राजनेताओं की
सबसे बड़ी सुविधा खत्म हो रही है. लोगों की सामूहिक विस्मृति का इलाज जो मिल गया
है.
जॉर्ज ऑरवेल (1984) ने लिखा था कि
अतीत मिट गया है, मिटाने वाली रबड़
(इरेजर) खो गई है, झूठ ही अब सच है.
ऑरवेल के बाद दुनिया बहुत तेजी से बदली. अतीत मिटा नहीं, रबड़ खोई नहीं, झूठ को सच मानने
की उम्र लंबी नहीं रही.
लोगों की कमजोर
याददाश्त ही नेताओं की सबसे बड़ी नेमत है. लोगों का सामूहिक तौर पर याद करना और
भूलना दशकों तक नेताओं के इशारे पर होता था लेकिन अब बाजी पलटने लगी है. अचरज नहीं
कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए. सरकारें सोशल
मीडिया सहित इंटरनेट के पूरे परिवार से बुरी तरह खफा होने लगी हैं.
इंटरनेट लोगों का
सामूहिक अवचेतन है. यह न केवल करोड़ों लागों की साझी याददाश्त है बल्कि इसकी ताकत
पर लोग समूह में सोचने व बोलने लगे हैं.
तकनीकें आम लोगों
के लिए बदली हैं, राजनीति के
तौर-तरीके तो पुराने ही हैं. झूठ और बड़बोलापन तो जस के तस हैं. दूरदर्शिता और दूर
की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा और धुंधली हो गई है.
राजनेता चाहते
हैं:
· लोग उन्हें समूह में सुनें लेकिन अकेले में सोचें.
· अगर समूह में सोचें तो सवाल न करें.
· अगर सवाल हों तो उन्हें दूसरे समूहों से साझा न करें.
· सवाल अगर सामूहिक भी हों तो वे केवल इतिहास से पूछे
जाएं, वर्तमान को केवल
धन्य भाव से सुना जाए.
दकियानूसी
राजनीति और बदले हुए समाज का रिश्ता बड़ा रोमांचक हो चला है. इस चपल, बातूनी, बहसबाज और खोजी
समाज पर कभी-कभी नेताओं को बहुत दुलार आता है लेकिन तब क्या होता है जब यही समाज
पलट कर नेताओं के पीछे दौड़ पड़ता है. लोगों की सामूहिक डिजिटल याददाश्त अब
राजनीति के लिए सुविधा नहीं बल्कि समस्या है.
अकेलों के समूह
राजनैतिक रैलियां
अप्रासंगिक हो चली हैं. भारी लाव-लश्कर, खरीद या खदेड़ कर रैलियों में लाए गए लोग जिनमें समर्थकों
या विरोधियों की पहचान भी मुश्किल है. तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से नेताओं को
उनके जिंदाबादियों से जोड़ सकती है. इसके बाद भी रैलियां पूरी दुनिया में होती
हैं.
नेता चुपचाप बैठी
भीड़ से खिताब करना चाहते हैं. यही उनकी ताकत का पैमाना है. रैली राजनीति के
डिजाइन के अनुसार लोगों को सिर्फ सुनना चाहिए. लेकिन अब लोग सुनते ही नहीं, समूह या नेटवर्क
में सोचते भी हैं. वे अपनी साझी याददाश्त से किस्म-किस्म के तथ्य निकाल कर सवालों
के जुलूस को लंबा करते चले जाते हैं.
आंकड़े बनाम
अनुभव
‘अपनी तरह का पहला’, ‘अभी तक का सबसे
बड़ा’, ‘देश के इतिहास
में पहली बार’—अब, नेताओं के भाषण
इनके बिना नहीं होते. पिछली पीढ़ी के राजनेता इतने आंकड़े नहीं उछालते थे. अब तो
कच्चे-पक्के, खोखले-पिलपिले
आंकड़ों के बिना समां ही नहीं बंधता. शायद इसलिए कि लोग आंकड़े समझने लगे हैं और
वे समूह में सोचें तो इनका इस्तेमाल कर सकें.
मुसीबत यह है कि
लोगों के अनुभव आंकड़ों से ज्यादा ताकतवर हैं. भोगा हुआ विकास, बतलाए गए विकास
पर भारी पड़ता है. इसलिए जब लोगों के निजी और अधिकृत एहसास, सामूहिक चिंतन
तंत्र (सोशल नेटवर्क) पर बैठ आगे बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़ों की साख का कचरा बन
जाता है.
इतिहास का चुनाव
यूनिवर्सिटी ऑफ
शिकागो के प्रोफेसर जॉन जे. मियरशीमर, राजनेताओं के झूठ का (पुस्तक: व्हाई लीडर्स लाइ) अध्ययन
करते हैं. उनके मुताबिक, इतिहास, राजनैतिक झूठ का
सबसे कारगर कारिंदा है. इसके सहारे खुद को महान और अतीत को बुरा बताना आसान है.
इतिहास के सहारे एक लक्ष्यनहीन गुस्से को लंबे वक्त तक सिंझाया जा सकता है. इतिहास
है तो वर्तमान मुसीबतों पर उठ रहे सवालों के जवाब गुजरे वक्त से मांगे जा सकते
हैं.
राजनेता चाहते
हैं इतिहास के चयन में उनकी बातें मानी जाएं. अलबत्ता नेता यह भूल जाते हैं कि वे
खुद भी तो प्रतिक्षण इतिहास गढ़ रहे हैं. लोग इतिहास अपनी सुविधा से चुनते हैं
जिसमें अक्सर नेताओं का ताजा इतिहास सबसे लोकप्रिय पाया जाता है.
राजनीति गहरी
मुश्किल में है. लोग नहा-धोकर सियासी झूठ के पीछे पड़े हैं. झूठ पकडऩा अब एक
रोमांचक पेशा है. लोगों की उंगलियां प्रति सेकंड की रक्रतार से सवाल उगल रही हैं.
लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा युग और क्या हो सकता है.
सुनो जिक्र है कई
साल का, कोई वादा मुझ से
था आप का
वो निभाने का तो जिक्र
क्या, तुम्हें याद हो
के न याद हो