नव वर्ष में भारत के नए निम्न वर्ग से मिलना चाहेंगे आप! आईने के सामने खड़े जाइए. आम टैक्सपेयर नया स्थायी निम्न वर्ग है. हम टैक्स चुकाते नहीं, दरअसल सरकारें इसे हमसे वसूलती हैं. इसलिए भारत में आम लोग यह हिसाब भी नहीं कर पाते कि कितना टैक्स उनकी जेब से निकाल लिया जाता है.
अब जबकि मंदी हमें रौंद रही है तो एक बार टैक्स की हकीकत से आंख मिला ही लेनी चाहिए ताकि कुर्बानियों का हिसाब तो पता रहे.
टैक्सों की भूलभुलैया के लिए दो ही नमूने पर्याप्त हैं. यह दो उदाहरण दरअसल आम लोगों के दो सबसे बड़े सपने हैं. जो हाड़तोड़ टैक्सों की मिसाल हैं. यकीनन, हम घर या आवास और कार की बात कर रहे हैं, जिन्हें हासिल करने में पूरी उम्र निकल जाती है. कर्ज पर कर्ज हो जाता है. लेकिन क्या हमें पता है कि इन सपनों के लिए हम टैक्स पर टैक्स चुकाते हैं.
भारत का ऑटोमोबाइल उद्योग (दुनिया का चौथा सबसे बड़ा) देश की संगठित मैन्युफैक्चरिंग में 49 फीसद, जीडीपी में 7.5 फीसद का हिस्सा रखता है. यह भारत में सबसे ज्यादा टैक्स चुकाने वाला उद्योग भी है.
· ऑटोमोबाइल पर जीएसटी अलग-अलग वाहनों पर 5-12-18और 28 फीसद
· कारों पर जीएसटी कंपनसेशन सेस 1 से 22% तक
· पुरानी कारों पर जीएसटी
· कार लोन, बैंकिंग, बीमा सेवाओं पर जीएसटी
· राज्यों के वाहन रजिस्ट्रेशन टैक्स और दूसरी फीस
· पेट्रोल पर लगने वाली कस्टम, एक्साइज ड्यूटी और राज्यों का वैट
· फिर पेट्रोल-डीजल पर सड़क विकास सेस
· ऊपर से टोल टैक्स
· कार की सर्विस पर सर्विस टैक्स
· हर साल बीमा पर सर्विस टैक्स
वाहन वैसे भी उम्र के साथ कीमत गंवाने वाली संपत्ति होते हैं. आलसी और सूझबूझ विहीन सरकारों ने पिछले एक दशक में हमारे परिवहन को टैक्स निचोड़ने का सबसे बड़ा जरिया बना लिया है. क्या हम पूछना चाहेंगे कि इतना टैक्स चुकाने पर भी हमें बेहतर सार्वजनिक परिवहन क्यों नहीं मिलता?
अपनी छत की कहानी कुछ कम दर्द भरी नहीं है. टैक्स के बोझ से इस सपने की नींव हमेशा दरकती रहती है. भारत के घर लंबे समय के कर्ज के जरिए खरीदे जाते हैं और कदम-कदम पर टैक्स देना होता है.
· भवन निर्माण सामग्री पर भारी जीएसटी (5 से 28 फीसद), जो ग्राहक के मत्थे आता है
· निर्माण सेवाओं पर 8 से 18 फीसद जीएसटी
· मकानों के निर्माण पर जीएसटी एक (सस्ते घर) और पांच फीसद और बगैर इनपुट टैक्स क्रेडिट के 5 से 12 फीसद
· इसके बाद घर खरीदने पर राज्यों की ऊंची स्टाम्प ड्यूटी. यह टैक्स पर टैक्स की जानदार मिसाल है. शहरों में घर आमतौर पर सोसाइटी हाउसिंग स्कीमों या निजी बिल्डरों से मिलते हैं. घर खरीदने वाला दोहरा टैक्स देता है. बिल्डर और सोसाइटी सरकार को जमीन की खरीद पर जिस स्टाम्प ड्यूटी का भुगतान करती है वह फ्लैट की लागत में शामिल होती है और ग्राहक इसके ऊपर (कई जगह अलग-अलग मंजिल पर) स्टाम्प ड्यूटी चुकाता है
· सोसाइटी के मेंटेनेंस चार्जेज (7,500 रुपए प्रति माह से ज्यादा) पर 18 फीसद जीएसटी
· स्थानीय निकायों को दिए जाने वाले टैक्स
· घर बेचने पर भी टैक्स से मुक्ति नहीं है. बिक्री पर सरकार कैपिटल गेन टैक्स लेती है जो तभी माफ हो सकता है जब बिक्री के दो वर्ष के भीतर दूसरा घर खरीद कर निन्यायवे के फेर में फिर उतरा जाए
बाजार में मांग कम और आपूर्ति ज्यादा होने के कारण, अचल संपत्ति की कीमतें गिर रही हैं. अब घर खरीदना लंबे फायदे का सौदा नहीं है तब टैक्सों की मार इस सपने को बहुत महंगा कर रही है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का अगला दशक इसके टैक्स ढांचे पर निर्भर होगा जो हमारा सबसे पिछड़ा सुधार है. आयकरकानून में बदलाव के लिए आधा दर्जन समितियों की रिपोर्ट सरकार के पास हैं लेकिन टैक्स घटाने या बढ़ाने का तदर्थवाद जारी है. जीएसटी अपने ही बोझ तले बैठ गया है. राज्यों में टैक्स सुधार (स्टाम्प ड्यूटी, वाहन पंजीकरण आदि) अभी शुरू भी नहीं हो सके हैं.
मंदी खपत बढ़ाए बिना दूर नहीं होगी और खपत के लिए उपभोक्ताओं पर टैक्स का बोझ कम करना होगा. सरकार अच्छी तरह से जानती है कि कारोबार पर टैक्स लगाना नामुमकिन है, वे टैक्स चुकाते नहीं बल्कि टैक्स जुटाते हैं. कारोबार पर लगा प्रत्येक टैक्स कीमत में जुड़ कर हम तक आ जाता है.
टैक्स तो उपभोक्ता ही चुकाते हैं. लेकिन यहां तो मंदी के बीच जीएसटी की पालकी नए टैक्सों के बोझ के साथ हमारे कंधों पर रखी जाने वाली है. वजह?
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ठीक कहते थे, ‘‘लोग कम टैक्स नहीं चुकाते दरअसल हमारी सरकारें ही खर्चखोर हैं.’’