राज्य सरकारें नौकरशाही की चुस्ती से काम चला सकती हैं लेकिन केंद्र सरकार के निर्णय राजनैतिक शिखर से निकलते हैं, जिनसे गवर्नेंस की दिशा तय होती है.कई महत्वपूर्ण नीतियों की
राजनैतिक दिशा अब तक धुंधली है इसलिए प्रशासनिक असमंजस बढ़ रहा है।
सरकारी तंत्र में बैठे
हुए लोग उसके लिए क्या उपाय करेंगे, जो गंदगी पुरानी है. यह बहुत बड़ी चुनौती है.” राष्ट्र के नाम रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में
प्रधानमंत्री ने गवर्नेंस के जिस असमंजस को स्वच्छता अभियान के संदर्भ में जाहिर
किया था, वही बात वित्त
मंत्री अरुण जेटली ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मंच से कही कि “आर्थिक स्थिति सुधरने में वक्त लगेगा.” मोदी-जेटली के इशारे साफ हैं. उम्मीदों की उड़ान के पांच
माह बाद सरकार में यथार्थवाद थिरने लगा है. कई महत्वपूर्ण नीतियों की राजनैतिक
दिशा अब भी धुंधली है इसलिए प्रशासनिक गलियारों में जन कल्याण की स्कीमों से लेकर
आर्थिक सुधारों तक संशय जड़ें जमाने लगा है. सरकार और बीजेपी संगठन के के साथ ताजा
संवादों में भी यह तथ्य उभरा है कि अब सरकारी नीतियों की राजनैतिक दिशा निर्धारित
करनी होगी ताकि वह फर्क नजर आ सके, जिसे लाने की आवाज बड़े जोर से लगाई गई थी.
ग्रामीण रोजगार
गारंटी स्कीम (मनरेगा) को जारी रखने को लेकर अर्थशास्त्रियों का खत इसी संशय की
उपज था कि मोदी सरकार जनकल्याण की स्कीमों को लेकर कौन-सा मॉडल अपनाएगी? सरकार का अधकचरा
जवाब आया कि मनरेगा कुछ बदलावों के साथ बनी रहेगी. इसने जनकल्याण की स्कीमों के मोदी
मॉडल को लेकर ऊहापोह और बढ़ा दी. सवाल मनरेगा का नहीं बल्कि उस मॉडल के स्वीकार या
नकार का है जिसे कांग्रेस ने