कोविड के बाद दुनिया में कहीं भी रातोरात हजारों अस्पताल नहीं बन गए. अनेक देशों ने तकनीकों के योजनाबद्ध प्रयोग व डाटा प्रबंधन से मौजूदा स्वास्थ्य ढांचा ठीक कर असंख्य जिंदगियां बचाई हैं.
भारत की भयानक असफलता पर तर्क देखिए 100 करोड़ लोगों को अस्पताल कैसे दे सकते हैं? 100 करोड़ लोग मांग भी कहां रहे हैं. देश में सक्रिय मामले (135 करोड़ पर 30 लाख, 28 अप्रैल 2021 तक) एक फीसद से कम हैं. उनमें भी ऑक्सीजन और गंभीर इलाज वाली दवाओं के जरूरतमंद 10 फीसद हैं. इनके लिए 29 राज्यों में 'सिस्टम’ यानी अस्पताल, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी कभी नहीं थी.
फिर भी, उभरते ‘सुपरपॉवर’ और विश्व की फार्मेसी में मौतों की लाइन इसलिए लग गई क्योंकि हम डिजिटली अभागे भी साबित हुए हैं. प्रचार ऐप बनाने में मशगूल डिजिटल इंडिया कोविड प्रबंधन में नई तकनीकों का उतना इस्तेमाल भी नहीं कर सका जितना कोलंबिया, मैसेडोनिया, कुवैत, सऊदी अरब, पाकिस्तान जैसे देशों ने कर लिया. संकट के बाद आम लोगों ने ट्विटर सूचनाओं के डैशबोर्ड बनाकर जिस तरह मदद की, उसी के जरिए दसियों देशों में स्वाथ्य सेवाओं का डिजिटल पुर्नजन्म हो गया.
संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और मैकेंजी के अध्ययन बताते हैं कि सूचनाओं के प्रसारण, सेवाओं-संसाधनों की मॉनीटरिंग व उपलब्धता, संक्रमण पर अंकुश, ई-हेल्थ व मरीजों की मॉनीटरिंग में डिजिटल तकनीकों के प्रयोग ने महामारी से लड़ने का तरीका ही बदल दिया.
जर्मनी ने अचूक डाटा बेस प्रबंधन से अस्पतालों, बिस्तरों, ऑक्सीजन और दवा आपूर्ति की मॉनीटरिंग की. ब्रिटेन ने अपने पुराने नेशनल हेल्थ सिस्टम का कायाकल्प करते हुए इन्फ्लुएंजा नेट जैसे प्रयोगों से सामान्य जुकाम वालों के साथ पुराने बीमारों पर भी नजर रखी.
दक्षिण कोरिया ने कोविड के बाद दो पखवाड़े में संपर्क रहित ड्राइव थ्रू टेस्टिंग शुरू कर दी, सिंगापुर सहित पूर्वी एशिया और यूरोप ने गूगल के नेटवर्क के सहारे कांटेक्ट्र ट्रेसिंग के अचूक मॉडल बनाए. कई देशों ने अपनी दवा दुकानों को जोड़कर जांच और साधनों की आपूर्ति सुचारू कर ली.
भारत का हेल्थ पोर्टल बीमारों के आंकड़ों से आगे नहीं निकल सका लेकिन फ्रांस जैसे बड़े देश ही नहीं, बुल्गारिया, युगांडा, क्यूबा, अफगानिस्तान, स्लोवाकिया, मलेशिया, किर्गिस्तान, कुवैत, इथियोपिया, ग्रीस जैसे अनेक देशों ने तकनीक का बेजोड़ इस्तेमाल किया. जबकि भारत में तो ऑक्सीजन और दवा की आपूर्ति की मॉनीटरिंग का तंत्र भी नहीं बन सका.
हमें चौंकना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र ने डिजिटल गवर्नेंस के सफल प्रयोगों में पाकिस्तान को शामिल किया है, जिसके नेशनल इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी बोर्ड ने सभी जरूरतों को एक ऐप से जोड़ने के साथ देश में भर फैले कोविड सहायता संसाधनों (अस्तपाल, दवा) आदि की भौगोलिक मैपिंग कर ली. यहां तक कि दवा की कालाबाजारी रोकने का तंत्र भी जोड़ा गया.
अमेरिका में 80 टेलीहेल्थ सेवाओं को आपात मंजूरी मिली तो शंघाई ने 11 ऑनलाइन अस्पताल खड़े कर दिए जबकि भारत में दवा और ऑक्सीजन खरीदने के लिए सीएमओ की चिट्ठी जरूरी बना दी गई. पूरी दुनिया में ऑनलाइन फार्मेसी पलक झपकते दवा पहुंचा रही हैं लेकिन भारत में लोग इंजेक्शन के लिए लाइन में लगे हैं.
भारत का आरोग्य सेतु सुर्खियां बनाकर विलीन हो गया. इसमें सूचनाओं की सुरक्षा बेहद कमजोर थी लेकिन प्रामाणिक अध्ययन मानते हैं कि ज्यादातर देशों में कोविड के वक्त जो डिजिटल सेवाएं बनाई गईं उनमें निजता और गोपनीयता को पूरी तरह सुरक्षित किया गया था. भारत में जब थोथी आत्मप्रशंसा के महोत्सव चल रहे थे, तब कोविड आते ही कई देशों में प्रमुख तकनीकी कंपनियां और सरकारी नियामक, सूचना प्रबंधन, सेवा डिलिवरी और मॉनीटरिंग की नई प्रणालियां लागू कर रहे थे. इस तैयारी ने कोविड से उनकी लड़ाई तरीका ही बदल दिया.
दवा, ऑक्सीजन के लिए गिड़गिड़ाना और दयावानों से मदद की गुहार करना हरगिज जनभागीदारी नहीं है. जान बचाने की ये आखिरी कोशिशें, गर्व के नहीं शर्म के लायक हैं. महामारी ने बताया है कि हमारी तकनीकी तरक्की पूरी तरह पाखंड है. भारत का सिस्टम असफल नहीं हुआ, क्षमताएं नहीं चुकी हैं. सिस्टम तो जड़ है, जीवंत तो इसे चलाने वाले होते हैं लेकिन उन्होंने उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल राजनैतिक प्रचार के लिए किया, व्यवस्था बनाने के लिए नहीं. और बढ़ते संक्रमण के बावजूद जीत का ऐलान कर दिया.
गुस्से और दुख के संदेशों से भड़कने वाला भारतीय निजाम यह सोच ही नहीं पाता कि जिन आंकड़ों को छिपाया जा रहा है, उन्हीं के जरिए तो संसाधन और संक्रमण के प्रबंधन व मॉनीटरिंग का अचूक तंत्र बना कर महामारी के मारों को दर-दर भटक कर मरने से बचाया जा सकता था.