बेसिर पैर नीतियों, रुपये की कमजोरी, किस्म किस्म के घोटालों और कंपनियों की ऐतिहासिक भूलें अर्थात 2008 के बाद के सभी धतकरमों का ठीकरा बैंकों के सर फूटने वाला है।
बैंकों को अर्थव्यवस्था का आईना कहना
पुरानी बात है, नई इकोनॉमी में बैंक किसी देश की आर्थिक भूलों का दर्दनाक प्रायश्चित
होते हैं फिर बात चाहे अमेरिका हो, यूरोप हो या कि भारत की। अलबत्ता भारतीय
बैंकों को तबाह होने के लिए पश्चिम की तर्ज पर वित्तीय बाजार की आग में कूदने करने
की जरुरत ही नहीं है, यहां तो बैंक अपने बुनियादी काम यानी कर्ज बांटकर ही मरणासन्न्ा हो जाते हैं, वित्तीय बाजार के रोमांच की नौबत ही नहीं आती। भारतीय बैंक निजी व
सरकारी उपक्रमों को मोटे कर्ज देकर गर्दन फंसाते हैं और फिर बकाये का भुगतान टाल
कर शहीद बन जाते हैं। बर्बादी की यह अदा भारतीय बैंकिंग का बौद्धिक संपदा अधिकार है।
भारतीय बैंक अब जोखिम का जखीरा हैं जिन के खातों में बकाया कर्जों का भारी बारुद
जमा है। बैंकों बचाने की जद्दोजहद जल्द ही
शुरु होने वाली है। खाद्य सुरक्षा के साथ बैंक सुरक्षा का बिल भी जनता को पकड़ाया
जाएगा।
भारत में बैंक कर्ज वितरण की दर जीडीपी की
दोगुनी रही है। अधिकांश ग्रोथ बैंकों के कर्ज से निकली है, इसलिए सरकारी व निजी क्षेत्र
के सभी पाप बैंकों के खातों में दर्ज हैं। जैसे अमेरिकी बैंकों ने डूबने के लिए
पेचीदा वित्तीय उपकरण चुने थे या यूरोपीय बैंक सरकारों को कर्जदान के जरिये वीरगति
को प्राप्त हुए थी भारत में यही हाल कारपोरेट डेट रिस्क्ट्रचरिंग (सीडीआर) का
है जो अब देशी बैंकिंग उद्योग की सबसे