विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्यों नहीं संभाल पाए जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं?
भाजपा हर कदम का विरोध क्यों करती है? आमतौर पर सवाल का पहला जवाब हमेशा ठहाके के साथ देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी गंभीर हो गए...एक लंबा मौन...फिरः ''लोकतंत्र में प्रतिपक्ष केवल संवैधानिक मजबूरी नहीं है, वह तो लोकतंत्र के अस्तित्व की अनिवार्यता है.'' फिर ठहाका लगाते हुए बोले कि नकारात्मक होना आसान कहां है? एक तो चुनावी हार की नसीहतें और फिर सरकार को सवालों में घेरते हुए लोकतंत्र को जीवंत रखना! ...प्रतिपक्ष होने के लिए अभूतपूर्व साहस चाहिए.
लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाजा कठिन है. चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद सरकार पर सवाल उठाते रहना उसका दायित्व है. जो सरकार जितनी ताकतवर है उससे जुड़ी उम्मीदें और उससे पूछे जाने वाले सवाल उतने ही बड़े, गहरे और ताकतवर होने चाहिए.
मोदी सरकार को तीन साल बीत चुके हैं. लगभग सभी संवैधानिक पदों और प्रमुख राज्यों में भाजपा सत्ता में है. अब विपक्ष से पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सीखा? क्या वह उन अपेक्षाओं को संभाल पाया जो किसी ताकतवर सरकार के सामने मौजूद विपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं?
नए विपक्ष का आविष्कार
2014 के जनादेश ने तय कर दिया कि देश में विपक्ष होने का मतलब अब बदल गया है, क्योंकि सत्ता पक्ष को चुनने के पैमाने बदल गए हैं. आजादी के बाद पहली बार ऐसा दिखा कि अध्यक्षीय लोकतंत्र की तर्ज पर पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक सभी जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में घनीभूत हो गईं.
नए सत्ता पक्ष के सामने नया विपक्ष भी तो जरूरी था! 2014 के बाद क्षेत्रीय दलों की ताकत घटती जा रही है. बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से ऊबे लोग ऐसा विपक्ष उभरता देखना चाहते हैं जो संसदीय लोकतंत्र के बदले हुए मॉडल में फिट होकर सत्ता के पक्ष के मुहावरों को चुनौती दे सके. तीन साल बीत गए, विपक्ष ने नया विपक्ष बनने की कोशिश तक नहीं की.
सवाल उठाने की ताकत
जीवंत लोकतंत्र पिलपिले प्रतिपक्ष पर कैसे भरोसा करे? नोटबंदी इतनी ही
खराब थी तो विपक्ष को भाजपा बनकर खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की तरह इसे रोक देना चाहिए था. जीएसटी विपक्ष की रीढ़विहीनता का थिएटर है. विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने इसे बनाया भी और अब विरोध भी हो रहा है.
प्रतिपक्ष की भूमिका इसलिए कठिन है, क्योंकि उसे विरोध करते दिखना नहीं होता बल्कि संकल्प के साथ विरोध करना होता है. विपक्ष को मोदी युग के पहले की भाजपा से सीखना था कि सरकारी नीतियों की खामियों के खिलाफ जनमत कैसे बनाया जाता है.
संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष ओखली के भीतर और चोट के बाहर नहीं रह सकता. लेकिन नरेंद्र मोदी को जो विपक्ष मिला है, वह रीढ़विहीन और लिजलिजा है.
स्वीकार और त्याग
विपक्ष ने भले ही सुनकर अनसुना किया हो लेकिन अधिकांश समझदार लोगों ने यह जान लिया था कि 2014 का जनादेश अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को रोकने की नसीहत के साथ आया है. बहुसंख्यकवाद की राजनीति अच्छी है या बुरी, इस पर फैसले के लिए अगले चुनाव का इंतजार करना पड़ेगा लेकिन 2014 और उसके बाद के अधिकांश जनादेश अल्पसंख्यकों (धार्मिक और जातीय) को केंद्र में रखने की राजनीति के प्रति इनकार से भरे थे.
क्या विपक्ष अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को स्थगित नहीं कर सकता? भाजपा नसीहत बन सकती थी जिसने सत्ता में आने के बाद अपने पारंपरिक जनाधार यानी अगड़े व शहरी वर्गों को वरीयता पर पीछे खिसका दिया. अलबत्ता हार पर हार के बावजूद विपक्ष अल्पसंख्यक और गठजोड़ वाली सियासत के अप्रासंगिक फॉर्मूले से चिपका है.
सक्रिय प्रतिपक्ष ही कुछ देशों को कुछ दूसरे देशों से अलग करता है. यही भारत को चीन, रूस, सिंगापुर से अलग करता है. ब्रिटेन, जहां विपक्ष की श्रद्धांजलि लिखी जा रही थी वहां ताजा चुनावों में लेबर पार्टी की वापसी ब्रेग्जिट के भावनात्मक उभार को हकीकत की जमीन पर उतार लाई है. वहां लोकतंत्र एक बार फिर जीवंत हो उठा है.
चुनाव एक दिन का महोत्सव हैं, लोकतंत्र की परीक्षा रोज होती है. अच्छी सरकारें नियामत हैं पर ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. आज जब भाजपा सत्ता में है तो क्या मौजूदा दल भाजपा को उसके जैसा प्रतिपक्ष दे सकते हैं? ध्यान रखिए, भारतीय लोकतंत्र के अगले कुछ वर्ष सरकार की सफलता से नहीं बल्कि विपक्ष की सफलता से आंके जाएंगे.