाउंड को सोने से बदलने की छूट (गोल्ड स्टैंडर्ड)
दे दी. ब्रिटेन का सोना फ्रांस जाने लगा.
इस बीच 1929 की महामंदी आई और ब्रिटेन की रीढ़
टूट गई. 1931 में यह फैसला वापस लिया गया.
बाबा तुलसी सिखा गए हैं कि ग्रह, दवा, पानी,
कपड़ा और वायु संयोग और दुर्योग के आधार पर अच्छे या बुरे बनते हैं.
भारतीय बैंकिंग का ताजा अतीत तिजोरीभर नसीहतों के साथ इशारा कर रहा है
कि बड़े धोखे हैं इस राह में.