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Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं. 

Tuesday, September 15, 2015

साहस का संकट



चीन से शुरु हुआ ताजा संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.

भारत की दहलीज पर ग्लोबल संकट की एक और दस्तक को समझने के दो तरीके हो सकते हैं: एक कि हम रेत में सिर घुसा कर यह कामना करें कि यह दुनियावी मुसीबत है और हम किसी तरह बच ही जाएंगे. दूसरा यह कि इस संकट में अवसरों की तलाश शुरू करें. मोदी सरकार ने दूसरा रास्ता चुना है लेकिन जरा ठहरिए, इससे पहले कि आप सरकार की सकारात्मकता पर रीझ जाएं, हमें इस सरकार को मिले अवसरों के इस्तेमाल का रिकॉर्ड और जोखिम लेने की कुव्वत परख लेनी चाहिए, क्योंकि यह संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
सिर्फ शेयर बाजार ही तो थे जो भारत में उम्मीदों की अगुआई कर रहे थे. चीन में मुसीबत के बाद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं से निवेशकों की वापसी के साथ भारत को लेकर फील गुड का यह  शिखर भी दरक गया है, जो सस्ती विदेशी पूंजी पर खड़ा था. पिछले दो साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी तौर पर बहुत कुछ नहीं बदला. चुनाव की तैयारियों के साथ उम्मीदों की सीढिय़ों पर चढ़कर शेयर बाजारों ने ऊंचाई के शिखर बना दिए. भारत के आर्थिक संकेतक नरम-गरम ही हैं, मंदी है, ब्याज दरें ऊंची हैं, जरूरी चीजों की महंगाई मौजूद है, मांग नदारद है, मुनाफा और आय नहीं बढ़ रही जबकि मौसम की बेरुखी बढ़ गई है. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर है, कच्चा तेल सस्ता है और राजनैतिक स्थिरता है. दुनिया में संकट की हवाएं पहले से थीं. अपने विशाल प्रॉपर्टी निवेश, मंदी व अजीबोगरीब बैंकिंग के साथ, चीन 2013 से ही इस संकट की तरफ खिसक रहा था.
भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद यह तीसरा संकट है. 1997 में पूर्वी एशिया के करेंसी संकट से भारत पर दूरगामी असर नहीं पड़ा. 2008 में अमेरिका व यूरोप में बैंकिंग व कर्ज संकट से भी भारत कमोबेश महफूज रहा. अब चीन की मुसीबत सिर पर टंगी है. भारत इस पर मुतमइन हो सकता है कि ग्लोबल उथल-पुथल से हम पर आफत नहीं फट पड़ेगी लेकिन यही संकट भारत की ग्रोथ की रफ्तार का भविष्य निर्णायक रूप से तय कर देगा.
पिछले दो संकटों ने भारत को फायदे-नुक्सानों का मिला जुला असर सौंपा. 1997 में जब पूर्वी एशिया के प्रमुख देशों की मुद्राएं पिघलीं तो भारत की पर शुरुआती असर हुआ लेकिन उसके बाद अगले सात वर्ष तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रोथ के सहारे अपना चोला बदल दिया. यह उन बड़े सुधारों का नतीजा था जो नब्बे के दशक के मध्य में हुए और जिनका फायदा हमें वास्तविक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष निवेश व ग्रोथ के तौर पर मिला. तब तक भारत के शेयर बाजारों में सक्रियता सीमित थी.
2008 के संकट के बाद अमेरिका में ब्याज दरें घटने से सस्ती पूंजी बह चली. पिछले छह साल के सुधारों के कारण उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदें जग गई थीं. यही वह दौर था जब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाएं चमकीं और भारतीय शेयर बाजार निवेशकों का तीर्थ बन गया. भारतीय अर्थव्यवस्था में स्पष्ट मंदी के बावजूद यह निवेश हाल तक जारी रहा जो चुनाव के बिगुल के साथ 2014 में शिखर पर पहुंच गया था. 
इन तथ्यों के संदर्भ में ताजा चुनौती व अवसर को समझना जरूरी है.
चुनौतीः भारत की मुसीबत चीन का ढहना है ही नहीं, न ही ग्लोबल मंदी से बहुत फर्क पड़ा है सिवा इसके कि निर्यात ढह गया है, जो पहले से ही कमजोर है. उलझन यह है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ते ही (इसी महीने मुमकिन) विदेशी निवेशक भारत सहित उभरते बाजारों से निकलेंगे जहां वे 2008 के बाद आए थे, क्योंकि निवेश पर होने वाले फायदे घट जाएंगे. वास्तविक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ नहीं है इसलिए भारतीय कंपनियों का मुनाफा लंबे समय तक निवेश को आकर्षित नहीं कर सकता. यह पिछले पांच साल में पहला मौका है जब विशेषज्ञ भारत सहित उभरते बाजारों में लंबी गिरावट का संदेश दे रहे हैं. ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक भारत के लिए डॉलरों का प्रमुख स्रोत रहे हैं इसलिए यह विदाई महंगी पड़ेगी. यह फील गुड की आखिरी रोशनी है जो अब टूटने लगी है. 
अवसरः यदि समय, अर्थव्यवस्था के आकार और ग्लोबल अर्थव्यवस्था से जुड़ाव को अलग कर दिया जाए तो भारत 1995 की स्थिति में है जब जीडीपी में ग्रोथ की उम्मीदें कमजोर थीं और शेयर बाजारों में निवेश नहीं था. अलबत्ता विदेशी व्यापार, निवेश के उदारीकरण से लेकर निजीकरण तक भारत के सभी बड़े ढांचागत सुधार 1995 से 2000 के बीच हुए, जिनका फायदा ग्लोबल संकटों के दौरान निवेशकों के भरोसे के तौर पर मिला. मोदी सरकार नब्बे की दशक जैसे बड़े ढांचागत सुधार कर भारतीय ग्रोथ को अगले एक दशक का ईंधन दे सकती है.
वित्त मंत्री ठीक कहते हैं कि असली दारोमदार वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ही है. अब शेयर बाजार भी कंपनियों की ताकत और वास्तविक ग्रोथ पर गति करेंगे न कि सस्ती विदेशी पूंजी पर. इस संकट के बाद भारत के पास दो विकल्प हैं: पहला, सुधार रहित 6.5-7 फीसदी की औसत विकास दर जिसे आप 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट कह सकते हैं. विशाल खपत और कुछ ग्लोबल मांग के सहारे (सूखा आदि संकटों को छोड़कर) ग्रोथ इससे नीचे नहीं जाएगी. दूसरा, नौ-दस फीसदी की ग्रोथ और रोजगारों, सुविधाओं, आय में बढ़ोत्तरी का है जो 1997 के बाद हुई थी. 

शेयर बाजारों पर ग्लोबल संकट की दस्तक के बाद 8 सितंबर को जब प्रधानमंत्री पूरे लाव-लश्कर के साथ उद्योगों को जोखिम लेने की नसीहत दे रहे थे तब उद्यमी जरूर यह कहना चाहते होंगे कि हिम्मत दिखाने की जरूरत तो सरकार आपको है! पिछले 15 माह में तो सुधारों का कोई साहस नहीं दिखा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद संकट के झटके तेज होंगे. अगला एक साल बता देगा कि हमें 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट मिलने वाली है या फिर तरक्की की तेज उड़ान. 

Monday, January 20, 2014

गति से पहले सुरक्षा

मंदी से उबरी दुनिया में अब तेज ग्रोथ के चमत्‍कार नहीं होंगे बल्कि सफलता का आकलन इस पर होगा कि कौन कितना निरंतर व सुरक्षित है

ड़ी खबर यह नहीं है कि पांच साल पुराने ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट के समापन का आधिकारिक ऐलान हो गया है बल्कि ज्‍यादा बड़ी बात यह है कि दुनिया ने अब बहुत तेज दौड़ने यानी ग्रोथ की धुआंधार रफ्तार से तौबा कर ली है। 2008 से पहले तक ग्रोथ की उड़न तश्‍तरी पर सवार ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था अब धीमे व ठोस कदमों से चलने की शपथ ले रही है। यही वजह है कि बीते सप्‍ताह जब विश्‍व बैंक ने दुनिया के मंदी से उबरने का ऐलान किया तो बाजार उछल नहीं पड़े और न ही अमेरिका में ग्रोथ चमकने, यूरोप का ढहना रुकने, जापान की वापसी और भारत चीन में माहौल बदलने के ठोस संकेतों से आतिशबाजी शुरु हो गई। बल्कि विश्‍व के आर्थिक मंचों से नसीहतों की आवाजें और मुखर हो गईं जिनमें यह संदेश साफ था कि अगर सुधारों को आदत नहीं बनाया गया तो आफत लौटते देर नहीं लगेगी। खतरनाक गति नहीं बल्कि सुरक्षित निरंतरता, वित्‍तीय बाजारों का नया सूत्र है और मंदी के पार की दुनिया इसी सूत्र की रोशनी में आगे बढ़ेगी।
2014 का पहला सूरज सिर्फ साल बदलने का संदेश नहीं लाया था बल्कि यह पांच साल लंबे दर्द और पीड़ा की समाप्ति का ऐलान भी था। विश्‍व बैंक के आंकड़ों की  रोशनी में  अर्थव्यवस्‍था की ग्‍लोबल तस्वीर भरोसा जगाती है। इस साल दुनिया की विकास दर 3.2 फीसद रहेगी, जो बीते साल 2.4 फीसद थी। 2008-09 के बाद यह पहला मौका है जब दुनिया में ग्रोथ के तीनों बड़े इंजनों, अमेरिका, जापान और यूरोप में गुर्राहट लौटी है।

Monday, May 21, 2012

फिर ग्रोथ की शरण में

हीं चाहिए खर्च में कंजूसी ! घाटे में कमी! निवेश करो !आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी। .. ग्‍लोबल नेतृत्‍व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है जो बीते सप्‍ताह कैम्‍प डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में निकोलस सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्‍व आर्थिक संकट को से निबटने के पूरे समीकरण ही बदल दिये हैं। सरकारों का ग्‍लोबल संहार शुरु हो गया है क्‍यों कि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्‍तीय कंजूसी की एंग्‍लो सैक्‍सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत भारी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप अब वापस ग्रोथ की सोन चिडिया को तलाशने निकल रहे हैं। चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरु कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मु्र्गी ( ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया।...
देर आयद
अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ से खिसकी तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाई कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरु हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्‍हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे क्‍यों कि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख को बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्‍साई ओर उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुकिश्‍लों का खाता आर्थिक सुस्‍ती

Monday, May 7, 2012

दोहरी मंदी की दस्‍तक


स्‍पेनी डुएंडे ने अमरिकी ब्‍लैकबियर्ड घोस्‍ट (दोनो मिथकीय प्रेत) से कहा .. अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्‍म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है। ... यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर अब हॉरर फिल्‍में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (ग्रोथ में लगातार गिरावट) हुआ  है। स्‍पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही  है अमेरिका में  ग्रोथ गायब है। यानी कि देखते देखते चार साल (2008 से) बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ, के बावजूद दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्‍तक दे रही है। पिछले साल की शुरुआत से ही विश्‍व बाजार यह सोचने और भूल जाने की कोशिश में लगा था कि ग्रोथ दोहरा गोता नहीं लगायेगी। मगर अब डबल डिप सच लग रहा है। अर्थात मंदी के कुछ और साल। क्‍या एक पूरा दशक बर्बाद होने वाला है।
स्‍पेन में कई आयरलैंड
स्‍पेन की हकीकत सबको मालूम थी  मगर कहे कौन कि यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थवयवस्‍था दरक रही है। इसलिए संकट के संदेशवाहकों (स्‍टैंडर्ड एंड पुअर रेटिंग डाउनग्रेड) का इंतजार किया गया। स्‍पेन का बहुत बड़ा शिकार है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मिलाइये और फिर उन्‍हें दोगुना कीजिये। इससे जो हासिल होगा वह स्‍पेन है इसलिए सब मान रहे थे कि कुछ तो ऐसा होगा जिससे ग्रीस और आयरलैंड, स्‍पेन में नहीं दोहरा जाएंगे। मगर अब यह साबित हो गया कि प्रापर्टी, बैंक और कर्ज की कॉकटेल में स्‍पेन दरअसल आयरलैंड का सहोदर ही नहीं है वरन वहां तो कई आयरलैंड कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। यूरोप का सबसे बड़े मछलीघर (एक्‍वेरियम) और सिडनी जैसा ऑपेरा हाउस से लेकर हॉलीवुड की तर्ज पर मूवी स्‍टूडियो सजा स्‍पेनी शहर वेलेंशिया देश पर बोझ बन गया है। वेंलेंशिया में 150 मिलियन यूरो की लागत वाले एक एयरपोर्ट को लोग बाबा का हवाई अड्डा (ग्रैंड पा एयरपोर्ट) कहते हैं। बताते हैं कि स्‍पेन के कैस्‍टेलोन क्षेत्र के नेता कार्लोस फाबरा ने इसे उद्घाटन के वक्‍त अपने नाती पोतों से पूछा था कि बाबा का हवार्इ अड्डा कैसा लगा। भ्रष्‍टाचार के आरोपों में घिरे फाबरा के इस हवाई अड्डे पर अब तक वाणिज्यिक उड़ाने शुरु नहीं हुई हैं।  बैंक, प्रॉपर्टी, राजनीति की तिकड़ी स्‍पेन को डुबा रही है।  प्रॉपर्टी बाजार पर झूमने वाले कई और दूसरे शहरों में भी दुबई और ग्रेट डबलिन (आयरलैंड) की बुरी आत्‍मायें दौड़ रही हैं। स्‍पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डों व शॉपिंग काम्‍प्‍लेक्‍स और बीस लाख से ज्‍यादा मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्‍पेनी बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। अगर स्‍पेन अपने बैंकों को उबारता है तो खुद डूब जाएगा क्‍यों कि देश पर 807 अरब यूरो का कर्ज है, जो देश के जीडीपी का 74 फीसद है। युवाओं में 52 फीसद की बेरोजगारी दर वाला स्‍पेन बीते सप्‍ताह स्‍पष्‍ट रुप से मंदी में चला गया है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे जयादा बैंकिंग संकट) देखने वाला स्‍पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर है।  प्रसिद्ध स्‍पेनी कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था कि दुनिया के किसी भी देश ज्‍यादा मुर्दे स्‍पेन में जीवित हैं। इसलिए स्‍पेन की खबर सुनकर यूरोप में दोहरी मंदी की आशंका को नकारने वाले  पस्‍त हो  गए है।

Monday, February 13, 2012

चूके तो, चुक जाएंगे

स्‍तूर तो यही है कि बजट को नीतियों से सुसज्जित, दूरदर्शी और साहसी होना चाहिए। दस्‍तूर यह भी है कि जब अर्थव्‍यवस्‍था लड़खड़ाये तो बजट को सुधारों की खुराक के जरिये ताकत देनी चाहिए और दस्‍तूर यह भी कहता है कि पूरी दुनिया में सरकारें अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मंदी और यूरोप की मुसीबत से बचाने हर संभव कदम उठाने लगी हैं, तो हमें भी अंगड़ाई लेनी चाहिए। मगर इस सरकार ने तो पिछले तीन साल फजीहत और अफरा तफरी में बिता दिये और देखिये वह रहे बड़े (लोक सभा 2014) चुनाव। 2012 के बजट को सालाना आम फहम बजट मत समझिये, यह बड़े और आखिरी मौके का बहुत बडा बजट है क्‍यों कि अगला बजट (2013) चुनावी भाषण बन कर आएगा और 2014 का बजट नई सरकार बनायेगी। मंदी के अंधेरे, दुनियावी संकटों की आंधी और देश के भीतर अगले तीन साल तक चलने वाली चुनावी राजनीति बीच यह अर्थव्‍यव‍स्‍था के लिए आर या पार का बजट है यानी कि ग्रोथ,साख और उम्‍मीदों को उबारने का अंतिम अवसर। इस बार चूके तो दो साल के लिए चुक जाएंगे।
उम्‍मीदों की उम्‍मीद
चलिये पहले कुछ उम्‍मीदें तलाशते हैं, जिन्‍हें अगर बजट का सहारा मिल जाए तो शायद सूरत कुछ बदल जाएगी। पिछले चार साल से मार रही महंगाई, अपने नाखून सिकोड़ने लगी है। यह छोटी बात नहीं है, इस महंगाई ने मांग चबा डाली, उपभोक्‍ताओं को बेदम कर दिया और रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरें बढ़ाईं की ग्रोथ घिसटने लगी। दिसंबर के अंत में थोक कीमतों वाली मुद्रास्‍फीति बमुश्मिल तमाम 7.40 फीसदी पर आई है। महंगाई में यह गिरावट एक निरंतरता दिखाती है, जो खाद्य उत्‍पाद सस्‍ते होने के कारण आई जो और भी सकारात्‍मक है। महंगाई घटने की उम्‍मीद के सहारे रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरों की कमान भी खींची है। उम्‍मीद की एक किरण विदेशी मुद्रा बाजार से भी निकली है। 2011 की बदहाली के विपरीत सभी उभरते बाजारों में मुद्रायें झूमकर उठ खडी हुई हैं। रुपया, पिछले साल की सबसे बुरी कहानी थी मगर जनवरी में डॉलर के मुकाबले रुपया चौंकाने वाली गति से मजबूत हुआ है। यूरोप को छोड़ बाकी दुनिया की अर्थव्‍यव्‍स्‍थाओं ने मंदी से जूझने में जो साहस‍ दिखाया, उसे खुश होकर निवेशक भारतीय शेयर बाजारों की तरफ लौट पडे। जनवरी में विदेशी निवेशकों ने करीब 5 अरब डॉलर भारतीय बाजार में डाले जो 16 माह का सर्वोच्‍च स्‍तर है। जनवरी में निर्यात की संतोषजनक तस्‍वीर ने चालू खाते के घाटे और रुपये मोर्चे पर उम्‍मीदों को मजबूत किया है। उम्‍मीद की एक खबर खेती से भी

Monday, November 14, 2011

संदिग्‍ध करिश्‍मा

गता है कि भारतीय निर्यातकों को माल बेचने के लिए जरुर कोई दूसरी दुनिया मिल गई है क्‍यों कि यह दुनिया तो मंदी, मांग में कमी और उत्‍पादन में गिरावट से परेशान है, इसलिए इस धरती पर माल बिकने से रहा।  भारत का निर्यात ऐसे बढ रहा है मानो अमेरिका व यूरोप समृद्धि से लहलहा रहे हों। पिछले छह माह में निर्यात की छलांगों ने विश्‍व व्‍यापार के पहलवान चीन को भी पछाड़ दिया है। सरकार निर्यातकों के बैंड में शामिल होकर सफलता की धुन बजा रही है मगर मुंबई-दिल्‍ली से लेकर लंदन-न्‍यूयार्क तक विशेषज्ञ गहरे असमंजस में हैं क्‍यों कि निर्यात वृद्धि का यह गुब्‍बारा दुनियावी असलियत की जमीन से कटकर हवा में तैर रहा है। विश्‍व व्‍यापार से लेकर घरेलू बाजार ऐसे मजबूत तथ्‍यों का जबर्दसत टोटा है जो निर्यात की इस सफलता को प्रामाणिक बना सकें। इतना ही नहीं निर्यात की इस बाजीगरी से अब काले धन, मनी लॉडिंग, टैक्‍स हैवेन की दुर्गंध भी उठने लगी है।
हकीकत से उलटा 
अप्रैल 35 फीसदी, मई 57 फीसदी, जून 46 फीसदी, जुलाई 81 फीसदी, अगस्‍त 44 फीसदी, सितंबर 36 फीसदी!!...... यह पिछले छह माह में निर्यात बढ़ने की हैरतंअगेज रफ्तार है। ज‍बकि हकीकत इसकी उलटी है। अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष कह रहा है कि दुनिया की विकास दर आधा फीसदी घटेगी। अमेरिका 1.5 फीसदी और पूरा यूरो क्षेत्र 1.6 फीसदी की ग्रोथ दिखा दे तो बड़ी बात है। यूरोप व अमेरिका भारत के निर्यातों के सबसे बड़े बाजार हैं। विश्‍व व्‍यापार संगठन ने अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार की विकास दर 6.5 फीसदी से घटाकर 5.8 फीसदी कर दी है। अमीर देशों के संगठन ओईसीडी ने बताया कि इस साल की दूसरी तिमाही में ब्रिक और जी 7 देशों का निर्यात घटकर 1.9 फीसदी पर आ गया, जो इससे पिछली तिमाही में 7.7 फीसदी था। लेकिन जुलाई में भारत की सरकार बताया कि एक साल में भारत के निर्यातों का मूल्‍य दोगुना हो गया है। जुलाई में तो 81 फीसदी की बढ़त ने निर्यात के चैम्पियन चीन को भी चौंका दिया। सरकार के दावे के विपरीत, विश्‍व बाजार में मांग को नापने वाले कुछ और आंकड़े भारतीय निर्यात में तेजी पर शक को मज‍बूत एचएसबीसी का मैन्‍युफैक्‍चरिंग पर्चेजिंग मैनजर्स इंडेक्‍स (पीएमआई) आयात निर्यात को सबसे करीब से पकड़ता है। इस सूचकांक में पिछली तिमाही में सबसे तेज गिरावट आई और यह 2008 के स्‍तर के करीब है जब दुनिया में निर्यात बुरी तरह टूट गए थे। पीएमआई अमेरिका, यूरोप व एशिया सभी जगह निर्यात की मांग में गिरावट दिखा रहा है। यूरो मु्द्रा का इस्‍तेमाल करने वाले 17 देशों में सेवा व मैन्‍युफैक्‍चरिंग सूचकांक दो साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर हैं। यानी कि भारतीय निर्यातों की कहानी दुनिया की हकीकत से बिल्‍कुल उलटी है।

Monday, September 26, 2011

वो रही मंदी !

डा नाज था हमें अपने विश्‍व बैंकों, आईएमएफों, जी 20, जी 8, आसियान, यूरोपीय समुदाय, संयुक्‍त राष्‍ट्र की ताकत पर !! बड़ा भरोसा था अपने ओबामाओं, कैमरुनों, मर्केलों, सरकोजी, जिंताओ, पुतिन, नाडा, मनमोहनों की समझ पर !!..मगर किसी ने कुछ भी नहीं किया। सबकी आंखों के सामने मंदी दुनिया का दरवाजा सूंघने लगी है। उत्‍पादन में चौतरफा गिरावट, सरकारों की साख का जुलूस, डूबते बैंक और वित्‍तीय तंत्र की पेचीदा समस्‍यायें ! विश्‍वव्‍यापी मंदी के हरकारे जगह जगह दौड़ गए हैं। ... मंदी के डर से ज्‍यादा बड़ा खौफ यह है कि बहुपक्षीय संस्‍थाओं और कद्दावर नेताओं से सजी दुनिया का राजनीतिक व आर्थिक नेतृत्‍व उपायों में दीवालिया है। यह पहला मौका है जब इतने भयानक संकट को से निबटने के लिए रणनीति बनाना तो दूर  दुनिया के नेता साझा साहस भी नहीं दिखा रहे हैं। यह अभूतपूर्व विवशता, दुनिया को दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद सबसे भयानक आर्थिक भविष्‍य की तरफ और तेजी से धकेल रही है।
मंदी पर मंदी
मंदी की आमद भांपने के लिए ज्‍योतिषी होने की जरुरत नहीं है। आईएमएफ बता रहा है कि दुनिया की विकास दर कम से कम आधा फीसदी घटेगी। अमेरिका में बमुश्किल 1.5 फीसदी की ग्रोथ रहेगी जो अमेरिकी पैमानों पर शत प्रतिशत मंदी है। पूरा यूरो क्षेत्र अगर मिलकर 1.6 फीसदी की रफ्तार दिखा सके तो अचरज होगा। जापान में उत्‍पादन की विकास दर शून्‍य हो सकती है। यूरो जोन में कंपनियों के लिए ऑर्डर करीब 2.1 फीसदी घट गए हैं। यूरो मु्द्रा का इस्‍तेमाल करने वाले 17 देशों में सेवा व मैन्‍युफैक्‍चरिंग सूचकांक दो साल के न्‍यूनतम

Monday, August 15, 2011

दहकते हुए दो सवाल


क्या मंदी घेर ही लेगी? दुनिया में वित्तीय तबाही कैसे रुकेगी? अमेरिकी साख से जिनकी साख जुड़ी है वह देश, बैंक या कंपनियां कहां सर फोड़ेंगे? इटली स्पेन कब डिफॉल्ट। होंगे? कितने और बैंकों की श्रद्धांजलि छपेगी ? डॉलर की जगह कौन सी मुद्रा लेगी ? बेकारी व खर्च में कमी से गुस्सा ये लोग अब किस शहर को लंदन बनायेंगे ? चीन क्या खुद संकट में नहीं हैं? संकट के इलाजों से महंगाई कितनी बढ़ेगी ? ... दहकते हुए सवालों का लावा ! अनिश्चितता ऐसा तूफान ! अभूतपूर्व है यह सब कुछ !!!. जवाब के लिए तर्क, आंकड़े, इतिहास, तथ्यत, संभावनायें परखने तक का वक्त् तक नहीं। अमेरिका की रेटिंग घटने के बाद से सवालों के उठने की रफ्तार बाजारों के गिरने की गति से सौ गुना ज्यादा है। हर घंटे नए सवालों की फौज ललकारती हुई खड़ी हो जाती है। सवालों की इस भीड़ में दो प्रशन सबसे ज्या दा दहक रहे हैं। जिनके जवाब की तलाश में दुनिया के हर निवेशक, उद्यमी, रोजगार चाहने वाले की आंखें , अखबारों व कंप्यूटर स्क्रीनों से चिपकी हैं, कि शायद कहीं कोई उम्मीद कौंध जाए। इन दो की पीठ पर ही हजारों सवाल लदे हैं।
पहला सवाल : क्या अमेरिका और पश्चिम यूरोप की सरकारों के पास इतने संसाधन व क्षमता है तक वह दुनिया के वित्तीय तंत्र को डूबने से बचा सकें ??
बच जाएंगे मगर कीमत बड़ी होगी। दुनिया में इतना पैसा नहीं है कि डूबते सिस्टम को एकमुशत उबार सके। वित्तीतय बाजार में सबकी किस्मंत गुंथी हुई है इसलिए प्रायशिचत भी साझा होगा। तभी तो अमेरिका की साख घटने के बाद बाजारों ने कुछ दिनों में चार ट्रिलियन डॉलर गंवा दिये। अमेरिका की 168 शीर्ष वित्तीदय कंपनियां (मोर्गन, सिटी ग्रुप आदि आदि) अपनी बुकवैल्यू से 60 फीसदी कम पर बाजार में बिक रही हैं। अमेरिकी या यूरोपीय बांडों में पैसा लगाने वाले बैंक, कंपनियां आगे भी डूबेंगे। क्यों कि यह संकट सरकारों से ज्यादा उनका है जो सरकारों कर्ज दिये बैठे हैं। मगर दर्द सरकारों ने दिया है तो दवा भी वही देंगी। पहली कोशिश है सस्तेउ से सस्ता कर्ज देने कि ताकि पैसे की कमी से कोई न डूबें। यह काम केवल सरकारें कर सकती हैं। कोई स्टैंहडर्ड एंड पुअर कितनी भी बड़ी क्यों न हो, करेंसी नोट नहीं छाप सकती। नोट छपेंगे और पैसा बहेगा। बैंकों व सरकारों ने बाजार में दखल देकर बचाव शुरु कर दिया है। केंद्रीय बैंक सस्ता पैसा लेकर मोर्चे पर हैं। बड़े बैंकों को डूबने से बचाया जाएगा और छोटों को डूबने दिया जाएगा। अमेरिकी फेड रिजर्व का यही फार्मूला है। दूसरी समस्या है सरकारों की कर्ज की, जिसका इलाज सरकारों की संप्रभुता से ही निकलेगा। कानून बनाकर कर्ज का भुगतान टालने (ग्रीस की तर्ज पर) या बैंकों से कर्ज माफ कराने कोशिशें शुरु होने वाली हैं। देशों की संपुभता सवोच्च है और कोई वित्तीकय तंत्र देश की सीमाओं के बाहर नहीं है। इसलिए देशों की संसदें जो कहेंगी, बैंकों को मानना ही होगा। मजबूरी जो ठहरी।
खतरों का अंधेरा – कम ब्याज दरों से मुद्रास्फीति बढ़ने का जोखिम है तो कर्ज देनदारी टालने पर सरकारें साख गंवायेंगी। कई और बैंक व वित्तीदय संस्था्यें डूब सकते हैं। सरकारों को टैक्स बढ़ा कर और खर्च घटाकर अलोकप्रिय होना पड़ेगा। यूरोप अभी और डरायेगा। बाजार लगातार गोते खायेंगे। मगर इस निर्मम इलाज की पीड़ा झेलनी ही होगी।
उम्मीद की रोशनी – इस संकट में देश, बैंक व निवेशक सब थोड़ा थोड़ा गंवायेंगे, मगर शायद हम बच जाएंगे। सरकारो की राजनीतिक समझदारी का इम्तहान अब शुरु हुआ है।
दूसरा सवाल : मंदी का खतरा कितना सच है ?
खतरा भरपूर है। तथ्या देखिये। एक- दुनिया की सबसे बड़ी (अमेरिकी) अर्थव्यटवसथा साल की पहली तिमाही में केवल 0.4 फीसदी बढ़ी। दो- ग्रोथ के दो बड़े इंजन चीन व भारत सुस्त पड़ रहे हैं। तीन- पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ रही है उपभोक्ता खर्च सिकोड़ रहे हैं। चार- रोजगारों में तगडी गिरावट है। यूबीएस कहता है कि अमेरिका में 4.5 लाख सरकारी नौकरियां घटेंगी और यूरोप में इसकी दोगनी। पांच - यूरोप की विकास दर में बढ़ोत्तरी कोई उम्मीद नहीं है। छह- जापान टूट चुका है,विकास दर धराशायी है। सात- तेल की कीमतें महंगाई का ईंधन हैं। ..... यानी कि मंदी की पालकी तैयार है। अमेरिका में डबल डिप ( आर्थिक विकास दर में लगातार गिरावट) ही नहीं, दुनियावी मंदी का खतरा है। 2008 और 2011 की गिरावट में फर्क यह है कि तब अमेरिका-यूरोप-जापान फिसल रहे थे मगर भारत व चीन के ग्रोथ इंजन दहाड़ रहे थे। अब दुनिया में उस पार गिरावट है तो इस तरफ सुस्तीे। यूरोप अमेरिका में मांग घटने से उत्पाकदन गिरा है तो भारत-चीन-लैटिन अमेरिका में मांग घटाने के लिए उत्पा दन गिराया जा रहा है ताकि महंगाई रुक सके। इस सूरते हाल का भविष्य मंदी है। महंगाई व मंदी के इलाज एक दूसरे के उलटे हैं। पश्चिम यूरोप व अमेरिका मांग बढ़ाने के लिए बाजार में पैसा बढ़ायेंगे जबकि चीन व भारत महंगाई थामने के लिए मुद्रा का प्रवाह सिकोड़ रहे हैं। अर्थात ग्रोथ बढाने पर दुनिया बंटी हुई है। गौरतलब है कि जब भी पेट्रो उत्पादों पर खर्च की लागत विश्वर जीडीपी के मुकाबले तीन फीसदी से ऊपर गई हैं, मंदी आई है। 1973-74 के अरब इजरायल युद्ध, 1979 के ईरान युद्ध और 2008 के वित्तीय संकट ( तेल कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल तक) में ऐसा हुआ था। यानी कि मंदी का डर सौ फीसदी जायज है।
खतरों का अंधेरा– दुनिया के अधिकांश हिस्सों में महंगाई के बीच कर्ज का प्रवाह बढ़ाना बारुद हाथ में लेकर आग बुझाने की प्रेक्टिस करने जैसा है। मगर ग्रोथ पर दांव लगाने के अलावा कोई दूसरा रास्ताझ भी नहीं है। अगर ग्रोथ लौटी तो बहुत सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी नहीं तो महंगाई व मंदी मिलेगी।
उम्मीद की रोशनी- तेल की कीमतें घटें तो सस्ते पेट्रोल डीजल से पूरब व पश्चिम के इंजन फिर रफ्तार पकड़ सकते हैं और महंगाई के बिना ग्रोथ बढ़ाने की कोशिश मजबूत हो सकती है। मगर तेल की कीमतें तो शुरुआती गिरावट के बाद फिर बढ़ने लगी हैं। गेंद राजनीति के पाले में है।
यूं तो मौजूदा कोशिशों को नैतिक, सैद्धांतिक और व्यगवस्‍थागत कई सवालों से घेरा जा सकता है मगर हम एक भयानक संकट से मुखातिब हैं। जहां नैतिक बहसों का वक्त नहीं है। अब तो सर्वनाश को टालने की बात है यानी आधा गंवाकर आधा बचाने (सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध: त्यजति... ) वाली रणनीतियां ही कारगर होंगी। कौन बचा और कौन उबरा इसका हिसाब एक साल बाद होगा। फिलहाल तो यह देखिये कि कौन डूबा और कौन निबटा? आग का दरिया खौल रहा है जिसमें डूब कर ही जाना है। ....कमजोर दिल वालों को अपना खास ख्याल रखना चाहिए।
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