मैं
हमेशा सच बोलता हूं अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तब भी वह सच ही है.
भारत
की राजनीति आजकल रेवड़ियों यानी लोकलुभान अर्थशास्त्र पर एसे ही अंतरविरोधी बयानों से हमारा मनोरंजन कर रही
है.
वैसे ऊपर वाला संवाद प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म स्कारफेस (1983) का है. ब्रायन डी पाल्मा की इस फिल्म में अल पचीनो ने गैंगस्टर टोनी मोंटाना का बेजोड़ अभिनय किया था. इस फिल्म ने गैंगस्टर थीम पर बने सिनेमा को कई पीढ़ियों तक प्रभावित किया.
सरकार
के अंतरविरोध देखिये
नीति
आयोग ने बीते साल कहा कि खाद्य सब्सिडी
का बिल कम करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य
सुरक्षा कानून के लाभार्थियों की संख्या को करीब 90 करोड से घटाकर 72 करोड पर
लाना चाहिए. इससे सालाना 47229 करोड़ रुपये बचेंगे.
दूसरा, इसी साल जून में नीति आयोग ने कहा कि इलेक्ट्रिक वाहनों पर सरकारी की
सब्सिडी 2031 तक जारी रहनी चाहिए. ताकि बैटरी की लागत कम हो सके.च्
आप
कौन की सब्सिडी चुनेंगे?
इस
वर्ष अप्रैल में केंद्र ने राज्यों को सुझाया कि कर्ज और सब्सिडी कम करने के
लिए सरकारी सेवाओं को महंगा किया जाना चाहिए.
मगर घाटा
तो केंद्र का भी कम नहीं है तो उद्योगों को करीब 1.11 लाख करोड़ रुपये की टैक्स
रियायतें क्यों दी गईं ?
कौन
सी रेवड़ी विटामिन है कौन सी रिश्वत?
68000
करोड़ रुपये की सालाना किसान सम्मान निधि को किस वर्ग में रखा जाए?
14
उद्योगों को 1.97 करोड़ रुपये के जो प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव हैं उनको क्या
मानेंगे हम ?
रेवडियों का बजट
वित्त
वर्ष 2022-23 में केंद्र सरकार का सब्सिडी
बिल करीब 4.33 लाख करोड़ होगा. इनके अलावा करीब 730 केंद्रीय योजनाओं पर इस याल 11.81 लाख करोड़ खर्च होंगे. इनमें से
कई के ‘रेवड़ित्व’ पर बहस हो सकती है.
केंद्र
प्रयोजित योजनायें दूसरा मद हैं जिन्हें केंद्र की मदद से राज्य लागू करते हैं.
इस साल के बजट में इनकी संख्या 130 से घटकर 70 रह गई है लेकिन आवंटन बीते साल के
3.83 लाख करोड़ रुपये से बढकर 4.42 लाख करोड़ रुपये हो गया है.
राज्यों
में रेवड़ी छाप योजनाओं की रैली होती रहती है.
इनसे अलग 2020-21 में राज्यों का करीब
2.38 लाख करोड़ रुपये स्पष्ट रुप से सब्सिडी के वर्ग आता था जो 2018-19 के मुकाबले करीब 12.7 फीसदी बढ़ा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार बीते बरस राज्यों के राजस्व में केवल एक फीसदी
की बढ़त हुई. राज्यों के राजस्व में
सब्सिडी का हिस्सा अब बढ़कर 19.2 फीसदी हो गया है
कितना फायदा कितना नुकसान
मुफ्त
तोहफे बांटने की बहसें जब उरुज़ पर आती हैं तो किसी सब्सिडी को उससे मिलने वाले
फायदे से मापने का तर्क दिया जाता है.
2016
में एनआईपीएफपी ने अपने एक अध्ययन में बताया था कि खाद्य शिक्षा और स्वास्थ्य
के अलावा सभी सब्सिडी अनुचित हैं. वही सोशल ट्रांसफर उचित हैं जिनसे मांग और
बढ़ती हो. इस पुराने अध्ययन के अनुसार
2015-16 में समग्र गैर जरुरी (नॉन मेरिट) सब्सिडी जीडीपी के अनुपात में 4.5 फीसदी थीं.
कुल सब्सिडी में इनका हिस्सा आधे से ज्यादा है और राज्यों में इनकी भरमार है.
आर्थिक
समीक्षा (2016-17) बताती है कि करीब 40 फीसदी
लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी
जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजना, सर्व शिक्षा, मिड डे मील, ग्राम सड़क, मनरेगा, स्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब आबादी
थी.
यदि
शिक्षा और स्वास्थ्य को सामाजिक जरुरत मान लिया जाए तो उसके नाम पर लग रहे टैक्स और सेस के बावजूद अधिकांश आबादी निजी क्षेत्र
से शिक्षा और स्वास्थ्य खरीदती है.
सनद
रहे कि कंपनियों को मिलने वाली टैक्स रियायते, सब्सिडी की गणनाओं में शामिल नहीं की जातीं.
बिजली का स्यापा
िबजली
सब्सिडी भारत का सबसे विद्रूप सच है. उदय स्कीम के तहत ज्यादातर राज्य बिजली
बिलों की व्यवस्था सुधारने और वितरण घटाने
के लक्ष्य नहीं पा सके. 31 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 2019 के बाद से
बिजली की आपूर्ति लागत में सीधी बढत दर्ज की गई.
बिजली
दरों का ढांचा पूरी तरह सब्सिडी केंद्रित है. इसमें सीधी सब्सिडी भी है
उद्योगों पर भारी टैरिफ लगाकर बाकी दरों को कम रखने वाली क्रॉस सब्सिडी भी. 27 राज्यों ने 2020-21 में करीब 1.32 लाख करोड़
रुपये की बिजली सब्सिडी दी, इसमें 75 फीसदी सब्सिडी
किसानों के नाम पर है.
बिजली
वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) 2.38 लाख करोड की बकायेदारी में दबी हैं. इन्हें यह पैसा बिजली बनाने वाली कंपनियों को देना है.
डिस्कॉम के खातों में सबसे बड़ी बकायेदारी राज्य सरकारों की है जिनके कहने पर वह
सस्ती बिजली बांट कर चुनावी संभावनायें चमकाती हैं
तो होना क्या चाहिए
सरकार
रेवड़ियों पर बहस चाहती है तो सबसे पहले केंद्रीय और राज्य स्कीमों, सब्सिडी और कंपनियों को मिलने वाली रियायतों की पारदर्शी कॉस्ट बेनीफिट
एनालिसिस हो ताकि पता चला कि किस स्कीम
और सब्सिडी से किस लाभार्थी वर्ग को िकतना फायदा हुआ.
और
जवाब मिल सकें इन सवालों के
कि
क्या किसानों को सस्ती खाद, सस्ती बिजली,
सस्ता कर्ज और एमएसपी सब देना जरुरी है?
सरकारी
स्कीमों से शिक्षा स्वास्थ्य या किसी दूसरी सेवा की गुणवत्ता और फायदों में कितना
इजाफा हुआ ?
कंपनियों
को मिलने वाली किस टैक्स रियायत से कितने रोजगार आए?
अगर
सस्ती शिक्षा और मुफ्त किताबें रेवडी नहीं हैं तो डिजिटल शिक्षा के लिए लैपटॉप
या मोबाइल रेवड़ी क्यों माने जाएं?
इस
सालाना विश्लेषण के आधार पर जरुरी और गैर
जरुरी सब्सिडी के नियम तय किये जा सकते
हैं.
इस
गणना के बाद राज्यों के लिए राजकोषीय घाटे की तर्ज ‘रेवड़ी
खर्च’ की सीमा तय की
जा सकती है. राज्य सरकारें बजट नियमों के
तहत तय करें कि उन्हें क्या देना है और क्या नहीं.
सनद
रहे कि कमाना और बचाना तो हमारे लिए जरुरी है संप्रभु सरकारें पैसा छाप सकती
हैं, टैक्स थोप सकती हैं और बैंकों से
हमारी जमा निकाल कर मनमाना खर्च कर सकती है . यही
वजह है कि भारत के बजट दशकों के सब्सिडी के
एनीमल फॉर्म (जॉर्ज ऑरवेल) में भटक
रहे हैं जहां "All animals are equal, but some are more equal
than others. इस सबके बीच सुप्रीम कोर्ट की कृपा से अगर देश को इतना भी
पता चल जाए कि कौन सा सरकारी दया रेवड़ी है और कौन सी रियायत वैक्सीन तो कम से कम
हमारे ज़हन तो साफ हो जाएंगे.