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Saturday, April 9, 2022

कंपन‍ियां डुबाने की आदत

 


 

स्‍पाइस जेट के विमान में ताजा ट्रेंड पर इंस्‍टारील बना रही एयरहोस्‍टेस को पता ही नहीं होगा कि उसकी कंपनी के वित्‍तीय खातों में धांधली के सवाल क्‍यों उठ रहे हैं. क्‍यों ब्‍लैकरॉक , जो दुनिया की सबसे बडी एसेट मैनेजर ने कंपनी है उसने स्‍पाइस जेट में वित्‍तीय अपारदर्शिता के सवाल उठाये हैं. सवाल ही नहीं उसने तो कंपनी की ऑडिट कमेटी में चेयरमैन के खास प्रत‍िन‍िध‍ि नियुक्‍त करने के प्रस्‍ताव पर भी वीटो ठोंक दिया है  

पता तो जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को भी नहीं चला था कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी जिंदगी का सब कुछ डूब गया.

भारत में अब दो तरह की कंपन‍ियां हैं एक जिनके फ्रॉड और तमाम धतकरम हमें पता हैं दूसरी वह कंपन‍ियां जिनके भीतर घोटाले तो हैं लेक‍िन हमे जानकारी नहीं है.

देश का सबसे ख्‍यात आधुन‍िक स्‍टॉक एक्‍सचेंज भी तो एक कंपनी ही है जिसने खास ब्रोकरों को आम निवेशकों से पहले बाजार में कारोबार करने की तकनीकी सुव‍िधा देकर देश की साख मिट्टी में मिला थी. पारदर्श‍िता जिस एक्‍सचेंज की बुनियादी जरुरत है उसे कोई रहस्‍यमय गुरु चला रहा था !

 

यह सूरते हाल उतनी ही निराश करती है जितनी क‍ि हताश करती है भारत की राजनीति! यानी क‍ि सत्‍यम के घोटाले यानी 2009 के बाद भारत में कुछ भी नहीं बदला.

सत्‍यम ही क्‍यों ? क्‍यों कि इसे भारत का एनरॉन मूमेंट कहा गया था.

एबीजी श‍ि‍पयार्ड जैसों की खबरें पढ़ने के बाद किसी को कागज़ी कंपन‍ियां, खातों में हेराफेरी, कर्ज को छ‍िपाने जैसे धतकरम सामान्‍य नज़र आएंगे. एनरॉन ने भी यही किया था लेक‍िन  वाल स्‍ट्रीट की डार्ल‍िंग एनरॉन के सन 2000 अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े फर्जीवाड़े में पकडे जाने के बाद सरकार थरथरा गई. अमेरिका ने  एनरॉन जैसा घोटाला नहीं देखा था नियामक शार्मिंदा हुए. राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश की बड़ी किरक‍िरी हुई.

अमेरिका में कंपनियों के लिए बेहद सख्‍त सरबेंस ऑक्‍सले एक्‍ट आया. पारदर्श‍िता के कठोर नियम तय क‍िये गए. अकाउंट‍िंग की प्रणाली बदली गई. इसके बाद कारपोरेट दुनिया में बहुत कुछ बदल गया. ठीक इसी तरह लेहमैन ब्रदर्स डूबा  तो डॉड फ्रैंक कानून लाया गया था.

पूरी दुनिया में कंपनी फ्रॉड, भ्रष्‍टाचार, फर्जीवाड़े को लेकर सक्रियता बढी, कानून बदले और सख्‍ती बढ़ी. इसके बाद से कम से कम यह अर्थात लिखे जाने तक तो अमेरिका में एनरॉन या लेहमैन नहीं दोहराया गया ..

भारत में भी सत्‍यम घोटाले के बाद बहुत कुछ बदला था.  तत्‍कालीन कैबिनेट सच‍िव नरेश चंद्रा की अध्‍यक्षता में एक सम‍ित‍ि की सिफार‍िश पर कारपोरेट गवर्नेंस की नई व्‍यवस्‍था आई थी. नैसकॉम  की समिति ने ऑड‍िट, शेयरधारकों के अध‍िकार घोटाले की सूचना देने वाले (व्‍हि‍सल ब्‍लोअर) के संरंक्षण के नियम सुझाये गए.

सेबी की अकाउंट‍िंग व डिस्‍क्‍लोजर कमेटी ने शेयरों को बाजार में सूचीबद्ध कराने के लिए नियमों (आर्ट‍िक‍िल 49) बदलाव किये.

कंपनी कानून में बदलाव कर कारपोरेट फ्रॉड को आपराधिक मामलों में शाम‍िल किया गया. धोखाधड़ी रोकने के लिए निदेशकों नई जिम्‍मेदारी तय की गई. चार्टर्ड अकाउंटेंट इंस्‍टीट्यूट ने फ्रॉड की रिपोर्ट‍िंग के नया न‍ियम बनाये और यहां तक क‍ि और वित्‍तीय मामलों की जांच का सीबीआई यानी सीरियस फ्रॉड ऑफ‍िस बनाया गया ...

सबसे बड़ा बदलाव ऑडिट को लेकर हुआ था. कहते हैं अगर आंकड़ों से पूछताछ की जाए तो वह सच उगल देते हैं. इसलिए भारत में फोरेंस‍िक ऑडिट की शुरुआत हुई.  पंजाब नेशनल बैंक के साथ नीरव मोदी का फ्रॉड हो या आईएलएफस के खातों में हेरफेर या क‍ि एबीजी शिपयार्ड की फर्जी कंपनियां यह सब पता चला जब ऑडिटर्स और रेटिंग एजेंसियों की चोरी व धोखाधड़ी पकड़ने के लिए फोरेंस‍िक ऑड‍िट शुरु हुए.  यहां तक कि नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज का वह रहस्‍यमय गुरु भी इसी ऑड‍िट के सहारे दस्‍तावेजों की गुफा से बाहर निकला है.

 

ऑडिट की यह किस्‍म खातों में आपराध‍िक हेरफेर, पैसे के अवैध लेन देन और फ्रॉड के प्रमाणों को अदालत तक ले जाने पर आधार‍ित है. रिजर्व बैंक 2016 तक इस ऑडिट के नियम दुरुस्‍त कर दिये थे. फंसे हुए कर्ज के बड़े मामलों की फोरेंस‍िक जांच जरुरी बना दी गई. सेबी ने लगातार न‍ियमों को चुस्‍त किया. 2020 के सबसे ताजे आदेश में कंपन‍ियों पर फ्रॉड रोकने के नए नियम बनाने और अकाउंट‍िंग में बदलाव की शर्तें लगाईं गईं.

 

यहां तक आते आते आपको बेचैनी महसूस होने लगी होगी क्‍यों क‍ि अगर नसीहतें ली गईं थी, कानून बदले गए थे. यद‍ि कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम इतने चुस्‍त  हैं तो फिर कंपन‍ियां डुबाने हेाड़  क्‍यों लगी है ?

जेट एयरवेज, एडीएजी (अनिल अंबानी समूह),  वीडियोकॉनसहारामोदीलुफ्तरोटोमैकजेपी समूहनीरव मोदीगीतांजलि जेम्सजेट एयरवेजकिंगफिशर,  यूनीटेकआम्रपालीआइएलऐंडएफएस, स्टर्लिंग बायोटेकभूषण स्टील, कैफे कॉफी डे, एबीजी शिपयार्ड  ..... एसा लगता हैं क‍ि  भारत के निजी प्रवर्तक तो आत्मघाती हो गए हैं. 

 

घोटाले के केवल सुर्खि‍यों में ही नहीं आंकड़ों में भी दिखते हैं. रिजर्व बैंक के दस्‍तावेज बताते हैं कि कुल बैंक फ्रॉड में सबसे बड़ा हिस्‍सा कर्ज से जुड़े मामलों का था और 2017-18 से 2018-19 के बीच तीन गुना बढ़ गए. यानी 2.52 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 6.45 लाख करोड़.

आख‍िर वजह क्‍या है कि इतने सब कानूनी उपायों के बावजूद प्रत्‍येक उद्योग में घोटालों की झड़ी लगी है. सत्‍यम से लेकर एबीजी श‍िपयार्ड और नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज तक अगर सभी घोटालों को करीब से देखा जाए तो सबमें एक ही जैसे तरीके,कारगुजारी और फर्जीवाड़ा दिखता है

1. बैंकों से कर्ज लेकर फर्जी कंपनियों में घुमा देना और कुछ का कुछ कारोबार करना

2. कर्ज को छ‍िपा कर नया कर्ज लेते रहना

3. कभी कमाई तो कभी खर्च को बढाचढ़ाकर दिखाना

4. कंपनी के खातों में तरह तरह से हेरफेर

5. नियामकों को सही सूचना देने बचना

6. ऑडिटर्स बेइमानी जो कि दरसअल सच बताने के लिए लगाये जाते हैं

 

ऊपर के छह ब‍िंदुओं में एक भी एसा नहीं जिसके लिए नियमों में लोचा हो. अगर कंपनी के मालिक प्रबंधक चाहें तो यह सब रुक सकता है लेक‍िन फर्जीवाड़ा कंपनियों के प्रवर्तक खुद कर रहे हैं. राजनीतिक रसूख, नियामकों से लेनदेन और बैंकरों की मिलीभगत इसमें सबसे ज्‍यादा लूट बैंकों के पैसे की होती है, प्रवर्तक तो अपनी पूंजी जोख‍िम में डालता ही नहीं.

इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहींयेस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने कई सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बैंक का बोर्ड सोता रहा

भारतीय कंपनियों के प्रमोटरपैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैंआम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाईजिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था

ताकतवर प्रमोटरबैंकरेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैंनियामक ऊंघते रहते हैंकिसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

 

इसल‍िए बीते एक दशक में भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैंया समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शनहुआ है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसलयह तिहरा विनाश है.

एकशेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैंजैसेकई  दिग्गज  कंपनियों के शेयर अब पेनी स्‍टॉक बन गए हैं

दोइनमें बैंकों की पूंजी डूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसराअचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, .

कंपनियों में खराब गवर्नेंस पर सरकारें फिक्रमंद नहीं होतीं. उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब हैप्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहींडूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्जमरती है बाजार में प्रतिस्पर्धाजाहिर है कि इससे किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

सनद रहे कि कंपनियों का बुरा प्रबंधनखराब सरकार से ज्‍यादा सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों का खराब प्रबंधन उन्‍हें डुबा ही देता है.

भारत पूंजीवाद की साख बुरी तरह दागी हो रही है, अगर कंपन‍ियों ने कामकाज को पारदर्शी नहीं क‍िया तो सुधारों और मुक्‍त बाजार से लोगों की चिढ़ और बढ़ती जाएगी.

 

Monday, December 6, 2021

वाह सुधार, आह सुधार


इतिहास स्‍वयं को हजार तरीकों से दोहराता रह सक‍ता है. लेकि‍न संदेश हमेशा बड़े साफ होते हैं. इतने साफ क‍ि हम माया सभ्‍यता की स्‍मृ‍त‍ियों को भारत में कृषि‍ कानूनों की वापसी के साथ महसूस कर सकते हैं. अब तो पुराने नए सबकों का एक पूरा कुनबा तैयार है जो हमें  इस सच से आंख मिलाने की ताकत देता है क‍ि चरम सफलता व लोकप्र‍िता के बाद भी, शासक और सरकारें हकीकत से कटी पाई जा सकती हैं

स्‍पेनी हमलावर नायकों पेड्रो डी अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को भले ही माया सभ्‍यता को मिटाने का तमगा या तोहमत म‍िला हो लेक‍िन  अल्‍वराडो 16 वीं सदी की शुरुआत में जब यूटेलटान (आज का ग्‍वाटेमाला) पहुंचा तब तक महान माया साम्राज्‍य दरक चुका था. शासकों और जनता के बीच व‍िश्‍वास ढहने  से इस सभ्‍यता की ताकत छीज गई थी.  माया नगर राज्‍यों में सत्‍ता के ज‍िस केंद्रीकरण ने भाषा, ल‍िप‍ि कैलेंडर, भव्‍य नगर व भवन के साथ यह चमत्‍कारिक सभ्‍यता (200 से 900 ईसवी स्‍वर्ण युग) बनाई थी उसी में केंद्रीकरण के चलते शासकों ने आम लोगों खासतौर पर क‍िसानों कामगारों से जुडे एसे फैसले क‍िये जिससे भरोसे का तानाबाना बिखर गया. इसके बाद माया सम्राट केइश को हराने में अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा. 

2500 वर्ष में एसा  बार बार होता रहा है क‍ि शासक और सरकारें अपनी पूरी सदाशयता के बावजूद वास्‍तविकतायें समझने में चूक जाती हैं, व्‍यवस्‍था ढह जाती हैं और बने बनाये कानून पलटने पड़ते हैं. एक साल बाद कृषि‍ कानूनों को वापस लेने की चुनावी व्‍याख्‍या तो कामचलाऊ है. इन्‍हें गहराई में जाकर देखने पर सवाल गुर्राता है क‍ि बड़े आर्थि‍क सुधारों से लोग सहमत क्‍यों नहीं हो रहे?

भारत में राजनीतिक खांचे इतने वीभत्‍स हो चुके हैं क‍ि नीत‍ियों की सफलता-व‍िफलता पर न‍िष्‍पक्ष शोध दुर्लभ हैं.  अलबत्‍ता इस  मोहभंग की वजहें तलाशी जा सकती हैं . बीते एक दशक से आईएमएफ यह समझने की कोशिश कर रहा है क‍ि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में सुधार पटरी से क्‍यों उतर जाते हैं. 

व‍िश्‍व बैंक और ऑक्‍सफोर्ड यून‍िवर्सिटी का  ताजा अध्‍ययन,  (श्रुति‍ खेमानी 2020 )  भारत में कृषि‍ सुधारों की पालकी लौटने के संदर्भ में बहुत कीमती है. इस अध्‍ययन ने पाया क‍ि दुन‍िया में सुधारों का पूरा फार्मूला केवल तीन उपायों में सि‍मट गया है. एक है न‍िजीकरण, दूसरा और कानूनों का उदारीकरण और  सब्‍सिडी खत्‍म करना. दुनिया के अर्थव‍िद इसे  हर मर्ज की संजीवनी समझ कर चटाते हैं.  मानो सुधारों का मतलब स‍िर्फ इतना ही हो.

राजनीति‍ लोगों की नब्‍ज क्‍यों नहीं समझ पाती ? अर्थव‍िद अपने स‍िद्धांत कोटरों से बाहर क्‍यों नहीं न‍िकल पाते? सुधार उन्‍हीं को क्‍येां डराते हैं जिनको इनका फायदा मिलना चाह‍िए? जवाब के ल‍िए असंगति की  इस गुफा में गहरे पैठना जरुरी है. सुधारों की परिभाषा केवल जिद्दी तौर सीम‍ित ही नहीं हो गई है बल्‍क‍ि इनके केंद्र में आम लोग नजर नहीं आते. भले ही यह फैसले बाद में बडी आबादी को फायदा पहुंचायें   लेक‍िन इनके आयोजन और संवादों के मंच पर में  कं  पनियां‍ और उनके एकाध‍िकार दि‍खते हैं  जैसे क‍ि बैंकों के निजीकरण की चर्चाओं के केंद्र में जमाकर्ता या बैंक उपभोक्‍ता को तलाशना मुश्‍क‍िल है. कृष‍ि सुधारों का  आशय तो किसानों की आय बढाना था लेक‍िन उपायों के पर्चे पर नि‍जीकरण, कारपोरेट वाले चेहरे छपे थे. इसलिए सुधार ज‍िनके ल‍िए बनाये गए थे वही लोग बागी हो गए.

भारत ही नहीं अफ्रीका और एशि‍या के कई देशों में कृषि‍ सुधार सबसे कठ‍िन पाए गए हैं. कृषि‍ दुन‍िया की सबसे पुरानी नि‍जी आर्थ‍िक गति‍वि‍ध‍ि है. सद‍ियों से लोकमानस में यह संप त्‍ति‍ के मूलभूत अध‍िकार और व जीविका के अंति‍म आयोजन के तौर पर उपस्‍थि‍त है. उद्योग, सेवा या तकनीक जैसे किसी दूसरे आर्थ‍िक उत्‍पादन  की तुलना में खेती बेहद व्‍यक्‍त‍िगत, पार‍िवार‍िक और सामुदाय‍िक  आर्थ‍िक उपार्जन है. कृषि‍ सुधारों का सबसे सफल आयोजन चीन में हुआ लेक‍िन वहां भी इसलि‍ए क्‍यों क‍ि देंग श्‍याओ पेंग ने (1981)  कृषि‍ के उत्‍पादन व लाभ पर किसानों का अधिकार सुन‍िश्‍च‍ित कर दि‍या.

 

आर्थ‍िक सुधार  पहले चरण में  बहुत सारी नेमतें बख्शते हैं. जैसे क‍ि 1991 के सुधार से भारत को बहुत कुछ मिला. लेक‍िन प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होताआर्थि‍क सुधार दूसरे चरण में  कुर्बान‍ियां मांगते हैं.  इसके ल‍िए  सुधारों के विजेताओं और हारने वालों के ईमानदार मूल्‍यांकन चाह‍िए.   अर्थशास्‍त्री मार्केट सक्‍सेस की दुहाई देते हैं मगर मार्केट फेल्‍योर (बाजार की विफलताओं) पर चर्चा नहीं करते. जिसके गहरे तजुर्बे आम लोगों के पास हैं इसलिए सरकारी नीति‍यो के अर्थशास्‍त्र पर आम लोगों का अनुभवजन्‍य अर्थशास्‍त्र भारी पड़ने लगा है.

सुधारों से च‍िढ़ बढ़ रही है  क्‍यों क‍ि सरकारें इन पर बहसस‍िद्ध सहमत‍ि नहीं बनाना चाहतीं.  जीएसटी हो या कृषि‍ बिल सरकार ने उनके सवाल ही नहीं सुने जिनके ल‍िए इनका अवतार हुआ था. सनद रहे क‍ि लोगों को सवाल पूछने की ताकत देने की ज‍िम्‍मेदारी भी सत्‍ता की है. शासन को ही यह तय करना होता है कि ताकत का केंद्रीकरण किस सीमा तक क‍िया जाए और फैसलों में लोगों की भागीदारी क‍िस तरह सुन‍िश्‍चि‍त की जाए.

दूसरे रोमन सम्राट ट‍िबेर‍ियस (42 ईपू से 37 ई) ने फैसले लेने वाली साझा सभा को समाप्‍त  कर दि‍या और ताकत सीनेट को दे दी. इसके बाद ताकत का केंद्रीकरण इस कदर बढ़ा कि आम रोमवासी अपने संपत्‍ति‍ अध‍िकारो को लेकर आशंक‍ित होने लगे. अंतत: गृह युद्धों व बाहरी युद्धों से गुजरता हुआ रोमन साम्राज्‍य करीब 5वीं सदी में ढह गया ठीक उसी तरह जैसा क‍ि माया सभ्‍यता में हुआ था.

बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी हैमंदी से टूटे  लोग कमाई और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी के प्रमाण व उपाय चाहते हैं.  यही वजह है क‍ि विराट प्रचार तंत्र के बावजूद सरकार लोगों को सुधारों के फायदे नहीं समझा पाती.  सुधारों की भाषा उनके ल‍िए ही अबूझ हो गई जिनके ल‍िए उन्‍हें  गढ़ा जा रहा  है . सरकारें और उनके अर्थशास्‍त्री जिन्‍हें सुधार बताते  हैं जनता उन्‍हें अब सत्‍ता का अहंकार समझने लगी है.

कृषि कानूनों की दंभजन्‍य घोषणा पर ज‍ितनी चिंता थी उतनी ही फ‍िक्र  इनकी वापसी पर भी होनी चाह‍िए  जो सरकारों से विश्‍वास टूटने का प्रमाण है. भारत को सुधारों का क्रम व संवाद  ठीक करना होगा ताकि ईमानदार व पारदर्शी बाजार में भरोसा बना रहे. सनद रहे क‍ि गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैंबाजार नहींमुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी होवह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं बन सकती.

 


Friday, May 22, 2020

फिर चूक गए!


लॉकडाउन में कुछ घंटे के लिए दूध ब्रेड की दुकान खोलने वाले नत्थू को इतना तो पता ही है कि अगर मांग नहीं होगी तो धंधा नहीं चलेगा. लाइन में लगे लोगों से सुनकर वह जान गया है कि तनख्वाहें कट रही हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार की राहत का सच भी उसने ग्राहकों से सुन ही लिया है, वह समझ गया है कि दुकान में ज्यादा माल रखने का नहीं.

20 लाख करोड़ रुपए का पैकेज गढ़ती सरकार को पता है कि भारत को इस समय केवल मांग चाहिए, जो कोविड से पहले अधमरी थी और अब पूरी तरह ढह गई है. मांग उम्मीद का उत्पाद है. लोग भविष्य के प्रति आश्वस्त होंगे तो खरीद-खपत का पहिया घूम सकेगा. भारत ने अपने ताजा इतिहास में इतनी भयानक बेकारी या कमाई में ऐसी कमी कभी नहीं देखी. किसी भी सरकार के लि यह वक्त तो रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक देने का है लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत सरकार की वरीयता पर ही नहीं है!  

21 लाख करोड़ रुपए (अधिकांश बैंक कर्ज या गारंटी ) पर फिदा होने वालों को पता चले कि 20 क्या 40 लाख करोड़ रुपए का सरकारी पैकेज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को स्टार्ट नहीं कर सकता. जिसकी विकास दर शून्य से नीचे जा रही है. 200 लाख करोड़ रुपए की अर्थव्यवस्था में करीब 120 लाख करोड़ रुपए (60 फीसद) का हिस्सा आम लोगों की खपत से आता है. सरकार तो 20 फीसद से भी कम की हिस्सेदार है.

होना क्या चाहिए था?

सरकार को बगैर देर किए संगठित क्षेत्र में रोजगार संरक्षण यानी वेतन सहायता कार्यक्रम (पे चेक प्रोटेक्शन) कार्यक्रम शुरू करने चाहिए.

वेतन संरक्षण! क्या मतलब?

अमेरिका यूरोप के देश मंदी से इसलिए बेहतर लड़ पा रहे हैं कि क्योंकि वहां सरकारें कंपनियों को नौकरी बनाए रखने और वेतन काटने के लिए सीधी मदद करती हैं. अमेरिका में छोटी कंपनियों के लिए 349 अरब डॉलर के कार्यक्रम के तहत सस्ती दर पर कर्ज दिया जाता है. कंपनियां निर्धारित सीमा के तहत कर्मचारियों के वेतन रोजगार संरक्षित करती हैं. कर्ज पर उन्हें केवल ब्याज देना होता है.

जाइए जी, हम अमेरिका नहीं हैं

झारखंड की सरकार 2016 में कपड़ा उद्योग के लिए एक स्कीम लाई थी जिसमें तनख्वाहों का 40 फीसद खर्च सरकार उठाती थी. इसे खासा सफल पाया गया था.

तो क्या सरकार बजट से निजी कर्मचारियों को वेतन बांटेगी? 

सस्ते बैंक कर्ज का इस्तेमाल यहां होना चाहिए. बॉन्ड, अन्य तरीकों से कंपिनयों को सस्ता कर्ज पहुंचाया जा सकता है. जिससे वे रोजगार बचाएं और वेतन काटें. कंपनियों को टैक्स की रियायत (कॉर्पोरेट टैक्स में 1.75 लाख करोड़ रुपए की ताजा कटौती) या कर्ज भुगतान से छूट की बचत को वेतन में इस्तेमाल करने की शर्त से बांधने में क्या हर्ज है?

लेकिन फायदा तो केवल संगठित कामगार को मिलेगा?

संगठित क्षेत्र के एक रोजगार पर चार असंगठित कामगार निर्भर होते हैं. अगर संगठित क्षेत्र करीब 4.5 करोड़ (भविष्य निधिवाले) कर्मचारियों को नौकरी और वेतन की सुरक्षा मिले तो उनके खर्च से प्रमुख शहरों में असंगठित (घरेलू सहायक, चालक, खुदरा विक्रेता) बहुत से कामगारों की जीविका बचेगी. अन्य असंगठित कर्मचारियों को बजट से सीधी मदद दी जा सकती है. संगठित क्षेत्र में रोजगार वेतन जारी रहने से मांग बनेगी जो रोजगारों का आधार है.

तो कंपनियां वेतन संरक्षण सहायता क्यों नहीं मांगतीं?

यही कुचक्र है. भारतीय कंपनियां हमेशा कर्ज माफी और टैक्स रियायत मांगती हैं. सरकार ने कोविड राहत पैकेज में यह दे भी दिया. रियायतें उनके मुनाफे का हिस्सा हो जाती हैं. कुछ मुनाफा राजनैतिक चंदा बनकर लौट जाता है.

भारत में ज्यादातर वेतन अच्छे नहीं हैं. अगली तनख्वाह आए तो बिल चुकाना मुश्कि. कंपनियां अपने मुनाफे कामगारों से नहीं बांटतीं और पहले मौके पर रोजगार खत्म हो जाते हैं.

भारत में उद्योग केवल 68 फीसद क्षमता (2008 के बाद न्यूनतम) का इस्तेमाल कर रहे हैं. इस मंदी में कर्ज लेकर वह नया निवेश तो करने से रहे. कोविड के सहारे वे टैक्स बचा लेंगे, कर्ज का भुगतान टाल देंगे और रोजगार घटा देंगे.
इस वक्त जब सब कुछ केवल जीविका बचाने पर केंद्रित होना चाहिए था तब सरकार ने रोजगार गंवाने वालों को 
आत्मनिर्भरता का ज्ञान दिया है

1930 की महामंदी के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को सलाह देने वाले अर्थविद जॉन मेनार्ड केंज के सिद्धांत यूं ही आर्थिक नीतियों का प्राण नहीं बन गए. उन्होंने सिखाया कि रोजगार ही मांग की गारंटी है, लोग खर्च तभी करते हैं जब उन्हें पता हो कि अगले महीने पैसा आएगा. भारत में यह भरोसा टूट गया है.

लॉकडाउन खुलने के बाद भारत में हजारों लोग काम पर नहीं लौटेंगे. जो बचेंगे उनके वेतन बुरी तरह कट चुके होंगे. बीस लाख करोड़ का पैकेज इनकी कोई मदद नहीं करेगा.जब तक इनकी नौकरियां या कमाई नहीं लौटेगी, आत्मनिर्भरता छोडि़ए, अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पहिया मंदी के कीचड़ में धंसा रहेगा.