बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
बीजेपी शासित राज्यों का मुख्यमंत्री होने के अलावा आनंदीबेन
पटेल, देवेंद्र फड़ऩवीस, मनोहर लाल खट्टर, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान
और रमन सिंह के बीच एक और बड़ी समानता है. ये सभी मिलकर गुड गवर्नेंस और प्रगतिगामी
राजनीति की उस चर्चा को पटरी से उतारने में अब सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं जो
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई थी. दरअसल, राज्यों को नई
गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वे अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी बन रहे
हैं.
कांग्रेस अपने दस
साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए बुरी तरह तरसती रही, वह बीजेपी को यूं
ही मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब 11 राज्यों
में उस गठबंधन की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
बात केवल राजनैतिक समन्वय की ही नहीं है, विकास की संभावनाओं के पैमाने पर भी मोदी के
पास शायद सबसे अच्छी टीम है.
राज्यों में
विकास के पिछले आंकड़ों और मौजूदा सुविधाओं को आधार बनाते हुए मैकेंजी ने अपने एक
अध्ययन में राज्यों की विकास की क्षमताओं को आंका है. देश के 12 राज्य (दिल्ली, चंडीगढ़, गोआ, पुदुचेरी, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उतराखंड) देश का 50 फीसदी जीडीपी
संभालते हैं, जिनमें देश के 58 फीसदी उपभोक्ता
बसते हैं. इन 12 राज्यों में
पांच में बीजेपी और सहयोगी दलों की सरकार देश का लगभग 25 फीसद जीडीपी
संभाल रही हैं. तेज संभावनाओं के अगले पायदान पर आने वाले सात राज्यों (आंध्र
प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, बंगाल, ओडिसा) को शामिल
कर लिया जाए तो 19 में नौ बड़े राज्य और देश का लगभग 40 फीसद जीडीपी
बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की सरकार के हवाले है. मैकेंजी ने आगे जाकर 40 फीसदी जीडीपी
संभालने वाले 65 शहरी जिलों को
भी पहचाना है. इनमें भी एक बड़ी संख्या बीजेपी के नियंत्रण वाली स्थानीय सरकारों की
है.
आदर्श स्थिति में
यह विकास की सबसे अच्छी बिसात होनी चाहिए थी. कम से कम इन राज्यों, उद्योग क्लस्टर
और शहरी जिलों के सहारे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियान
जमीन पर उतरने चाहिए थे, लेकिन पिछले 15 महीनों में इन राज्यों गुड गवर्नेंस के एजेंडे
को भटकाने में कोई कमी नहीं छोड़ी. मध्य प्रदेश में हर कुर्सी के नीचे घोटाला
निकलता है. महाराष्ट्र सरकार ने घोटालों से शुरुआत की और प्रतिबंधों को गवर्नेंस
बना लिया. हरियाणा में विकास की चर्चाएं पाबंदियों और स्कूलों में गीता पढ़ाने जैसी
उपलब्धियों में बदल गई हैं. दिलचस्प है कि राज्यों ने भले ही केंद्र की नई
शुरुआतों को तवज्जो न दी हो लेकिन बड़े प्रचार अभियानों में केंद्र के मॉडल को
अपनाने में देरी नहीं की.
उद्योगपतियों के
साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक में यह बात उभरी कि कारोबार को सहज करने के अभियान
राज्यों की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं. औद्योगिक व कारोबारी मंजूरियों को आसान व
एकमुश्त बनाने का अभियान पिछड़ गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि
कारोबार को सहज बनाना एक हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है जबकि मेक इन इंडिया की
शुरुआत करते समय सरकार ने सभी मंजूरियों को एकमुश्त करने के लिए एक साल का समय रखा
था. केंद्र सरकार के अधिकारी अब इसके लिए कम से कम तीन साल का समय मांग रहे हैं तो
सिर्फ इसलिए क्योंकि औरों को तो छोड़िए, बीजेपी शासित राज्यों ने भी इस अभियान को भाव
नहीं दिया.
मेक इन इंडिया ही
नहीं, मंडी कानून बदलने
को लेकर बीजेपी के अपने ही राज्यों ने केंद्र की नहीं सुनी. डिजिटल इंडिया पर
राज्य ठंडे हैं. आदर्श ग्राम और स्वच्छता मिशन जैसे अभियानों में कैमरा परस्ती
छवियों के अलावा राज्यों की सक्रियता नहीं है. प्रशासनिक सुधार, राज्य के
उपक्रमों का विनिवेश और पारदर्शिता बढ़ाने वाले फैसलों की बजाए राज्यों ने सरकारी
नियंत्रण बढ़ाने और लोकलुभावन स्कीमों के मॉडल चुने हैं जो निवेशकों और युवा आबादी
की उम्मीदों से कम मेल खाते हैं.
मोदी सरकार ने इस
साल के बजट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, नगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी
पूरी तरह राज्यों को सौंप दी और केंद्र को केवल संसाधन आवंटन तक सीमित कर लिया.
इसका नतीजा है कि 15 महीने में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा
जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा शून्य दिख रहा है. सामाजिक सेवाओं में केंद्र परोक्ष भूमिका
निभाना चाहता है जबकि राज्यों के पास संसाधनों की नहीं बल्कि नीतिगत क्षमताओं की
कमी है. इसलिए शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया
है. बीजेपी के नेता भी मान रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरी
तरह राज्यों पर छोडऩे के राजनैतिक नुक्सान होने वाले हैं.
मोदी के सत्ता
में आने से पहले और बाद में बनी राज्य सरकारें अपेक्षाओं की कसौटी पर कमजोर पड़ रही
हैं, जबकि कुछ बड़े
राज्य या तो केंद्र से रिश्तों में हाशिए पर हैं या फिर चुनाव की तैयारी शुरू कर
रहे हैं. पूरे देश में करीब दस प्रमुख राज्य ऐसे हैं जिनकी सरकारों के पास समय, संसाधन और
संभावनाएं मौजूद हैं और इनमें अधिकांश बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की हैं. “इंडिया” ब्रांड और अभियानों को
नतीजों से सजाने का दारोमदार इन्हीं पर है लेकिन किस्म-किस्म के प्रतिबंधों और अहमक फैसलों की दीवानी इन सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के
सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
चुनावी राजनीति
का कोई अंत नहीं है. 2016 का चुनाव कार्यक्रम इस साल से ज्यादा बड़ा है. प्रधानमंत्री
को चुनावी राजनीति से अलग अपनी गवर्नेंस के मॉडल को नए सिरे से फिट करना होगा और राज्यों को बड़ी व ठोस
योजनाओं से बांधना होगा नहीं तो बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन अगर राज्य
सरकारें चूकीं तो निवेश, विकास और रोजगार की रणनीतियां बुरी तरह उलटी पड़ जाएंगी.